papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

उस रात जब सुधा अपने नन्हे राजा के साथ पलंग पर लेटी तो हवाएं भीगी-भीगी थीं। कुछ देर बाद बादल गरजा तो उसने ज्ञात किया कि बाहर बदली छाई है। और जब कुछ देर बाद वर्षा भी आरम्भ हो गई तो जाने क्यों उसका दिल कांप उठा। फिर वही अज्ञात भय !! कुछ ऐसी रात वह भी थी जब उसकी टक्कर आनन्द से हो गई थी। तब वह स्वयं पर ही खीझ उठी थी। फिर वही आनन्द बाबू का विचार-उन्हीं की बातें याद करना !

पापी देवता नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

उसे ऐसा लगा मानो आनन्द प्यार का कांटा फेंककर एक मछली समान फंसाकर उसे अपनी ओर खींच लेना चाहता है। परन्तु वह अपनी सीमा छोड़कर नहीं जायेगी वर्ना तड़प-तड़पकर मर जाएगी। अपने पति के प्यार को भुलाकर वह कभी नहीं जीवित रह सकती। वह अपने आपको मानो जबरदस्ती विश्वास दिला रही थी। इसी उलझन में काफी रात बीत गई।

सहसा वर्षा की झिमिर-झिमिर में उसके कानों ने एक चीख सुनी, ‘‘सुधा !’’ चीख उसके बगल के कमरे से आई थी, मानो कोई बाबा का गला दबा रहा था।

हड़बड़ाकर सुधा उठ बैठी। घबराकर जोर से चीख पड़ी, ‘‘बाबा !’’ परन्तु उसकी चीख से नन्हे राजा की नींद नहीं भंग हो सकी। लपककर वह दरवाजा खोलने के बाद बाबा के कमरे की ओर बढ़ गई। सहसा वह बाबा के कमरे के दरवाजे पर किसी से टकरा गई। गिरते-गिरते बची। फिर वही मजबूत बांहें जिन्होंने उसे एक बार पहले भी संभाला था। परन्तु इस समय उसके दिल में कोई चोर नहीं था इसलिए वह कोई प्रभाव भी नहीं ले सकी। उसे बाबा की चिन्ता थी और वह टकराने वाले को धक्का देकर आगे बढ़ जाना चाहती थी। उसका दिल बहुत तेज धड़क रहा था। परन्तु वह आगे नहीं बढ़ सकी। ठण्ड के कारण बाबा ने दरवाजा अन्दर से बंद कर रखा था।

‘‘क्षमा कीजिएगा सुधा देवी।’’ यह आनन्द का स्वर था, ‘‘बाबा की चीख सुनकर मुझे भी आना पड़ा। परन्तु यह दरवाजा ही अन्दर से…’’ कहते-कहते रुककर उसने एक पल सोचा, ‘‘जरा आप किनारे हटिये।’’

सुधा किनारे हट गई। आनन्द कुछ पीछे आया। फिर दौड़कर कंधे से दरवाजे को एक धक्का दिया। उसका शरीर अस्वस्थ था, फिर भी कब्जे टूट गये। दरवाजा गिर पड़ा। उसने दरवाजे को एक किनारे ढकेला। फिर अन्दर पहुचकर बत्ती जला दी। तब तक सुधा बाबा के समीप पहुंच चुकी थी। बाबा पलंग पर पड़े हांफ रहे थे। वर्षा की झिमिर-झिमिर में भी उनकी घरघराती सांसें साफ सुनाई पड़ रही थीं। सुधा ने टटोलकर बाबा का हाथ पकड़ लिया, उसने घबराकर पूछा, ‘‘क्या बात है, बाबा ? क्या हुआ ?’’

‘‘मेरा दिल बैठा जा रहा है बेटी। सांस घुट रही है। शायद दिल का दौरा है।’’ बाबा ने पस्त अवस्था में कहा।

आनन्द बाबा के समीप आ चुका था। उसे बाबा की स्थिति समझते देर नहीं लगी-दिल का दौरा।

‘‘सुधा देवी, आप बाबा की छाती मलिए। मैं डाक्टर को बुलाता हूं।’’ उसने कहा। फिर किसी बात की प्रतीक्षा किए बिना ही कमरे से बाहर निकल गया। वर्षा जारी थी। ठण्ड भी कम न थी। उसकी अपनी अवस्था भी ठीक नहीं थी, फिर भी उसे डाक्टर को बुलाने जाना था क्योंकि हरिया मेरठ गया हुआ था।

सुधा अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाते हुए बाबा की छाती मल रही थी। वह बाबा की स्थिति देख नहीं सकती थी। परन्तु बाबा की छाती के उतार-चढ़ाव तथा सांसों की घरघराहट सुनकर उसका अपना दिल बैठा जा रहा था।

‘‘बेटी।’’ बाबा मानो अपने जीवन से संघर्ष करते-करते हार चुके थे। उनका स्वर डूब रहा था। उन्होंने बहुत कठिनाई से रुक-रुककर कहा, ‘‘मैं अब तेरा साथ नहीं दे सकता। मुझे…क्षमा कर देना बेटी और…आनन्द को भी। वह…देवता…है…देवता।’’ भगतराम का स्वर समाप्त हो गया। सांस रुक गई। शरीर एक शव समान ढीला पड़ गया।

‘‘नहीं-नहीं-नहीं।’’ सुधा देख नहीं सकती थी, परन्तु अहसास हो गया-बाबा चले गये। चीख मारकर वह बाबा की छाती पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रो पड़ी। ऐसा करते समय जब उसका हाथ अनजाने में बाबा के मुखड़े पर पड़ा तो उसकी अंगुलियां आंसुओं से तर हो गईं। बाबा के आंसू अब तक गरम थे। निश्चय ही अपनी बेटी को बेसहारा छोड़ते हुए उनका दिल फटा जा रहा होगा। उसके बाबा उसे कितना प्यार करते थे। वह हिचकियां लेकर रोती रही-सिसकती रही। और वर्षा की झिमिर-झिमिर में उसका स्वर डूबता चला गया। उसे तब होश आया जब उसके कानों में आनन्द का स्वर सुनाई पड़ा।

‘‘आइये डाक्टर साहब-‘‘जल्दी।’’ आनन्द कह रहा था।

डाक्टर ने आगे बढ़कर बाबा की कलाई थामी। आंखों की पुतलियां भी देखीं। फिर आनन्द को देखकर बहुत आहिस्ता से नहीं के इशारे पर सिर हिला दिया।

सुधा अब तक बाबा की छाती से लिपटी सिसक रही थी। आनन्द ने अपने भीगे हाथों द्वारा उसकी बांह पकड़ी और उसे बाबा से अलग करते हुए कहा, ‘‘बाबा चले गए सुधा देवी।’’ उसका स्वर बहुत उदास था।

सुधा ने कोई उत्तर नहीं दिया। आनन्द का हाथ छुड़ाकर वह दीवार से सट गई और फूट-फूटकर रो पड़ी।

तेरहवीं बीत गई। आनन्द ने बाबा की आत्मा की शान्ति के लिये अन्तिम रस्म पूरी करने में कोई कमी नहीं की। इतने दिन वह सुधा से बहुत कम मिला। ऐसा न हो कि वह अपनी मजबूरी के कारण कोई गलत अनुमान लगा ले। सुधा को उसने उसके हाल पर छोड़ दिया था। प्रायः राजा को वह अपने साथ ही रखता। सुधा अपने कमरे में बैठकर घण्टों सोचती रहती। उसके जीवन का क्या बनेगा ? वह अन्धी है और राजा बिल्कुल नन्हा। उसकी अंगुली पकड़कर वह उसे रास्ता भी तो नहीं दिखा सकती है। संयोग ने उसे कहां-से-कहां ला पटका ? आनन्द बाबू की कृपा दृष्टि पर क्या अब कभी इस घर को छोड़कर जा सकेगी ? बाबा के बिना वह कैसे पग बढ़ाएगी ?

एक बात उसकी समझ में बिल्कुल भी नहीं आ सकी। बाबा ने क्यों कहा था कि वह आनन्द बाबू को क्षमा कर दे ? आखिर कौन-सा ऐसा पाप उन्होंने किया है ? वह तो पहले ही उसके लिये देवता हैं। परन्तु फिर वह इसी निष्कर्ष पर पहुंची थी कि बाबा को ज्ञात होगा कि आनन्द बाबू उसे प्यार करते हैं और प्यार करना पाप नहीं। इसीलिये क्षमा करे को कह दिया होगा। अब उसके ध्येय का क्या होगा ? उसकी तपस्या ? पति- भक्ति ! स्वर्गवासी पति का प्यार ? और इन सब परिस्थितियों का एक ही कारण था-इंस्पेक्टर जोशी। यदि उस पापी ने उसके पति को मृत्युदण्ड नहीं दिलाया होता तो निश्चय ही आज उसे इस प्रकार ठोकर नहीं खानी पड़ती। वह दिन भर इंस्पेक्टर जोशी को कोसती रहती। उसका जीवन अब उस नाव के समान हो गया था जो परिस्थितियों के घेराव में कभी भी डूब सकती थी। फिर भी उसे आनन्द पर इतना विश्वास अवश्य था कि वह उसकी मजबूरी से कभी लाभ नहीं उठाएगा। आनन्द पर विश्वास करने के अतिरिक्त उसके पास चारा ही क्या था ? मानव को परिस्थिति से समझौता करना ही पड़ता है।

कुछ दिन बाद आनन्द के अन्दर एक विचित्र ही परिवर्तन आ गया। सुधा की समीपता ने उसके दिल के भड़कते शोलों को हवा दी तो उसकी दीवानगी फिर लौट आई। वह सुधा को फिर खामोशी से निहारने लगा-बहुत देर तक और जब उसका दिल बेकाबू हो जाता तो चुपचाप वह उसके पास से हट जाता। सुधा की छवि उसके दिल में और गहरी हो रही थी। उसे विश्वास था कि वह सुधा के मन में अपने प्यार की चिंगारी पहले ही उत्पन्न कर चुका है। अब केवल इसे हवा लगने की देर है ताकि प्यार के शोले भड़क उठें। और वह अपने त्याग द्वारा प्यार की इस चिंगारी को अवश्य हवा देता रहेगा ताकि सुधा मजबूर होकर एक दिन अपने आपको खुद ही उसके हवाले कर दे। इसी विश्वास के सहारे उसने अपने बाद अपना सब कुछ सुधा के नाम कर दिया।

एक दिन आनन्द की यह दीवानगी सीमा से कुछ अधिक ही बढ़ गई। प्यार की दीवानगी की कोई सीमा नहीं। इन दिनों दिल्ली में एक सर्कस लगा हुआ था। उस दिन सुबह ही उसने एक योजना बनाई । बाजार से कुछ विशेष वस्तुएं खरीदीं। फिर शाम को अपनी योजना को साकार रूप देने के लिए उसने पहले नन्हे राजा को हरिया के साथ सर्कस भेज दिया। फिर बक्स में से खरीदी हुई वस्तुएं निकालीं और सुधा के कमरे में प्रविष्ट हो गया। सुधा उसकी आहट पाकर आंचल खींचती हुई सतर्क हो गई।

‘‘सुधा देवी’’-आनन्द ने उसके सामने कुर्सी पर बैठते हुए विनती की। वह जो भी पग उठा रहा था। बहुत भयानक था। परन्तु दिल से मजबूर होकर अपनी उस इच्छा को वह पूरी करना चाहता था जो एक युग से उसके मन में पनप रही थी। उसने कहा, ‘‘इस समय मेरे हाथ में एक साड़ी है।’’

‘‘साड़ी ?’’ सुधा ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘जी हां।’’ आनन्द ने साड़ी पैकिट से निकालकर सुधा की ओर बढ़ा दी। बोला, ‘‘मैं चाहता हूं आप इसे पहन लें-अभी।’’

‘‘अभी ?’’ सुधा को और भी आश्चर्य हुआ।

‘‘जी हां।’’ आनन्द ने कहा, दिल जो भी कराये कम है। बात उसने जारी रखी-‘‘आपको याद होगा कि एक बार मैंने एक कम्पनी का ‘शेयर’ खरीदने की बात की थी। वह मैं खरीद चुका हूं। परन्तु आज उसी कम्पनी का एक ‘डायरेक्टर’ अपनी पत्नी के साथ मेरे घर आ रहा है। मैं चाहता हूं, मेरे साथ आप भी उनके स्वागत में सम्मिलित हों।’’

सुधा एक पल सोचती रही। आनन्द उसकी हर इच्छा पूरी करता रहा है। वही एकमात्र उसका सहारा है। उसकी छोटी-मोटी बातें पूरी न करना अन्याय होगा। उसने हाथ बढ़ाया तो आनन्द ने साड़ी उसे थमा दी। साड़ी रेशमी थी, एक युग के बाद उसके हाथों ने ऐसे कपड़े का स्पर्श प्राप्त किया तो उसे अपना पति याद आ गया। साड़ी कांटा बनकर चुभ गई। उसने इस फेंक देना चाहा, परन्तु ऐसा करने से पहले उसने पूछकर अपने संदेह की पुष्टि कर लेना उचित समझा।

‘‘रेशमी साड़ी है ?’’

‘‘जी हां।’’ आनन्द ने अपने गले में अटके थूक को घोंटकर कहा, ‘‘परन्तु बहुत ही साधारण।’’

‘‘ओह !’’ सुधा एक पल सोच में पड़ गई। उसे आनन्द पर पूरा विश्वास था। अपने अन्नदाता के लिये इस साधारण साड़ी को पहन लेने में उसने कोई बुराई नहीं समझी। पूछा, ‘‘इसका रंग ?’’

‘‘वही सफेद, जो आप पहनती हैं।’’

सुधा ने साड़ी स्वीकार कर ली।

आनन्द को उत्साह मिला तो उसने एक पैकिट और उसकी ओर बढ़ाया। बोला, ‘‘यह लीजिये। इससे अपने आपको संवार लीजिये। हमारे मेहमान की पत्नी बहुत बन-ठनकर आयेगी।’’

‘‘यह क्या है ?’’ सुधा ने पैकिट ले लिया।

‘‘यह कुछ…कुछ जेवर हैं।’’ आनन्द ने डरते-डरते कहा।

‘‘आनन्द बाबू…’’ सुधा चैंकते हुए कांपकर खड़ी हो गई, इस प्रकार कि उसके हाथ से पैकिट छूटकर गिर पड़ा। गोद से साड़ी भी सरककर नीचे गिर गई। सुधा बोली, ‘‘आप मेरे विधवापन का मजाक उड़ा रहे हैं।’’

‘‘नहीं-नहीं सुधा देवी !’’ आनन्द भी झट खड़ा हो गया। बोला, ‘‘आप मुझे गलत न समझें। मैंने तो आपसे एक विनती की थी।’’

‘‘आपकी यह विनती मैं मरते दम तक पूरी नहीं कर सकती।’’ सुधा ने एक पंख कटे पक्षी के समान फड़फड़ाकर कहा। यदि इस समय उसके पास संसार में एक छोटा-सा सहारा भी होता तो वह यहां से तुरन्त चली जाती। आनन्द बाबू कोई भी हों, उन्हें उसका धर्म भ्रष्ट करने का कोई अधिकार नहीं।

‘‘मुझे अफसोस है।’’ आनन्द ने निराश स्वर में कहा। अपनी भूल पर वह पछता रहा था। इतनी जल्दी उसे सुधा के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। परन्तु इस भूल के बदले वह यह बिलकुल नहीं चाहता था कि सुधा उसे छोड़कर चली जाये। उसने कहा, ‘‘मुझे क्षमा कर दीजिएगा।’’ और फिर वह साड़ी तथा जेवर का डिब्बा उठाकर कमरे से बाहर चला गया।

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