हम अपने पोते-पोतियों के साथ अपना बचपन एक बार फिर से जीना चाहते हैं, यह बात मयंक क्यों नहीं समझ पा रहा? अपनों की प्रतीक्षा करते-करते हमारी आंखों की रोशनी धुंधली होती जा रही है और मयंक है कि परदेस की चकाचौंध में खोया है। हर माह पैसे भेजने से, फोन पर बातें कर लेने से हमारे प्रति उसकी जिम्मेदारियां खत्म हो जाती हैं क्या?
सुधा जी ने रोते हुए मनोहर जी से पूछा, मनोहर जी मौन होकर अपनी पत्नी को देखते रहे। ‘मां जी! भैया ने कहा तो वह दो महीने बाद आएंगे वह भी पूरे एक महीने के लिए, फिर इतना रोना क्यों? तुलसी उन्हें बहुत देर से चुप कराने की कोशिश कर रही थी। तुलसी इस घर की नौकरानी थी पर उसका दर्जा एक बेटी के समान था। ‘मैं सोने जा रही हूं, मुझे भोजन करने के लिए मत जगाना। सुधा जी ने तुलसी से कहा और करवट लेकर सोने का अभिनय करने लगी।
दो महीने पहले से इस ‘मयंक निवास की आंतरिक और बाहरी साज-सज्जा हो रही थी। इस वृद्ध दंपत्ति की खुशियों का ठिकाना ही नहीं था। साल में सिर्फ एक बार मयंक अपने परिवार के साथ यहां आता था। उनके आने से ऐसा लगता जैसे वसंत ऋतु आ गई हो। आज सुबह ही मयंक से बात हुई, उसने बताया कि वह छुट्टियां बिताने भारत नहीं आ रहा। उसने जो मजबूरियां बताई, वह अपनी जगह सही थी। उसकी बातें सुनते ही सुधा जी रोने लगी। उनके उमंग और उत्साह पर पानी पड़ गया। पल भर में ही ऐसा लगा जैसे पतझड़ आ गया हो।
शहर के किनारे स्थित ‘मयंक कुंज की साज-सज्जा देखकर लोग अनुमान लगाते, मनोहर जी और सुधा जी बहुत सुखी जीवन जी रहे हैं, मगर वास्तविकता इससे विपरीत थी। तिरसठ वर्षीय सुधा जी और अड़सठ वर्षीय मनोहर जी न तो अपने तन से सुखी थे और न ही अपने मन से। कुछ विचित्र स्थिति थी इस वृद्ध दंपत्ति की। इकलौता बेटा मयंक लंदन में रहता था। घर में फैला सन्नाटा उन्हें बहुत डराता था। मन बहलाने के लिए बाहर तो जाते मगर जल्द ही लौटना पड़ता क्योंकि ज्यादा चलने से सुधा जी के गठिये का दर्द बढ़ जाता। वह आपस में ज्यादा बातें भी नहीं कर पाते थे, क्योंकि मनोहर जी गले के दर्द से परेशान रहते थे।
दीवारों को देखते हुए कौर निगलने में कितनी उकताहट होती है, इस बात को बाहर वाले क्या समझेंगे? साल भर तक थका देने वाली लंबी प्रतीक्षा करने के बाद मयंक का आगमन होता और उसके जाते ही दोनों एक बार फिर इस घर में अकेले रह जाते।
मनोहर जी के सेवानिवृत्त होने पर सुधा जी बहुत खुश थीं, ‘अब शेष जीवन अपने पोते-पोतियों के साथ गुजारूंगी। उनके साथ हमारा समय कैसे कट जाएगा पता ही नहीं चलेगा। ‘हां मां! तुमने अच्छा फैसला लिया है। अब यहीं रहना। आप लोग वहां रहते हैं तो मुझे भी चिंता लगी रहती है। मयंक उन्हें लंदन के अपने घर में देख बहुत खुश हुआ था।
बहुत खुश थे दोनों। लंदन पहली बार आए थे। ऑफिस में भी वह ऊंचे पद पर था। बहू भी अच्छी जॉब करती थी। बच्चे पढ़ाई में अव्वल तो थे ही खेलकूद में भी स्थान बना रहे थे। अपने संतान की उन्नति का श्रेय मनोहर और सुधा जी भगवान को देते। उनके आगे नतमस्तक होकर अपनी कृपा बनाए रखने का निवेदन करते। लंदन में आए ठीक से एक महीना भी नहीं बीता था कि उन्हें कुछ खटकने लगा। उन्हें महसूस होने लगा मयंक उनके साथ होकर भी उनके साथ नहीं है। मयंक, बहू और बच्चे तड़के उठकर वॉक पर चले जाते। दो घंटे बाद सिर्फ बच्चे वापस आते, क्योंकि उन्हें स्कूल जाना होता था। बेटे-बहू अपनी फिटनेस के लिए जिम चले जाते। वहां से आते तो ऑफिस जाने की जल्दी होती। दिनभर में बीस लोगों से मीटिंग होती, उनकी व्यस्तता देखकर लगता चौबीस घंटे भी उनके लिए कम ही हैं। बच्चे भी स्कूल खत्म करके खेल की प्रैक्टिस करने चले जाते।
सुबह से शाम तक दोनों घर में अकेले रहते, बस रात में बच्चों से बातें होती वह भी कुछ खास नहीं। जल्द ही एक-दूसरे को ‘गुड नाईट कहते हुए सब अपने कमरे में चले जाते। वृद्ध दंपत्ति समझ ही नहीं पा रहे थे, यह क्या हो रहा है? वह तो शेष जीवन मयंक के साथ गुजारना चाह रहे थे मगर मयंक के पास तो उनके लिए समय था ही नहीं। दूसरी समस्या वहां की जलवायु थी, तेज बर्फीली हवाएं सुधा जी के गठिये के दर्द को बढ़ा रही थीं तो दूसरी ओर मनोहर जी भी कफ और गले के दर्द से परेशान रहने लगे थे। एक इंडियन डॉक्टर ने ही राय दी ‘आप इंडिया चले जाइए, आपका शरीर यहां की सर्द जलवायु को झेलने के लायक नहीं है।Ó भारी मन से उन्होंने लौटने का फैसला लिया।
शाम होने पर सुधा जी की आंखें खुली, देखा मनोहर जी लॉन में टहल रहे थे। पास जाने पर धीरे से बोले, ‘सुधा जी! इंसान इतना स्वार्थी क्यों होता है? क्यों वह सिर्फ अपनी ही खुशियां चाहता है? प्रकृति से वह क्यों नहीं कुछ सीखता? इन पौधों को देखो, इनके फूल कुछ समय ही इनके साथ रहेंगे, टूटने के बाद यह सजीव और निर्जीव वस्तुओं पर सजकर उनकी शोभा बढ़ाएंगे। फूलों के अलग होने के बाद क्या पेड़-पौधे पुष्पित होना छोड़ देते हैं? चिडिय़ा अंडे देती है, अपने बच्चे को बड़ा करती है तथा उसे उडऩा सिखाती है, उसके बच्चे उडऩे के बाद लौट कर नहीं आते तो क्या वह इस बात की किसी से शिकायत करती है? फिर हमारी खुशियां क्यों मयंक की मोहताज बनकर रह गई है? क्या हमें स्वयं अपनी खुशियां ढूंढऩे का हक नहीं है? हमारे पास सब कुछ है मगर हम खुश नहीं हैं, खुश रहने के लिए हमें ही कुछ न कुछ करना होगा।
कुछ दिनों बाद एक युगल दंपत्ति मयंक निवास में आये। पता चला किरायेदार हैं, इन्हें मनोहर जी ने बुलाया था। ‘तुलसी! इन्हें ऊपर ले जाओ, आज से ये हमारे साथ ही रहेंगे, मनोहर जी ने कहा। ‘मम्मी! कितना बड़ा झूला? दो बच्चे झूले की तरफ लपके तो एक बच्चा तितली पकडऩे के लिए लॉन में इधर-उधर दौडऩे लगा। उनके माता-पिता उन्हें छोड़कर सामान सहेजने में लग गए। उनके आ जाने से घर में अजीब सा शोर होने लगा। लेकिन इस शोर में जीवन की लय सुनाई देने लगी।
नई उमंग और नया जोश भर दिया था इस लय ने। बच्चों के साथ उन्हीं की तरह तोतली भाषा में बात करके आनंद की विशेष अनुभूति प्राप्त होती। खुशियां मानो पैरों में घुंघरू पहने पूरे घर में नृत्य कर रही हों। ‘उनका बैकग्राउंड तो चेक कर लिया है ना? ये आपके आरामकरने के दिन हैं। ये किस चक्कर में पड़ गये आप? मयंक नाराज हो गया। ‘आराम तो अब मिला है उकताहट से, शारीरिक कष्ट से, घर में पसरे सन्नाटे से।
आज उनका मयंक कुंज खिलखिला रहा है, बोल रहा है बच्चों और उनके माता-पिता के साथ तुलसी के साथ और इस वृद्ध दंपत्ति के साथ।
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