सारे यात्री ऊबे हुए हैं। पर ऊपर से सबने अपने को ऐसा व्यस्त बना रखा है कि किनारा आने पर लगेगा, जैसे अप्रत्याशित रूप से ही किनारा आ गया हो। प्रतीक्षा का बोझिल समय काटने के ये कितने पुराने नुस्खे हैं, पर फिर भी हर यात्री इन्हें ही अपनाता है। सिर्फ रेलिंग के साथ लगकर खड़ी वह औरत न ताश खेल रही है, न पढ़ रही है। पिछले एक घंटे में उसने तीन बार अलग-अलग लोगों से समय पूछा है, कुछ इस भाव से मानो महज़ घड़ी मिलाना चाह रही हो। हालाँकि हाथ में विदेश से खरीदी हुई कोई नई घड़ी है, जिसके गलत समय देने की संभावना कम है। हो सकता है, किनारे पर भी कोई इतनी ही व्याग्रता से प्रतीक्षा कर रहा हो।

‘अच्छा किया, उसने किसी को खबर नहीं दी…’ आठ के करीब जहाज़ किनारे पर लगेगा। राखाल छह बजे से ही अपनी वर्दी उतारकर ऊपर आ गया था। काम के दौरान भी ऊपर आते हैं, पर उन दैत्याकार मशीनों से मुक्ति, पूरे दो महीने के लिए मुक्ति पाने की भावना के साथ ऊपर आने का अपना ही एक आनंद है। उसे खुद लग रहा है, जैसे वह जहाज़ का एक अदना-सा कर्मचारी नहीं, वरन् एक संभ्रांत यात्री है, जो तीन साल विदेश रहकर घर लौट रहा है।

एकाएक घर की तस्वीर उसकी आँखों के सामने उभर आई। गराज पर बना हुआ नीची छतवाला लंबा-सा कमरा। वह घर पहुँचेगा, तब तक बच्चे ज़रूर सो चुके होंगे। माला किसी-न-किसी काम में लगी होगी। वह अपना हर पत्र इसी पंक्ति से शुरू करती है-‘उत्तर जल्दी नहीं दे सकी, क्योंकि समय ही नहीं मिला’ और अंत में लिखती है-‘अब बस करती हूँ, बहुत काम पड़ा है।’ बीच में घर की कठिनाइयों की, बढ़ती महँगाई और बच्चों के बढ़ते आवारापन की बातें होती हैं, जिससे राखाल अब बहुत ऊबने लगा है। हर पत्र में मशीनी ढंग से लिखा हुआ ‘प्राणनाथ’ संबोधन पूरी तरह निष्प्राण हो चुका है।

पहली बार जब वह जहाज़ पर आया था तो माला के पत्रों को कई-कई बार पढ़ता था। उस सबके बीच से दस साल का लंबा समय गुज़र चुका है। फिर भी सोये हुए बच्चे और जागती हुई माला की कल्पना ने उसके मन में हल्की -सी गुदगुदी पैदा कर दी। उसे अपने साथियों की याद आई। जब वह नीचे कपड़े बदल रहा था, सब-के-सब बिना किसी शरम-हया के फब्तियाँ कस रहे थे, ‘मशीनों के बीच रह-रहकर मशीन बन गया है! अब ऊपर जाकर फेफड़ों में साफ़ हवा भरेगा, जिससे कुछ ताक़त आए, कुछ जान आए…नहीं तो टाँय-टाँय फिस्स नहीं हो जाएगी…’

उसके दो साथी कुँवारे हैं और एक की बीवी किसी और के साथ रहने लगी है। जब वह अपनी तनख्वाह का बड़ा भाग घर भेजता था तो सब उसे चिढ़ाते थे, माला का पत्र आने पर सब पढ़ते थे। जॉन को अपनी बीवी नए सिरे से याद आ जाती थी और वह फूटफूटकर रोने लगता था। ऐसे मौकों पर राखाल ही उसे तसल्ली देता था…पर जितनी तसल्ली वह देता था, उससे ज्यादा तसल्ली उसके अपने मन में रहती थी कि माला उसे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। निहायत उबा देनेवाले पत्र भी उसे कहीं हल्के-से आश्वस्त तो करते ही थे।

उसे याद आया कि पिछली बार छुट्टी से आने के आठ महीने बाद बुलबुल पैदा हुई थी और दस महीने जीकर वह मर गई। माला ने उसे खूब कोस-कोसकर सूचना दी थी। अभी तो छोटू ही सवा साल का है। दो छोटे बच्चों को घर के सारे काम-काज के साथ वह नहीं सँभाल सकती, फिर बढ़ती महँगाई। कहाँ से खिलाए, कहाँ से पहनाए? और जब वह मर गई, तब फिर कई पत्र उसी की खबर से भरे हुए थे-‘हाय, इससे तो मैं मर जाती तो अच्छा था। सबसे सुंदर थी। ऐसा तो एक भी बच्चा नहीं हुआ। भगवान को लेना ही था, तो दिया ही क्यों था?’

राखाल को न उसके होने की कोई खुशी थी, न मरने का कोई गम। एक हल्की-सी भावना यही थी कि चलो, अच्छा हुआ कि इस बात को भी अब तो डेढ़ साल हो गया, वरना सारी छुट्टियां मातमपुर्सी में ही बीत जातीं।

दूर किनारे की बत्तियाँ दिखाई देने लगी तो ताश में डूबा वह पूरा-का-पूरा दल रेलिंग के सहारे आ खड़ा हुआ। सबके चेहरों पर उल्लास थिरकने लगा। बच्चे दूर खड़ी छोटी-छोटी आकृतियों को ही रूमाल हिलाने लगे। भीड़ से कटकर खड़ी वह अकेली महिला बाइनाकूलर लगाकर किसी को ढूँढ रही है। एकाएक राखाल की नंगी आँखों के सामने माला की आकृति तैर गई।

वह अपने साथियों और अफसरों से विदा लेकर बाहर आया और टैक्सी में बैठा। हर समय जहाज़ के तहखानों में बंद रहने के बाद दूर-दूर तक फैला हुआ कलकत्ता; रात-दिन चारों ओर लरजती और थिरकती लहरों के बाद लंबी-लंबी मौन और स्थिर सड़कें और उन पर उन्मुक्त भाव से प्रकाश उड़ेलती हुई बत्तियों को देखकर उसे नए सिरे से अपने होने का बोध होने लगा।

टैक्सी लेंसडाउन मेन रोड से बाईं लेन में मुड़ी और चार मकान छोड़कर खड़ी हो गई। वह उतरकर गराज पर बने अपने मकान को देखने लगा। खिड़की से बहुत ही मंदी रोशनी बाहर आ रही है, शायद भीतर जीरो पावर का बल्ब जल रहा है।

टैक्सी के ठहरने से, फाटक के खुलकर बंद होने से, भीतर किसी तरह की कोई हलचल नहीं हुई। हाँ, सामने कपूर साहब के घर की खिड़की से एक कटा हुआ धड़ झाँका, दो क्षण रुका और फिर गायब हो गया। माला के घर शायद कभी कोई टैक्सी आकर ठहरती ही नहीं।

‘रानी!’ राखाल ने आवाज़ दी, तो ‘कौन’ के साथ ही माला बाहर निकल आई और राखाल को देखते ही उसके चेहरे पर आश्चर्य-भरा उल्लास फैल गया।

‘यह क्या, तुम? कोई खबर नहीं, सूचना नहीं…’ और एक तरह से झपटकर उसने राखाल के हाथ से होल्डाल ले लिया। टैक्सीवाले को पैसे देकर एक बड़ा और एक छोटा बक्सा सँभाले राखाल सँकरी-सी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उसके पीछे माला होल्डाल को ठेलती हुई। बीच में पहुँचते ही राखाल ने बक्सा सीढ़ी पर टिकाया और घूमकर अँधेरे में ही माला का हाथ पकड़कर ज़ोर से दबाया। ‘चलो, चलो, यह गिर जाएगा।’ हाथ छुड़ाते हुए माला ने कहा। उसके हाथ में कोई प्रतिक्रिया, कोई हरकत नहीं हुई। राखाल को माला का हाथ बड़ा सर्द और निर्जीव-सा लगा और वही ठंडक जैसे उसकी अपनी रगों में समाने लगी।

कमरे में घुसते ही माला ने मरकरी लाइट जलाई। चौदह फुट लंबा कमरा और ज़मीन पर सोते तीन बच्चे उजागर हो गए। नाक-नक्श के साथ माला के चेहरे की झुर्रियाँ…गालों पर पड़े काले-काले चकत्ते और रूखे-सूखे बालों में से झाँकते कई सफ़ेद बाल…

‘तुमने खबर क्यों नहीं दी? खबर देते तो हम सब लोग लेने आते। बच्चे कितने खुश होते…’ वह जैसे एकाएक राखाल का स्वागत करने में अपने को असमर्थ पा रही थी।

‘अच्छा, तुम ज़रा सुस्ताकर हाथ-मुँह धोओ, मैं जल्दी से खाने को कुछ बना देती हूँ।

‘खाना मैं खाकर आया हूँ, कुछ भी बनाने की ज़रूरत नहीं है।’

पर माला फिर भी ‘अभी आई’ कहकर नीचे उतर ही गई।

बच्चे बिना चद्दर के गंदे और पैबंद लगे बिस्तरों पर लेटे हैं। रीना करवट लेकर सो रही है, इसलिए उसका चेहरा नहीं दिखाई दे रहा है। बच्चू और छोटू चित सो रहे हैं। छोटू नंगा है और उसका मुँह भी काफ़ी गंदा है। खिड़की पर फटी साड़ी का पर्दा एक ओर सरककर झूल रहा है।

एकाएक मरकरी लाइट का दूधिया आलोक उसकी आँखों में चुभने लगा। उसने बत्ती बुझा दी। कमरे का नंगापन क्षण-भर को अँधेरे में डूब गया। राखाल बच्चों को बचाता हुआ आया और खिड़की पर बैठ गया। इस घर में यही उसकी स्थायी सीट है।

‘यह क्या, बत्ती क्यों बुझा दी?’ अँधेरे में राखाल को माला की केवल आकृति-भर दिखाई दी, पर वह आकृति उसे पूरे नाक-नक्शवाली माला से ज्यादा परिचित महसूस हुई…

‘रहने दो, बच्चों को परेशानी होगी।’

‘लो, थोड़ा-सा दूध है पी लो।’ और अँधेरे में ही बढ़कर उसने प्याला राखाल के हाथ में थमा दिया। फिर बड़े जतन से वह उसका बिस्तर लगाने लगी। घर की शायद सबसे साफ़ चादर बिछाई। उसके हर काम से उसके मन का उल्लास छलका पड़ रहा था। वह लगातार कुछ-न-कुछ बोले चली जा रही थी।

‘मुझे तो दो साल काटना ही इतना भारी पड़ता था, इस बार तुमने पूरे तीन साल लगा दिए। पूजा पर कितनी-कितनी राह देखी! बेचारे बच्चों को एक-एक नया कपड़ा तक न दिलवा सकी! दादा की बिजली की दुकान खूब अच्छी चलने लगी हैं, सो यह लाइट तो ज़रूर लगवा दी, पर इतना नहीं हुआ कि बहन के बच्चों को एक-एक कपड़ा ही दिलवा देते! टुकुर-टुकुर मेरे बच्चे दूसरों के घर में ताकते रहे।’ माला का गला रुंध गया।

यह सब तो राखाल को छुट्टी-भर सुनना ही है, पर आज वह नहीं सुनना चाहता। बिस्तर पर लेटकर उसने माला को अपने पास लिटा लिया। उसका ध्यान माला की बातों से ज्यादा माला की देह पर लगा हुआ है।

‘क्या करता, पूजा पर जहाज़ इस तरफ़ था ही नहीं। प्राइवेट शिपिंग कंपनी है, छुट्टी के कायदे-कानून पर झगड़ा भी नहीं किया जा सकता है।’ फिर उसे तसल्ली देता-सा बोला, ‘कोई बात नहीं, बच्चों को कल खुश कर दूँगा।’

और फिर उसने माला को अपनी बाँहों में दबोचना चाहा तो वह छिटककर दूर हो गई, ‘माफ करो बाबा, तुम्हारा क्या है? तुम तो अपने कर-कराके चल देते हो। पीछे से जो गुज़रती है, मैं जानती हूँ!’ फिर भरे गले से बुलबुल का प्रसंग शुरू हो गया।

‘उस बेचारी ने तो जाना ही नहीं कि बाबा किसे कहते हैं। बीमारी की हालत में टुकुर-टुकुर ऐसे ताकती थी, मानो कह रही हो कि ‘माँ, बचा लो!’ कपूर साहब ने अपने डॉक्टर जमाई से खूब इलाज करवाया। शंकर ने दवाइयों के लिए रुपए उधार दिए। खूब भाग-दौड़ भी की, पर वह तो अपना कर्ज वसूल करके चली ही गई…’ और माला फूट-फूटकर रोने लगी।

राखाल का सारा शरीर शिथिल हो गया। उसे माला पर क्रोध-सा आने लगा। जो चली गई, उसका खयाल है और जो आया है, उसकी कोई चिंता नहीं! जाने क्यों उसे लगने लगा, जैसे वह किसी और के बारे में सुन रहा है। मानो उस मृत बच्ची से, माला के दु:ख से, उसका अपना कोई संबंध ही नहीं है।

रो-धोकर माला तो सो गई, पर राखाल को किसी तरह नींद नहीं आई। उसे भी तो नहीं लग रहा कि वह घर में है। अभी भी यही लग रहा है, मानो वह जहाज़ में बैठा है और उसके और माला के बीच बहुत-बहुत दूरी है।

सवेरे नींद खुली तो धूप कमरे में भर गई थी। बच्चों के बिस्तर सिमट गए थे। नीचे से माला और बच्चों की मिली-जुली आवाजें आ रही थीं। भरी धूप में उसे यह कमरा कुछ नया-नया लगा। उसने ज़ोर की अंगड़ाई ली और एक सिगरेट सुलगा ली।

दीवार पर हमेशा की तरह माँ दुर्गा की तस्वीर है। उस पर लगी रोली और चंदन के छींटे कुछ ताज़ा लग रहे हैं। शायद इसी पूजा पर लगाए होंगे। उस तस्वीर के पास ही दीवार पर एक छोटा-सा चौकोर निशान बना है। राखाल को याद आया, यहाँ हमेशा उसकी तस्वीर लगी रहती थी, अब वह तस्वीर नहीं है। वह इधर-उधर देखने लगा। कमरे में ठीक-ठाक चीज़ के नाम पर एक छोटी-सी अलमारी मात्र है शीशे के दरवाज़ेवाली। इसमें उसकी बाहर से लाई हुई चीजें रखी हैं, उन्हीं के बीच उसे अपनी तस्वीर दिखाई दी। उसका फ्रेम टूट गया था।

तभी रीना ने कमरे में झाँका और उसे जागा हुआ देखकर शरमाते हुए नमस्ते किया।

‘रीना, यहाँ आओ बेटा!’ और उसने अपने दोनों हाथ फैला दिए। रीना उसकी सबसे लाड़ली बिटिया है। पर रीना पहले की तरह दौड़कर उसकी बाँहों में नहीं समा गई। बस, मुस्कराती हुई उसके पास आ खड़ी हुई।

तीन साल में रीना सचमुच बहुत बड़ी हो गई है-तेरह साल की। उसकी नज़र रीना की हल्की-सी उभरती छाती पर पड़ी। बेटी की जवानी की कल्पना ही उसके लिए नया अनुभव थी।

रीना नीचे दौड़ गई और दो मिनट बाद ही बच्चू आकर उसकी गोद में लद गया। पीछे-पीछे माला ट्रे में बड़े करीने से सजाकर चाय लाई और रीना चार साल के छोटू को लादकर। राखाल को लगा, जैसे सब लोग उसके जागने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

रात को मैले कपड़ों में लिपटे और बिखरे बालवाले बच्चे इस समय धुले-साफ कपड़ों में थे। छोटू की आँखों में मोटा-मोटा काजल था और टाँगों में निकर। माला की माँग में सिंदूर की लाली पीछे तक चली गई थी। एक औपचारिक मेहमान की तरह उसकी खातिर हो रही थी। फिर भी यह सब उसे अच्छा लगा। आने के बाद पहली बार लगा कि वह अपने घर में आया है। चाय के साथ-साथ अपने बीवी-बच्चों के साथ होने की गर्मी भी उसने महसूस की।

बाँहें फैलाकर उसने छोटू को गोद में लेना चाहा। पिछली बार वह साल-भर के छोटू को सारे समय पेट पर बिठाकर खिलाया करता था, पर अब छोटू उसे पहचान नहीं पाता। राखाल ने उसे जबरदस्ती खींचा तो वह रो पड़ा और छिटककर माला के पास चला गया।

‘छोटू, बाबा, बाबा! जाओ बेटा, प्यार करेंगे!’

रीना भी समझाती है, ‘छोटू! बाबा, जाओ, चीज़ देंगे!’

‘एक-दो दिन में पहचान लेगा, तो फिर एक मिनट भी नहीं छोड़ेगा!’ राखाल को लगा, जैसे माला तसल्ली दे रही है।

बच्चू बराबर रट लगाए हुए है, ‘बाबा, क्या लाए हमारे लिए?’ वैसे सभी की आँखों में यही उत्सुकता छलक रही है।

राखाल ने बक्सा खोलकर चीजें निकालनी शुरू की। तीनों बच्चे बक्से के इर्द-गिर्द सिमट आए। कपड़े, खिलौने, पेन, रिबन, जरसी, मोज़े… बच्चू हर चीज़ पर झपटता, तो माला उसे डाँट देती। फिर भी भीतर-ही-भीतर गद्गद् होने के कारण उसकी झुर्रियों में कोमलता और स्निग्धता भर आई है। रीना को जो कुछ दिया, उसने चुपचाप ले लिया। पहले रीना और बच्चू में कितना झगड़ा होता था। रीना का यों बड़ा हो जाना उसे कहीं कष्ट देने लगा।

‘यह तुम्हारे लिए है, और बक्स की सबसे कीमती चीज़ निकालकर उसने माला की ओर बढ़ा दी।

डिबिया खोलकर एकटक घड़ी की ओर देखते हुए माला बोली, मैं अब क्या घड़ी लगाऊँगी! चलो, रीना के काम आएगी।’

बच्चे अपनी-अपनी चीजें बटोरकर दौड़ गए। आसपास के घरों में शायद उसके आने का समाचार पहुंच चुका था। सामनेवाले कपूर साहब की लड़की बरामदे में से ही झाँक रही है।

‘नमस्कार दादा! हँसता हुआ शंकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। राखाल को लगा, उसके होंठ और दाँत पहले से भी ज़्यादा कत्थई हो गए हैं। जाने क्यों, राखाल इस आदमी को कभी पसंद नहीं कर पाया।

बड़े ठंडे लहजे में उसने जवाब दिया, ‘कहो, अच्छे तो हो?’

‘हाँ दादा, सब आपकी मेहरबानी है।’

‘चाय पियो शंकर!’ मनुहार करती-सी माला बोली।

‘आज तो मिठाई खिलाओ बोउदी, दादा आए हैं।’ शंकर के होंठों का कत्थई रंग और फैल गया।

‘दादा, इस बार तो आपने तीन साल लगा दिए! बोउदी ने भारी कष्ट सहा। बुलबुल को तो आपने देखा भी नहीं, पर बोउदी को तो वह बूढ़ा कर गई।’

चुभती-सी नज़रों से राखाल ने देखा। मन में कहीं उभरा, तो तुझे भी अब माला के जवानी-बुढ़ापे की चिंता हो गई है!’

‘शंकर नहीं होता तो मैं कुछ न कर पाती। तुम्हारा अहसान मैं कभी नहीं भूलूँगी, वरना आज के ज़माने में…’

‘बस, मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती। मुसीबत में अपने लोग ही तो काम आते हैं।’

शंकर ने टेरेलिन की कमीज़ पहन रखी थी। एकाएक राखाल की नज़र खूँटी पर टँगी अपनी विदेशी कमीज़ पर गई। उसने उठकर कमीज़ पहन ली। मन-ही-मन संदेह को तोड़ता एक हलका-सा संतोष भी जागा। तभी सिगरेट का खयाल आया। उठकर बोला, ‘लो शंकर, सिगरेट पियो। देखो, इस सिगरेट का जायका कैसा है?

चाय के बरतन समेटती हुई माला बोली, ‘इस बार शंकर के रुपए ज़रूर चुका देना। हर महीने बहुत काँट-छाँट करके भी दस रुपए से ज़्यादा नहीं दे पाती। यह तो बेचारा शंकर है, जो…’

और राखाल को लगा, जैसे माला ने एकाएक घसीटकर उसे शंकर से नीचे ले जाकर पटक दिया हो। यह बात अभी ही कहनी थी! तुम दुनिया भर का कर्जा करो और मैं चुकाता फिरूँ? बेइज्जती अलग!

‘अच्छा दादा बाबू, अभी तो चला,’ और होंठ फैलाकर चारों ओर कत्थई रंग बिखेरता हुआ शंकर भी नीचे उतर गया।

राखाल तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गया।

बाथरूम में ज़रूरत से ज़्यादा देर लगाकर वह ऊपर पहुँचा, तो कमरा खाली था। हाँ, कोने में एक स्टूल पर टेबल-फैन रखा था। ज़रूर यह शंकर ने लाकर रखा होगा, शायद माला ने ही माँग लिया हो!

उसने एक सिगरेट सुलगाई और नीचे जाने की बजाय खिड़की पर आकर बैठ गया। सामने कपूर साहब के बरामदे में रीना उनकी पम्मी के साथ खड़ी किसी बात पर खिलखिलाकर हँस रही थी। उसके हाथ में राखाल की लाई हुई चीज़े हैं।

कपूर साहब के मकान से ही सटा हुआ शंकर का गराज है। गराज, लगता है, पहले से बहुत बढ़ गया है। कई गाड़ियाँ खड़ी हैं मरम्मत के लिए, तभी एक गाड़ी के पीछे से शंकर निकलकर आया। उसके कंधे पर छोटू बैठा है। उसे कंधे पर बिठाए-बिठाए ही शंकर कुछ काम कर रहा है। एकाएक उसे ख़याल आया, तीन साल पहले जब वह आया था, तो इसी तरह बच्चू उस पर चढ़ा रहता था।

खिड़की पर बैठे-बैठे राखाल को लगने लगा, जैसे सारा घर हिचकोले खा रहा है। नहीं, शायद लगातार जहाज़ पर रहने के कारण ही ऐसी अनुभूति हो रही है। एक-दो दिन में ठीक हो जाएगा।

पसीने से लथपथ माला आई, ‘मछली का झोल और भात बना रही हूँ। बोले और क्या बनाऊँ?’

‘कुछ भी बना लो, जो तुम्हारी इच्छा।’

‘अपनी इच्छा से तो रोज़ ही बनाती हूँ, जब तक तुम हो, तुम्हारी इच्छा का बना दूँ। जहाज़ का खाना खा-खाकर शरीर तो आधा रह गया!’

‘तुम्हारे हाथ का कुछ भी खाऊँगा, तो सेहत ठीक हो जाएगी,’ राखाल हलके से मुस्कराया।

‘छोड़ो भी, अब कुछ भी अच्छा खिला सकूँ, ऐसी स्थिति ही नहीं।’ और एक नि:श्वास छोड़कर माला उसी व्यस्त भाव से उतर गई।

राखाल को लगा, जैसे उसी के पास करने को कुछ नहीं है। बच्चे अपने में मस्त हैं, माला अपने में।

सिगरेट समाप्त करके वह नीचे उतरकर गराज में बनी हुई रसोई में चला गया।

‘तुम यहाँ गर्मी में क्यों आए? चलो, ऊपर चलकर बैठो।’ आसन बिछाकर वहीं बैठते हुए राखाल को याद आया-पहले जब वह जहाज़ पर से आया करता था तो माला हर समय उसे अपने पास ही बिठाए रखना चाहती थी।

खाने पर फिर सारा परिवार जुट गया। इस समय बच्चों के लिए राखाल से ज्यादा महत्त्व राखाल के बहाने मिलनेवाले इस खाने का है।

खाना-पीना समाप्त हुआ, तो माला ने बच्चों से कहा, ‘जाओ, दादा के यहाँ जाकर ख़बर कर दो कि बाबा आए हैं। और देखो, धूप में लौटकर मत आना। वहीं खेलते रहना, शाम को हम लोग आएँगे, तो लेते आएँगे।’

बच्चों ने राखाल के लाए हुए कपड़े चढ़ाए और इतराते हुए दौड़ गए। माला नीचे बरतन साफ़ करने लगी।

राखाल ने कमरे की खिड़की बंद कर दी और ज़मीन पर चटाई डालकर चित लेट गया। माला ने शायद जान-बूझकर ही बच्चों को आने के लिए मना कर दिया है।

जहाज़ से उतरकर टैक्सी में बैठे-बैठे माला से मिलने की जैसी अकुलाहट हो रही थी, वैसी ही अकुलाहट उसे फिर होने लगी।

शायद फिर नीचे कोई आ गया है। माला के बात करने की आवाज़ आ रही है। कोई महिला-स्वर ही है। पता नहीं, किस-किसको पाल रखा है। थोड़ी देर वह बेचैनी से राह देखता रहा, फिर ज़ोर से आवाज़ दी, ‘माऽलाऽ!’

अपने स्वर का रोबीलापन उसे स्वयं बड़ा अच्छा लगा।

‘आई, और एक मिनट बाद साड़ी से ही हाथ पोंछती हुई, पसीने से भीगी माला आ खड़ी हुई। ‘पिशी माँ तुम्हें प्रणाम करने आई हैं।’

‘कौन पिशी माँ?’ लेटे-लेटे ही उसने खीजे स्वर में पूछा। पर तभी एक वृद्ध-सी विधवा दरवाज़े पर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई।

‘प्रणाम जमाई बाबू!’

‘तुम नहीं जानते, पर पिशी माँ नहीं होती तो बुलबुल की बीमारी में मेरे बच्चे भूखे मर गए होते, पूरे छह महीने तक पिशी माँ ने खाना बनाया, घर सँभाला। आज भी मेरा आधा काम तो वे ही करती हैं, बिलकुल माँ की तरह मेरा खयाल रखती हैं।’

गद्गद् होती-सी पिशी माँ बोली, ‘अच्छा, अभी चलूँगी, कोई काम हो तो बता दो, कुछ सौदा लाना हो तो…’

‘सवेरे तो गौरी से मँगवा लिया था, कुछ होगा तो बता दूँगी।’

पिशी माँ धीरे-धीरे सीढियाँ उतर गईं। लगा, बुढिया समझदार है।

‘यह क्या तुम्हें गर्मी नहीं लग रही है? खिड़की भी बंद कर दी और पंखा भी नहीं चला रखा है।’ और माला ने उठकर भड़ाक से खिड़की खोल दी।

‘बंद कर दो खिड़की, बहुत चौंधा लगता है।’ नहीं, माला के मन में शायद कहीं कोई इच्छा नहीं बची रह गई है।

माला ने खिड़की बंद कर दी। पंखा चला दिया, ‘शंकर तुम्हारे लिए ही रख गया है। हर बात का इतना ख़याल रखता है कि क्या बताऊँ? और माला पास आकर बैठ गई।

शाम को दादा के यहाँ से लौटकर आएँ तो कपूर साहब से मिल आना। आज के ज़माने में ऐसे भले लोग मिलते नहीं। इतना पैसा है, पर घमंड तो छू तक नहीं गया। तुम कहो तो तुम्हारी लाई हुई चीज़ों में से एक-एक चीज़ पम्मी और शंकर के बच्चे को दे दूँ। उसके अहसान तो क्या उतार सकेंगे, फिर भी।’

माला के पास क्या और कोई बात नहीं है करने के लिए?

‘तुम कितने रुपए लाए हो साथ में? शंकर के तीन सौ रुपए और चुकाने हैं। बुलबुल की दस महीने की बीमारी ने तो मुझे तन-मन और धन से एकदम ही कंगाल कर दिया, फिर भी बच जाती तो सबर करती…’ माला का स्वर फिर भर्रा आया।

कौन थी यह बुलबुल? कैसी थी? सुना था, बच्चे सेतु होते हैं, पर यह तो बने हुए सेतु को तोड़ गई! माला कितनी दूर जा पड़ी है उससे! शंकर, कपूर साहब, पिशी माँ… सबके बीच राखाल का अपना अस्तित्व जैसे घुलने लगा।

‘तुम भी सोचोगे कि मैं जब-तब बस पैसे का ही रोना रोती हूँ। पर तुम्हीं बताओ, क्या करूँ, महँगाई का तो कोई ठिकाना नहीं। तीन बच्चों का और अपना पेट कैसे भरती हूँ, मैं ही जानती हूँ।’

माला क्या जानती नहीं कि राखाल कुछ नहीं कर सकता है? अधिक-से-अधिक रुपया वह घर ही भेज देता है। फिर भी वह यह सब क्यों सुना रही है? शायद उसे गवाह बनाकर अपनी तकलीफ़ों को दोहरा रही है-सिर्फ अपने को हलका करने के लिए। अच्छा होता, वह राखाल न होकर ब्लॉटिंग पेपर होता, जो माला के सारे दुखों को सोख लेता।

शाम को दादा के घर पहुँचे, तो दादा और बोउदी बड़े तपाक से मिले, ‘आओ जमाई बाबू, आओ! इस बार तो आपने तीन साल लगा दिए! बहुत दुबले हो गए हैं। जहाज़ का खाना भी कोई खाना है भला! नमकीन हवा हड्डियों तक को गला देती होगी।’

राखाल का मन हुआ, कह दे-‘नमकीन हवा क्या हड्डियाँ गलाएगी, हड्डियाँ तो तुम्हारे घर में गली थी, जब बेकारी के छह महीने तुम्हारे यहाँ बिताए थे।’ राखाल के मन में वे दिन खुदे हुए हैं…।

तभी दादा के तीनों बच्चे दौड़ते हुए आए। बोउदी ने हँसते हुए कहा, ‘जबसे रीना-बच्चू ने खबर दी है कि बाबा आए हैं, तभी से ऐसे उछल रहे हैं, जैसे इन्हीं के बाबा आए हों। माला के घर को तो ये कभी दूसरा समझते ही नहीं।’

‘बुआ का घर क्या दूसरा होता है?’ दादा ने दाँत दिखाते हुए कहा।

‘बड़ी उतावली हो रही है न देखने के लिए कि क्या लाए? अरे, सबर करो, अभी आए देर नहीं हुई कि अपना टैक्स वसूलने आ खड़े हुए!’ और अपने मज़ाक पर खुद ही खी-खी करके हँसने लगी।

राखाल ने जेब से निकालकर एक-एक कंधा और रिबन दोनों लड़कियों को पकड़ा दिया और एक सस्ता-सा पैन लड़के को।

लगा, बोउदी को काफ़ी निराशा हुई, जिसका प्रमाण चाय के समय मिल गया-एक प्लेट में दो संदेश और एक कप चाय, बस!

बाहर खेलते रीना-बच्चू को शायद वह भी नहीं मिला। भीतर आकर वे ख़ाली प्लेट के बचे हुए चूरे से शायद यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे थे कि बाबा ने क्या खाया।

‘कमीने कहीं के!’ वह बाहर निकलकर बच्चों को ज़रूर मिठाई खिलाएगा।

कमरे के सामनेवाले आँगन में बच्चे दौड़-दौड़ककर खेल रहे थे। राखाल ने देखा, बच्चू दाहिनी टाँग से थोड़ा लँगड़ाता है। सवेरे से उसने बच्चू को एक बार भी इस तरह चलते हुए नहीं देखा, या शायद गौर नहीं किया।

‘अरे बच्चू, ठीक से क्यों नहीं चलते?’ राखाल ने वहीं से झिड़का, बच्चू ठिठककर खड़ा हो गया।

‘लो, और सुनो, चलेगा कैसे बेचारा! हड्डी तोड़कर चार महीने खाट पर रहा! अब तो ज़रा-सी कसर रह गई है, धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी,’ बोउदी ने कहा। फिर वह एक गहरी साँस लेकर बोली, ‘इस बार क्या-क्या कष्ट सहा है बेचारी माला ने! मेरा तो कलेजा मुँह को आता था। बुलबुल तो जाती ही रही…’ और झूठमूठ को उन्होंने आँचल से आँखें पोंछ ली।

बच्चू की हड्डी टूट गई? माला ने तो उसे कभी खबर नहीं दी। एक बार फिर उसने पत्रों की बातें याद करने की कोशिश की। नहीं, इतनी बड़ी बात वह नहीं भूल सकता था। एक अजीब-सी बेचैनी उसे होने लगी।

बाहर निकलते ही उसने माला को आड़े हाथों लिया, ‘तुमने मुझे बच्चू के पैर की हड्डी टूटने की खबर तक नहीं दी! कब टूटी हड्डी? कैसे टूटी?’

‘क्या करती ख़बर करके, तुम कर ही क्या लेते सिवाय परेशान होने के?’

‘फिर भी तुमको लिखना तो चाहिए था। पीछे जो कुछ होता है, मुझे मालूम तो रहे। मेरे बच्चे का पैर टूट गया और इसकी खबर मुझे दूसरे लोग दें! आखिर मैं…’ आगे राखाल से कुछ कहा नहीं गया।

‘पीछे जो कुछ होता है, वह भोगना तो मुझे ही पड़ता है। दूर रहकर तुम चिंता करने के सिवाय कर ही क्या सकते हो? बेकार को परेशान होते!’ माला का स्वर कातर हो आया।

राखाल समझ नहीं पाया कि माला उस पर आरोप लगा रही है या अपना अपराध स्वीकार कर रही है।

सचमुच उसके पीछे क्या-क्या नहीं हो गया! बुलबुल हुई और मर गई। रीना की सारी चंचलता और बचपना ऐसा गया कि उसने बेझिझक होकर उससे बात तक नहीं की। बच्चू के पैर की हड्डी टूटी जुड़ गई। छोटू इतना बड़ा हो गया कि उसे पहचानता तक नहीं और माला?’

लौटकर वह घर नहीं आया। सबको लेकर देशप्रिय पार्क में बैठ गया। बच्चों के माँगने के पहले ही सबको एक-एक आने की मूड़ी दिलवाकर उसने उन्हें अपने पास बिठाया और उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछने लगा।

‘यह बच्चू तो सारे दिन आवारागर्दी करता है! चार महीने बिस्तर पर रहा, सो पढ़ाई-लिखाई तो यों चौपट है, उस पर भी मज़ाल है जो किताब लेकर बैठ जाए! शंकर के लड़के को पढ़ाने के लिए मास्टर आता है, कई बार उसने कहा भी कि बच्चू, तू भी बैठ जाया कर, पर बच्चू को खेलने-कूदने से फुरसत हो तब न?’

आक्रोश और खीज माला के स्वर का स्थायी भाव हो गया है। राखाल ने बच्चू को बाँहों में भरकर अपने पास खींचते हुए कहा, ‘देखना, अब बच्चू कैसे पढ़ता है! कोई शंकर-वंकर का मास्टर नहीं, मैं पढ़ाऊँगा इसे। क्यों बेटा, अच्छे नंबरों से पास होना है न तुम्हें?

बच्चू ने गरदन हिलाकर ‘हाँ’ कर दी। फिर राखाल रीना से बतियाने लगा, वह पहले की तरह ही झेंप-झेंपकर जवाब देती रही।

पर छोटू उसके पास अभी भी नहीं आया। उसे देखकर मुस्कराता ज़रूर था, पर जब राखाल हाथ बढ़ाता, तो वह माला की गोद में दुबक जाता।

‘एक-दो दिन में पहचान जाएगा। पहले तो जब तुम गए थे, तब बहुत दिनों तक तुम्हारे फोटो को देखकर बाबा-बाबा किया करता था। अब इतने दिन हो गए कि भूल गया।’

दो घंटे पार्क में बिताकर जब रात में वे लोग घर लौटे, तो राखाल का मन बहुत हलका हो आया था। कैमिस्ट के यहाँ से खरीदा गोल सिक्का रात के बारे में भी उसे आश्वस्त कर रहा था।

गली में कल की तरह आज भी अँधेरा था। फिर भी वह गली, नीची छतवाला कमरा एकाएक उसे अधिक आत्मीय और अपने लगने लगे। अभी भी जैसे उसके फेफड़ों में पार्क की हवा भरी थी।

माला को लस्त-पस्त करके छोड़ा तब पहली बार ‘घर’ आने का बोध उसकी रग-रग में तैर गया।

थोड़ी देर में माला की नाक बजने लगी। उसे बड़ी देर से सिगरेट की तलब महसूस हो रही थी। उसने सिगरेट निकाली और खिड़की पर बैठ गया।

इस बार जब राखाल सोया तो मकान हिचकोले नहीं खा रहा था।

दूसरे दिन उठकर ही राखाल ने रीना-बच्चू को बैठाकर पढ़ाया और जब वे स्कूल चले गए, तो कमरे की सफाई शुरू की। माला पहले मना करती रही, फिर खुद भी आकर जुट गई।

उसके पास कुछ रुपए और होते, तो घर में थोड़ा सामान डलवा जाता। दो-तीन गोल मूढ़े, एकाध कुर्सी-खैर छोड़ो, खुद भूख काट-काटकर जो थोड़ा-बहुत पैसा उसने बचाया है, उससे यहाँ बाल-बच्चों को खिलाएगा, थोड़ा-बहुत घुमाएगा, सबको एक सिनेमा दिखाएगा। बच्चे ही नहीं, आस-पास के लोग भी जान लें कि वह आया है।

चौका-बरतन करके माला ऊपर चढ़ी तो उससे रहा नहीं गया, ‘तुम सारे काम से छुट्टी पाकर नहा तो लिया करो।’ पसीने से लथपथ माला को देखकर उसका आधा उत्साह ही मर जाता।

‘कितनी बार नहाऊँ? अब मुझे कुछ नहीं अखरता, आदत हो गई है।’ और पसीना सुखाने के लिए वह पंखे के सामने जा बैठी।

‘सुनो!’

राखाल ने माला की ओर देखा।

‘पिशी माँ का एक भांजा है, इंटर पास है और कहीं फैक्टरी में काम करता है, रात में बी.ए. की पढ़ाई करता है…।’

राखाल बात को पकड़ नहीं पाया।

‘पिशी माँ रीना के संबंध के लिए कह रही है कभी से। घर में ज्यादा लोग नहीं और देने-लेने का भी कोई खटराग नहीं होगा।’

राखाल जैसे आसमान से गिर पड़ा।

‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अभी रीना है ही कितनी बड़ी? पढ़ेगी-लिखेगी नहीं क्या?’

‘इसमें दिमाग खराब होने की क्या बात है भला? आखिर शादी तो करनी ही है। संबंध जितनी जल्दी हो जाए, अच्छा है। तुम दूर रहते हो, लड़का ढूँढ़ेगा ही कौन? यह तो भाग से घर बैठे ही लड़का मिल रहा है। तुम बुलाकर मिल लो, देख-सुन लो, तसल्ली कर लो…’

माला थी कि बोले चली जा रही थी और राखाल की यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसे कैसे चुप करे।

‘दादा से कहा कि एक बार लड़के को बुलाकर देख लो, कुछ बात कर लो, तो कतरा गए-‘शादी-ब्याह का मामला है, जमाई बाबू के आने से ही ठीक रहेगा।’ अरे, मैं खूब समझती हूँ। बुलाएँगे, तो कुछ खिलाना-पिलाना पड़ेगा! कौन खर्चा करे?’

‘माला, पर रीना क्या बहुत छोटी नहीं है?’ राखाल के स्वर में अजीब-सी बेबसी आ गई।

‘क्या छोटी है? तेरह पूरे होने वाले हैं। और कौन आज ही ब्याह होने जा रहा है? कुछ न करके भी दो-तीन हज़ार तो चाहिए ही। मुझे तो रात-दिन यही चिंता लगी रहती है।

राखाल की आँखों के सामने जाने कैसी धुंध छाने लगी और थोड़ी देर पहले का जमाया हुआ कमरा फीका लगने लगा।

‘दादा बाबू, आपने बुलाया?’ अपने कत्थई होंठ फैलाए हुए शंकर सामने आ खड़ा हुआ।

‘बैठो-बैठो।’ हजामत बनाते हुए राखाल ने कहा।

‘लो, आपने तो कमरे की शक्ल ही बदल दी! अब लग रहा है कि घर का मालिक आ गया।’ शंकर हँसने लगा। पर राखाल को अब शंकर की हँसी उतनी बुरी नहीं लगी।

एक अधमैले तौलिए से रगड़कर मुँह पोंछते हुए राखाल ने कहा, ‘माला तुम्हारा कुछ हिसाब बता रही थी। मुझे पहले तो मालूम नहीं था, वरना पूरे का ही प्रबंध करके लाता।’ स्वर में घर के मालिकवाला रौब पूरी तरह था।

‘अरे दादा बाबू, आप चिंता न करिए, रुपए कौन भागे जा रहे हैं!’

‘नहीं भाई, कर्ज जितनी जल्दी चुक जाए, अच्छा!’ और राखाल ने अपना छोटा-सा संदूक खोलकर उसमें से सौ रुपए का नोट निकालकर दे दिया।

शंकर ने नोट जेब में रखा और चल दिया। राखाल ने बचे हुए गिने। ‘अस्सी’। पहली तारीख को तनख्वाह मिलेगी, उसमें से माला को घर-खर्च के लिए रुपए देने के बाद पचास रुपए बचेंगे। कुल हुए एक सौ तीस। इन्हीं रुपयों से उसे दो महीने तक अपने बीवी-बच्चों को घुमाना-फिराना है और फिर लौट जाना है।

अनायास रंजू की बात याद आई कि जहाज़वालों को तो शादी करनी ही नहीं चाहिए। यहाँ रात-दिन मशीनों से सिर फोड़ो, पैसा मिले, तो घरवालों की हाजिरी में भेज दो। भैया, हम अच्छे हैं, जिस घाट उतरे, तफरी कर ली…न किसी का देना, न लेना। तब उसकी आँखों के आगे माला और बच्चे तैर जाते थे।

वह तौलिया लेकर नहाने चला गया।

आज पिशी माँ का भांजा आनेवाला है अपने चाचा के साथ। राखाल के मना करने पर भी माला ने बुला ही लिया। साथ में दादा से भी कह दिया कि वह भी आ जाएँ।

दादा चार बजे ही आ धमके। कलफ़ लगा कुरता और चुन्नटदार धोती। एक जगह बैठे-बैठे ही कुछ ऐसे सक्रिय लग रहे हैं, जैसे घर के मालिक, कर्ता-धर्ता वही हों, राखाल तो मात्र आगंतुक है। राखाल को दादा की उपस्थिति-भर ही बहुत कष्ट देती है, पर माला की ज़िद, ‘बात जम गई और पीछे कुछ भी करना हुआ, तो रो-झींककर दादा से ही तो करवाना होगा। पैसे का मामला न हो तो भाग-दौड़ थोड़ी-बहुत कर दी देंगे।’

कपूर साहब के यहाँ से बरतन, दरी, चादर और थोड़ा बहुत टीम-टाम का सामान लाकर माला ने भरसक कमरे को ठीक कर दिया। माला के मन में उत्साह है। राखाल ने काम में मदद ज़रूर की, पर बड़े बे-मन से।

पता नहीं रीना को पता भी है या नहीं? ज़रूर होगा। इन बातों की गंध पाने के लिए लड़कियों के पास छठी इंद्रिय होती है। कैसा लग रहा होगा उसे? रीना ने राखाल और अपने बीच संकोच की एक दीवार खड़ी कर ली है, वरना खुद ही पूछ लेता।

लड़का आया। गहरा साँवला रंग और चेचक के दाग। राखाल का रहा-सहा उत्साह भी जाता रहा। राखाल ने वैसे तय कर लिया था कि इन लोगों के आने के बाद वह दादा को इतना मुखर नहीं रहने देगा। घर के मालिक की हैसियत से वही सारी बातचीत करेगा। पर लड़के की सूरत देखकर यह निर्णय अपने-आप पिघल गया।

दादा बात भी कर रहे हैं और धोती का छोर उठाकर ऊपर-नीचे आ-जा भी रहे हैं।

‘करने दो जो मर्जी आए। अंतिम निर्णय तो मैं ही दूँगा। दादा और माला, किसी की नहीं चलने दूंगा।

‘हम तो कभी से मिलना चाह रहे थे, पर आपके लौटने का इंतज़ार था, चाचा ने कहा, तो राखाल को थोड़ा संतोष हुआ। पहली बार होठों पर मुसकुराहट आई। चलो, कम-से-कम यह तो मालूम है कि घर का मालिक मैं हूँ।

फिर इधर-उधर की बातचीत चलने लगी। चाचा ने पूछा, ‘अच्छा, राखाल बाबू, आप तो बहुत देश-विदेश घूमते हैं, अपने देश जैसी संस्कृति कहीं देखने को मिलती है?’ राखाल को लगा, चाचाजी उसके विदेश घूमने से काफी प्रभावित हैं।

वह कुछ कहता, उसके पहले ही दादा बोले, ‘अरे नहीं गांगुली बाबू, जमाई बाबू का काम तो जहाज़ का है। देश-विदेश कहाँ घूम पाते हैं बेचारे! जहाज़ पर ही तो रहना पड़ता है। फिर भी कुछ मालूम हो तो बोलो जमाई बाबू, अपने देश जैसी संस्कृति कहीं देखी?’

राखाल भीतर-ही-भीतर भुन गया जहाज़ पर नौकरी नहीं करते। कहो, जहाज़ में पाखाना साफ़ करते हैं! कमीना कहीं का! इस माला को मना कर दो, फिर भी मरेगी इस दादा के पीछे! आज वह माला की अच्छी तरह खबर लेगा।

बात संस्कृति से नौकरी पर आ गई और लगे हाथ ही बेकारी की समस्या और सरकार की धुनाई भी हो गई।

ऐसे संकट के दिनों में भी अपने भतीजे को फैक्ट्री में नौकरी दिलवा देने की सफलता पर अपार गर्व महसूस करते हुए गांगुली बाबू रसगुल्ले पर रसगुल्ले खाते रहे। ‘लड़कीवाले भले ही हों, पर खाने में बराबरी के ही उतरेंगे’ के भाव से दादा मुकाबला करते रहे।

‘खाए जा कम्बख्त, मुफ्त का माल है! अपने घर तो एक-एक संदेश देकर छुट्टी कर दी!’

उन लोगों के जाते ही खुलकर राखाल ने घोषणा कर दी, ‘यह लड़का बिलकुल नहीं चलेगा। पिशी माँ से कह देना, बात ख़त्म कर दे।’ अपने स्वर की दृढ़ता पर राखाल स्वयं विस्मित था।

‘जमाई बाबू, ऐसा लड़का आपको मिलेगा नहीं। लड़कों का भी कोई रंगरूप देखा जाता है! रंग का है भी क्या-गोरा या काला। बाकी नौकरी करता है, बी.ए. की पढ़ाई कर रहा है। परिवार का खटराग नहीं, रीना अकेली राज करेगी। सबसे बड़ी बात लेने-देने का झमेला नहीं, दहेज़ दिया जाएगा आपसे?’

मैंने कहा न कि यह संबंध नहीं होगा। मुझसे क्या होगा, क्या नहीं, यह मैं समझ लूँगा। कोई चेहरा है लड़के का?’

राखाल के इस रूप से माला स्तब्ध। दादा भुनभुनाकर चले गए, आप तो बाहर रहते हैं, यहाँ बीवी-बच्चे हमारे नाम को झींकते रहते हैं। आज के ज़माने में अपना घर चलाना ही मुश्किल, किस-किसका करते फिरो!’

‘और बुलाओ दादा को! मेरा अपमान कर गए खूब अच्छी तरह, अब तो कलेजा ठंडा हो गया? जैसा भाई, वैसी बहन!’

माला रो पड़ी।

माला को यों ही रोता छोड़कर राखाल बाहर निकल गया। सामने ही कोनेवाले स्टाल से पान लगवाकर खाया और डंडी से चूना चूसता हुआ पार्क में टहलने लगा।

परम संतुष्ट वह घर पहुँचा…

कपूर साहब का सामान जा चुका था। और कमरा बड़ा उखड़ा-उखड़ा लग रहा था। माला नीचे रसोई में थी और बच्चे बाहर।

लड़के को ना-पास करके ही उसे लग रहा था, जैसे घर में उसने अपने को पूरी तरह पास कर लिया है। गांगुली मोशाय और दादा के साथ-ही-साथ उसके अपने मन की खिन्नता और जड़ता भी चली गई। एक नया आत्मविश्वास कुछ नहीं हो सकता।’

राखाल ने सबका कार्यक्रम ठीक कर लिया।

सवेरे रीना उसके सिर में तेल डालकर आधा घंटे तक चंपी करती। बच्चू अंग्रेज़ी की स्पेलिंग याद करता और सवाल करता।

अब सब्जी गौरी या पिशी माँ नहीं लाती, राखाल खुद बाज़ार करने जाता। हफ्ते में एक दिन मछली भी लाता।

छोटू का लिवर बढ़ा हुआ था, तो खुद उसे अस्पताल ले गया। उसे नहीं पसंद कि हर बात में दूसरों का अहसान लिया जाए।

शाम को बच्चू खड़े होकर उसके पैर दबाता और साथ ही पहाड़े भी याद करता। खाने के बाद बच्चों को वह पढ़ाने बैठ जाता।

मशीनों के बीच रहते समय उसे कभी याद नहीं रहता कि वह बी.एस-सी. है। उसकी अपनी जिंदगी तो बर्बाद हो गई, पर वह चाहता है कि कम-से-कम बच्चों की जिंदगी बना दे।

उसे आज भी याद है कि जब वह कलकत्ते में ही नौकरी करता था और रीना हुई थी, तो माला की एक आकांक्षा थी कि वह अपनी बिटिया को डॉक्टर बनाएगी… और अब?

रविवार की शाम को माला और बच्चों को लेकर घूमने जाता। उस समय शंकर या कपूर साहब दिख जाते तो वह दो मिनट ठहरकर ज़रूर उनसे कुछ बात करता, फिर बड़ी लापरवाही से कहता, ‘ज़रा बच्चों को घुमा लाऊ। अक्तूबर समाप्त हो रहा है, पर अब भी गर्मी खत्म नहीं हुई! शाम को घर में घुटन हो जाती है।’

पहली तारीख को आफिस जाकर तनख्वाह ले आया। माला को हर महीने की तरह रुपए दिए और पचास रुपए अपने पास रख लिए।

‘लाओ, इस बार तो ये रुपए मुझे दे दो, तुम क्या करोगे? न हो तो शंकर को दे दो।’

माला हमेशा उसे ख़र्चा करने के लिए टोकती रहती, पर वह हमेशा झिड़क देता। इस बार भी उसने इनकार कर दिया, ‘नहीं कुछ रुपया मेरे पास चाहिए। बच्चों को घुमाना-फिरना, खिलाना-पिलाना तो है, वे बेचारे कैसे जानेंगे कि उनका बाबा आया है।’

पैसे के मामले में वह माला पर कतई निर्भर नहीं करना चाहता, बल्कि चाहता है माला उस पर निर्भर करे।

धीरे-धीरे राखाल की छुट्टियाँ और पास के रुपए समाप्त होने आए। राखाल ने छोटे का नाम भी रजिस्टर करवा दिया। जनवरी से वह भी स्कूल जाने लगेगा।

सरकारी स्कूल में फीस ज़्यादा नहीं लगती, पर कॉपी-किताब, पैंसिल आदि के खर्चे की ही माला को चिंता है। राखाल ने समझा दिया, ‘इस बार बीस रुपए की तरक्की मिलेगी, वह सब तुम्हारे पास भेज दिया करूँगा, तुम बच्चों को ठीक से पढ़ने दो।

‘और देख रीना, माँ स्कूल छुड़वाए, तो छोड़ना मत। मुझे लिख देना। तू मुझे बराबर चिट्ठी लिखा कर, सारे हाल-चाल, समझी!

‘बच्चू बेटा, मेरे पीछे मन लगाकर पढ़ना। अच्छे नंबरों से पास होओगे तो इनाम भेजूंगा। बच्चू तो मेरा राजा-बेटा है।

‘छोटू बाबा, इस बार लौटकर आऊँ तो भूलना मत। हम आए, तो छोटू बाबू हमको पहचानते नहीं, हमारे पास आते नहीं, और अब हम नहाने जाएँ तो बाहर खड़े होकर रोते हैं। अब तो नहीं भूलोगे? हमारी तस्वीर के सामने खड़े होकर बातें किया करना।’

और राखाल भर्राए गले से हँस दिया।

उसके बाद खाना बनाती माला की ओर नज़र गई, तो समझ में नहीं आया कि क्या कहे? केवल इतना ही कह पाया, ‘देखो, तुम हर बात की सूचना ज़रूर देना। यही ठीक है कि मैं दूर रहकर कुछ नहीं कर सकता, पर कम-से-कम जान तो सकता हूँ।’

उसके बाद बड़ा बोझिल-सा मौन वहाँ पर छा गया।

तीन दिन बाद वह चला जाएगा और माला अभी से उदास रहने लगी है। उसका अपना मन जैसे कहीं से डूबने लगा है।

रात में माला उससे सटकर सो रही है, ‘इतना ख़र्च यहाँ न करते और शंकर के बचे हुए दो सौ रुपए चुका देते तो अच्छा होता। पहले तो यही कहकर टालती रही कि तुम आओगे तो दे दूँगी… अब कौनसा बहाना बनाऊँगी!’

राखाल इस समय यह बात नहीं करना चाहता। फिर भी माला को तसल्ली देने के लिए कह दिया, ‘मैं जाकर ही रुपए भेज दूंगा।’

कल उसे अपनी ज्वाइनिंग रिपोर्ट देनी है और परसों सवेरे दस बजे जहाज़ खुलेगा। आज कुछ और भी तो किया जा सकता है।

दूसरे दिन आफिस से लौटकर शंकर से मिल लिया। दादा के यहाँ अब वह नहीं जाएगा। कपूर साहब से वह शाम को मिल आएगा।

आज आखिरी शाम है। खाना साथ लेकर सारा परिवार लेक्स पर जा बैठा। खाने में वही मछली का झोल और भात। सब चुपचाप बैठे हैं। बच्चू मछली पर वैसे ही टूटा पड़ रहा है। सिर्फ छोटू इस समय माला की गोद में नहीं, राखाल की अपनी गोद में है।

शाम का अँधेरा उसके मन पर उतरता आ रहा है। माला की आँखें इस बात की गवाह हैं कि दिन में वह कई बार रो चुकी है।

दूसरे दिन राखाल सबको लेकर आठ बजे ही जहाज़ पर पहुँच गया। उसने अपनी हाजिरी लगवा दी। तीन साथियों में से केवल रंजू इस बार साथ है, दो किसी और जहाज़ में चले गए।

वर्दी पहनकर वह फिर बच्चों और माला के पास आ खड़ा हुआ। रीना चुपचाप रो रही है। माला रोने के साथ-साथ उसे याद दिला देती है, ‘शंकर के रुपए जैसे भी हो, भेज देना।’

और राखाल की आँखों के सामने बहुत दिनों बाद जैसे शंकर के होंठों और दाँतों का रंग एकाएक कौंध गया।

छोटू उसकी गोद में ही लदा हुआ है। वह बार-बार उसे प्यार कर लेता है।

जहाज़ खुलने का समय करीब आ रहा है। राखाल ने छोटू को माला की गोद में दिया है, तो वह मचल पड़ा। दोनों हाथ बढ़ा-बढ़ाकर और पैर पछाड़कर वह रो रहा है, ‘बाबा के पास जाऊँगा।’

माला ने गले में आँचल डालकर राखाल के पैर छुए, तो राखाल भी जैसे अपने को नहीं सँभाल सका। छोटू के गाल पर प्यार करके और रीना, बच्चू के सिर पर हाथ फेरकर राखाल मुड़ गया।

हिचकियों के बीच माला के शब्द सुनाई दे रहे थे, अपना खयाल रखना… चिट्ठी जल्दी-जल्दी भेजना… शंकर के रुपए जाते ही भेजना… इस बार तीन साल मत लगाना…’

जहाज़ छूट गया। दहाड़ मारती लहरों की आवाज़ और आस-पास के सारे शोर-शराबे के बीच भी उसे पछाड़ खाते हुए छोटू के रोने की आवाज़ सुनाई दे रही है। किनारा धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है। किनारे की आकृतियाँ धुंधली होती जा रही हैं, पर उसकी आँखों के सामने चारों प्राणी ज्यों-के-त्यों खड़े हैं।

अब किनारा बिल्कुल नहीं दिखाई दे रहा है। दिखाई दे रहा है लैंसडाउन का घर।

माला ने गद्दे उठाकर दोनों बक्से निकाल दिए होंगे। बक्से दब जाने से उसे बड़ी असुविधा होती थी, पर वह जैसे-तैसे चला ही रही थी, शायद इसी दिन की प्रतीक्षा में। टेबल-फैन और स्टूल वापस शंकर के गराज में चला गया होगा।

शंकर सारा अपनापन दिखाकर माला को तसल्ली दे रहा होगा-‘रोती क्यों हो बोउदी! मैं तो हूँ।’

कपूर साहब के बरामदे में से उनकी लड़की पम्मी चिल्लाकर कह रही होगी-‘माशी माँ, डॉक्टर बाबू के पास जाना हो तो तैयार रहिए, पापा दस बजे निकलेंगे।’

पिशी माँ घर का छोटा-मोटा सामान लाते-लाते रीना के लिए फिर कोई लड़का खोज लाएगी! कौन जाने फिर वही लड़का आ जाए। सभी तो उसके पक्ष में थे।

एकाएक उसे लगने लगा, शायद वह एक बहुत ही नकली-से माहौल में रहकर लौटा है।

शायद माला कई बातों में केवल उसके डर के मारे ही चुप रही है। बच्चू मन मारकर पढ़ने बैठता था। अब वह पहले की तरह निश्चित होकर, बस्ता कोने में पटक, शंकर के गराज या फुटपाथों पर खेलता फिरेगा। रीना के घर के काम से छुट्टी पाते ही कपूर साहब के बरामदे में खड़ी होकर बतियाया करेगी। छोटू शंकर के कंधे पर टँगकर उसके सिर पर तबला बजाया करेगा।

बच्चे खेल-खेल में तस्वीर का शीशा न फोड़ दें, इस डर से माला उसकी तस्वीर को फिर अलमारी में बंद कर देगी। और छोटे के मन में उसकी याद बहुत धुंधली हो जाएगी।

‘अब नीचे भी चलोगी या यहीं टँगे रहोगे?’ पूरे हाथ का धौल जमाकर रंजू हँस रहा था।

राखाल नीचे उतर आया। मशीनों के बीच पहुँच उसे एक अजीब-सी राहत मिली। वही परिचित गंध, वे ही चिर-परिचित मशीनें। लगा, जैसे अपनी असली जगह आ गया।

‘यार, तुम जैसे लोगों को बहुत घुलना-मिलना नहीं चाहिए बीवी-बच्चों से। इतनी शिक्षा देता है यह गुरु, तुम लोग फिर भी सीखते नहीं हो। बेटा, अपनी जिंदगी तो इन मशीनों के साथ बँधी है, समझे! इनको तेल पिलाओ और चलाओ।’

और फिर उसके हाथ में तेल की कुप्पी थमाते हुए बोला, ‘इधर के हिस्से की ऑइलिंग तो कर दे ज़रा लपक के।’

राखाल ने कुप्पी ली और मशीन के सामने खड़े होकर कुप्पी की नोक छेदों में लगाकर पूरे मनोयोग से तेल डालने लगा।

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