papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

उस शाम आनन्द का कोई भी मेहमान नहीं आया तो सुधा को बहुत आश्चर्य हुआ। आनन्द बाबू ने ऐसा किया क्या ? क्या वह उसकी सुन्दरता को बना-संवारकर निहारना चाहते हैं ? क्या इस प्रकार छिप-छिपकर देखने से उनका मन नहीं भरा ? कहीं वह अब भी उसे छिप-छिपकर तो नहीं देखते हैं ? उस रात बहुत देर बाद वह इन्हीं उलझनों में परेशान रही।

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वह किस प्रकार आनन्द बाबू से पीछा छुड़ाए ? कहां जाए ? बिना स्वार्थ एक सुन्दर अबला को कौन सहारा देगा ? परन्तु अन्त में उसे अपनी कठिनाइयों का एक हल मिल ही गया। वह आनन्द बाबू से कहेगी कि वह राजा को अपने पास रख लें और उसे अंधों के स्कूल में भेज दें। जब राजा कुछ बड़ा हो जायेगा तथा वह भी उसे संभालने योग्य हो जायेगी तो उसे अपने साथ ले जायेगी। आनन्द बाबू देवता हैं। वह उसकी मजबूरी को समझ लेंगे। यद्यपि वह जानती है कि राजा के बिना उसका जीना कठिन हो जायेगा परन्तु अपने आपको पति भक्ति की अग्नि परीक्षा में सफल उतारने के लिए उसके पास दूसरा कोई चारा भी नहीं है।

दूसरे दिन आनन्द उसके पास बिलकुल भी नहीं गया। वह समझ गई वह पिछली शाम की घटना के कारण उदास है। परन्तु वह उसके लिए कर भी क्या सकती थी ? और इसीलिए जब शाम ढलने लगी तो उसे ही आनन्द के पास जाना पड़ा। आनन्द कमरे में उसे देखकर आशा-निराशा की मिली-जुली ज्योति लिए उठ खड़ा हुआ। तब नन्हा राज उससे बातें कर रहा था।

‘‘आनन्द बाबू।’’ सुधा ने कहा, ‘‘क्या यह संभव नहीं कि राजा को अपने पास रख लें और मुझे अंधों के स्कूल में भेज दें ? ज्योति आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।’’

आनन्द के दिल को धक्का लगा। सुधा को अपने अतीत से इतना प्रेम है कि वह अपने बच्चे से भी दूर रह सकती है। अब वह सुधा का मन कभी नहीं जीत सकता। फिर भी सुधा की सहायता वह अवश्य कर सकता है। उसने तय कर लिया, वह सुधा को अपनी आंखें दान कर देगा और फिर अपनी वास्तविकता भेद में रखकर उसके संसार से बहुत दूर चला जायेगा। इसी में उसकी भूल का सुधार है। उसका प्रायश्चित पूरा हो जायेगा। उसने निराश स्वर में कहा, ‘‘ज्योति आने का प्रश्न क्यों नहीं उठता ? आपकी आंखों का आपरेशन फिर होगा-अवश्य। मैं कल ही डाक्टर से मिलूंगा।’’

सुधा बिना कोई उत्तर दिये अपने कमरे में वापस चली आई। उसने आनन्द की बातों पर विश्वास था। इस बार आपरेशन कामयाब होगा।

उस रात अपने नन्हे राजा को छाती से लगाए वह ज्योति पाने की आशा में निश्चिंत सो रही थी कि जोरदार बिजली की कड़क से उसकी आंखें खुल गईं। बादल भी गरजा-बहुत समीप ही। परन्तु नहीं, यह बादल की गरज नहीं थीं। कोई ठहाका लगा रहा था-हा-हा…हा-हा…हा-हा…हा-हा…हा-हा…हा-हा…हा-हा। वह चौंककर उठ बैठी। बिजली फिर कड़की-परन्तु नहीं, वह तो किसी बन्दूक के चलने का स्वर था। उसका दिल बहुत जोर से धड़कने लगा। हे भगवान, यह सब क्या हो रहा है ? कांपकर उसने अपने नन्हे राजा को छाती से लगा लिया। संसार की बातों से निश्चिंत वह अब तक सो रहा था।

‘‘कमीने…नीच।’’ कोई कह रहा था। किसी का कड़कता हुआ स्वर था यह। ‘‘तूने मेरा जीवन नष्ट कर दिया। मैं भी तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगा। यदि मुझे ज्ञात होता कि तेरे कारण मुझे सजा हो जाएगी तो जेल जाने से पहले ही तेरी हत्या कर देता। जब तू जेल से छूटा तो मुझे सजा हो चुकी थी वर्ना उस दिन भी तुझे नहीं छोड़ता। मैंने प्रतिज्ञा की थी कि तुझसे अवश्य बदला लूंगा और इसीलिए आज जेल से भाग निकलने में सफल हो गया हूं। बड़ा सत्य का पुजारी बना फिरता है। हा-हा…हा-हा…हा-हा…हा-हा।’’ एक गोली फिर चली।

गोली के स्वर पर कोई तड़प कर चीख पड़ा, ‘‘आह !’’ यह स्वर, आनन्द का स्वर, सुनने के लिए उसके कान सदा ही चौकन्ने रहते थे। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। यह सब क्या हो रहा है ? कहीं किसी ने आनन्द बाबू की हत्या करने का तो प्रयत्न…नहीं-नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा हर्गिज नहीं होना चाहिए।

सुधा के कमरे के बाहर एक भयानक वातावरण था। हत्यारे ने आनन्द को पहचान कर ही गोली चलाई थी। बत्ती जलने के बाद आनन्द की आंखें खुल गई थीं। बत्ती जलने के बाद उसके कमरे के दरवाजे के बीच एक छाया लपककर खड़ी हो गई थी। आनन्द उसे तुरन्त पहचान गया था। मनोहर-सेठ गोविन्द प्रसाद की चचेरी बहन का लड़का। मनोहर का मुखड़ा भयानक था। आंखों में रक्त तैर रहा था। उसके हाथ में एक रिवाल्वर थी, जिसे आनन्द ने ज्यों ही देखा, मामले की तह समझते देर न लगी। उसने तुरन्त पलंग से उतरने का प्रयत्न किया था, परन्तु हत्यारे ने उसे अवसर दिए बिना ही गोली चला दी थी। तब भी वह उठकर हत्यारे का सामना करने के लिए बढ़ गया था, परन्तु जब हत्यारे की दूसरी गोली लगी तो वह वहीं फर्श पर गिर पड़ा था। हत्यारे ने एक सोते हुए शेर को मारने के बाद बहुत बहादुरी समझते हुए उसे जी भरकर गालियां दी थीं।

आनन्द ने एक बार फिर हत्यारे के हाथ से रिवाल्वर छीन लेना चाहा, परन्तु हत्यारा डरपोक ही नहीं, निर्दयी भी था। उसने तीसरी गोली भी चला दी। परन्तु आनन्द तब भी बहुत सख्त जान सिद्ध हुआ। उसकी आत्मा इतनी जल्दी हृष्ट-पुष्ट शरीर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। फूलती सांसों के साथ पस्त अवस्था में उसने देखा, मनोहर के सिर के पीछे से अचानक ही किसी ने एक भरपूर डण्डा मारा। मनोहर गिर कर अचेत हो गया। तभी उसकी दृष्टि के सामने हरिया प्रकट हुआ। हरिया क्रोध से कांप रहा था। हत्यारे के गिरते ही बस चीख पड़ा, ‘‘हत्यारे, तूने मेरे मालिक को मार डाला, मैं तुझे जीवित नहीं छोडूंगा। नीच- जलील- पापी।’’ हरिया रोते-बिलखते चीख-चीखकर हत्यारे पर इस प्रकार डण्डे बरसाने लगा मानो उसे जान से ही मार कर दम लेगा।

सुधा ने हरिया का स्वर सुना तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जिस ज्वालामुखी का मुख उसने अतीत का सहारा लेकर बन्द कर रखा था वह फट गया। चिंगारी शोला बनकर भड़क उठी। वह चीख पड़ी, ‘‘नहीं।’’ फिर पागलों के समान दरवाजे की ओर दौड़ी। टकराई। फिर दरवाजा खोलकर आनन्द के कमरे की ओर लपकी। हरिया अब तक हत्यारे को कोसते हुए डण्डे बरसा रहा था। सुधा को देखकर रुक गया। ‘‘आनन्द बाबू।’’ सुधा चीखकर उसके कमरे में प्रविष्ट हुई तो हत्यारे के अचेत शरीर से टकरा गई। गिरी तो हरिया ने उसे सहारा देकर उठाया। फिर फूट-फूटकर रोते हुए बोला, ‘‘मालिक की हत्या हो गई है।’’

‘‘नहीं।’’ सुधा का दिल छलनी हो गया। वह आनन्द की ओर लपकी। आनन्द के प्यार ने उसे अपनी छाती पर खींच लिया। वह आनन्द से लिपट गई तो उसके हाथों में आनन्द का रक्त लग गया-गरम-गरम रक्त। वह तड़पकर चीख पड़ी, ‘‘नहीं-नहीं आनन्द बाबू, आप मत जाइए, हमें छोड़कर मत जाइए। मैं आपके बिना एक पल भी नहीं रह सकती। मुझे क्षमा कर दीजिए।’’ वह फूट-फूटकर रो पड़ी। अपने दिल का दहकता लावा बाहर निकालने लगी, ‘‘मैं आपको प्यार करती हूं। मुझे छोड़कर मत जाइए। अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी…आनन्द बाबू…’’ उसकी हिचकियां बंध गईं।

आनन्द के शून्य पड़ते कानों ने जब सुधा के होंठों से ऐसे शब्द सुने तो उसकी डूबती सांसें वापस आने को तड़प उठीं। सुधा-अपनी सुधा को देखने के लिए उसकी आंखें तरसने लगीं तो उसने अपनी आंखों पर से पपोटों का बोझ हटाने का प्रयत्न किया, परन्तु उसकी ताकत कम हो चुकी थी, वह सफल न हो सका। पपोटे केवल कांपकर ही रह गये। अपनी मजबूरी का अहसास करके उसका दिल तड़प उठा। आंखों में आंसू आ गये। आंसुओं में उसके शरीर से अधिक ताकत थी इसलिए यह आंसू उसकी आंखों के बन्द पपोटों के किनारे सरककर बाहर निकल आए-कनपटी से होते हुए कानों के गढ़े में एकत्र होने लगे। कानों में एक आवाज आ रही थी-आती रही। सुधा मानो बहुत दूर से उसे पुकार रही थी, ‘आनन्द बाबू, मैं आपको प्यार करती हूं…मुझे छोड़कर मत जाइये…मत जाइए।’

आवाज डूब गई।

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