papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

सुबह के लगभग नौ बजे होंगे। धूप चटक आई थी, परन्तु वातावरण में नमी के साथ ठण्डक भी थी। आनन्द अपने कमरे में पलंग पर बिलकुल खामोश पड़ा हुआ था। उस पर हल्की-हल्की बेहोशी छा रही थी। उसे ज्वर था। पूरा शरीर आग के समान तप रहा था। यह तपिश उस दिन से बढ़ती जा रही थी जिस दिन नन्हा राजा अन्तिम बार उससे मिलकर गया था। नन्हा राजा क्यों नहीं आया, उसे नहीं मालूम। शायद सुधा ने मना कर दिया हो।

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अच्छा भी था। वह तो आरम्भ से ही ऐसा चाहता था। परन्तु जब वह आ ही जाता था तो उसे मना भी कैसे करता ? और इसीलिए राजा के आने के बाद वह उसके प्यार में अपना गम भूल जाने का प्रयत्न करने लगता था। नन्हे राजा का आना वह इसलिए पसन्द नहीं करता था क्योंकि उसे डर था कि आगे चलकर कहीं राजा उसके बिना बिलकुल ही न रह सके।

कुछ बच्चों का दिल बहुत भावुक होता है। ऐसा न हो कि ज्योति आने के बाद सुधा को अपने बच्चे के लिए एक दिन उससे मिलना आवश्यक बन जाए। तब उसकी वास्तविकता खुलते ही सबका जीवन नर्क बन जायेगा। वैसे पूरी सावधानी बरतने के लिए आज दिल्ली में रहने का विचार उसका जरा भी नहीं था। परन्तु इस समय वह विवश था। बेहोशी बढ़ती ही जा रही थी। डाक्टर कल शाम को आया था और आज सुबह भी। तबियत खराब होने का कोई ठोस कारण नहीं प्राप्त कर सका, फिर भी दवा दे दी थी। ज्वर उतरा और फिर चढ़ गया था। दिल टूट जाए तो कोई दवा असर नहीं करती है। आज सुधा की पट्टी खुलने वाली थी-शायद खुल भी गई हो। उसका संसार उजागर हो रहा था और आनन्द का मद्धिम !

हरिया अपने मालिक के दिल की स्थिति से परिचित था। परन्तु उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे ? वह खुद भी सुधा को सब कुछ बताकर उसके दिल से अपने मालिक की श्रद्धा कम करने के पक्ष में नहीं था। डाक्टर के निर्देश के अनुसार वह आनन्द के सिरहाने बैठकर उसके सिर पर ठण्डे पानी से भीगा कपड़ा रखता जा रहा था परन्तु फिर भी ज्चर कम नहीं हो रहा था। ऐसा लगता था मानो आग में जलकर आनन्द का शरीर भस्म हो जायेगा। सहसा आनन्द बेहोशी की अवस्था में बड़बड़ाने लगा। अपने मालिक की ऐसी स्थिति देखकर हरिया घबड़ा गया। आनन्द के मस्तक पर उसी प्रकार भीगा कपड़ा छोड़कर वह तुरन्त डाक्टर को बुलाने चला गया। मालिक की अवस्था उससे देखी नहीं जाती थी।

कमरे में खामोशी थी-भयानक खामोशी-और एक किनारे मेज पर रखी ‘टाइम पीस’ की टिक-टिक के साथ समय बीत रहा था। आनन्द ने एक आह ली। फिर वह इस प्रकार बड़बड़ाने लगा मानो किसी से विनती कर रहा हो, ‘‘मैं पापी नहीं हूं…मैंने कोई पाप नहीं…किया…मैं…मैं…पा…’’ उसका स्वर लड़खड़ाकर उसके होंठों के अन्दर घुटने लगा।

‘‘कौन कहता है आप पापी हैं ? आप तो देवता हैं-साक्षात् देवता।’’

अचानक उसके कानों में आवाज पड़ी-बहुत ही मीठी-सुरीली-जिसे सुनने के लिए उसके कान तरस रहे थे-जो कानों में रस बनकर पड़ी तो ठण्डक लिए दिल की गहराई में उतर गई। उसे सपने में मानो किसी ने बहुत दूर से पुकारा था। उसके दिल के शोले कम हो गए। डूबती सांसों को सहारा मिला तो बेहोशी की अवस्था में वह बहुत हल्के से मुस्करा दिया। जबसे सुधा इस बंगले को छोड़कर गई है उसे उसकी उपस्थिति का अहसास एक-एक चप्पे पर होने लगा है। उसके पगों की चाप, उसकी सांसों की मीठी सुगन्ध-और इसीलिए उसने अपनी आंखें भी नहीं खोलीं। सुधा की तस्वीर तो उसकी आंखों के बंद पपोटों में कैद है।

हरिया ने उसके सिर पर ठण्डे पानी का कपड़ा फिर रखा-उसने इसका अहसास किया। उसे इतना होश आ चुका था। स्वप्न की आवाज में कुछ ऐसा ही जादू था। परन्तु नहीं-मस्तक पर भीगा कपड़ा रखने वाली अंगुलियों का स्पर्श हरिया का नहीं है-इस बात का अहसास भी उसने पूरी तरह किया। यह अंगुलियां तो बहुत कोमल हैं-इन अंगुलियों में एक असाधारण-सी आग है-ठण्डी-ठण्डी आग जो उसने अपने जीवन में केवल एक बार ही महसूस की थी-सुधा का स्पर्श प्राप्त करने के बाद-उसी भीगी रात में जब वह सुधा से टकरा गया था। उस आग को वह कैसे भूल सकता है ? कैसे भूल सकता है ?

अपने अहसास पर उसे विश्वास नहीं हुआ तो घबराकर उसने झट अपनी आंखें खोल दीं। उसकी आंखों के दर्पण पर सुधा का मुखड़ा था। यह सपना है या वास्तविकता, वह कोई अनुमान नहीं लगा सका। सुधा का मुखड़ा गंभीर था-चिन्तित भी था। यह चिन्ता क्या उसी के लिये है ? सुधा उसके बिलकुल समीप एक स्टूल पर बैठी उसके सिर पर दोबारा पानी से भीगा कपड़ा रख रही थी। उसकी दृष्टि कहीं और थी। उसके शरीर से उठती भीनी-भीनी सुगंध वास्तव में उसके नथुनों को प्राप्त हो रही थी। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। इस विश्वास की पुष्टि करने के लिए उसने झट अपने सिर पर रखा हुआ हाथ पकड़ लिया और सुधा का हाथ सचमुच उसकी पकड़ में आ गया। सुधा चौंक पड़ी। कसमसाते हुए उसने अपना हाथ छुड़ा लिया तो आनन्द इस वास्तविकता पर स्तबध रह गया। मन चाहा, अपना चेहरा ढांक ले। यहां से भाग जाए। परन्तु वह ऐसा नहीं कर सका। शरीर में ताकत होती तब भी शायद वह ऐसा नहीं कर पाता। उसका मस्तिष्क चकराने लगा। सुधा उसे पहचानने के बाद भी क्यों उसके इतना समीप है ? क्योंकि उसकी सेवा कर रही है ? क्यों ? उसे इस वास्तविकता पर फिर स्वप्न का सन्देह होने लगा।

‘‘सुधा का आपरेशन सफल नहीं हो सका, बेटा।’’

सहसा उसके कानों में भगतराम का स्वर पड़ा तो उसने गर्दन घुमाकर उन्हें देखा। वह समीप ही बैठे हुए थे। अपने इस वाक्य द्वारा उन्होंने आनन्द की भारी उलझन दूर कर दी थी। उसके समीप ही नन्हा राजा खड़ा था। वह लपककर उसके समीप चला आया।

‘‘ओह !’’ आनन्द ने एक गहरी सांस ली। तो यह सब एक वास्तविकता है। वह निश्चिंत हो गया। अपनी आंखें उसने सुधा पर बिछा दीं। सुधा ने उसे पहचाना नहीं वरना इस समय ऐसी सेवा करने के बजाय उसकी मृत्यु की कामना करती होती।

सहसा कमरे में हरिया के साथ एक डाक्टर ने प्रवेश किया। हरिया ने बहुत आश्चर्य से सुधा को देखा-और फिर बाबा को भी। परन्तु जब डाक्टर को देखने के बाद बाबा ने उठकर सुधा का हाथ पकड़ते हुए उसे एक अलग कुर्सी पर बैठा दिया तो वह सब कुछ समझ गया। आनन्द को सुधा का उठना बहुत अखरा। उसे अब डाक्टर की आवश्यकता नहीं थी-सुधा के हाथों के स्पर्श की आवश्यकता थी ताकि उसके दिल के भड़कते शोले सुधा के शरीर की ठण्डी-ठण्डी आग में सम्मिलित होकर ठण्डे हो जाएं। परन्तु उसने कुछ कहा नहीं। डाक्टर ने उसे देखने के बाद एक इंजेक्शन दिया, फिर कुछ दवाइयां खिलाकर चला गया। डाक्टर के जाने के बाद जब हरिया ने दवा लेने के लिए जाना चाहा तो आनन्द ने उसे मना कर दिया।

‘‘मत जाओ।’’ आनन्द ने बड़ी कठिनाई से कहा, ‘‘अब मुझे दवा की आवश्यकता नहीं है।’’

अपने मालिक की बात सुनकर हरिया कुछ समझा-कुछ नहीं भी। परन्तु बाबा सब समझ गए। सुधा का मुखड़ा गम्भीर हो गया। वह अपने इरादे में अटल थी। आनन्द बाबू की चिन्ताजनक अवस्था देखकर पिघल जाने का यह अर्थ नहीं था कि उसे उनसे प्रेम हो गया है। एक नारी होकर वह किस प्रकार उस व्यक्ति के लिए अपने दिल को पत्थर बना सकती थी जिसके अहसानों का बदला वह कभी नहीं चुका सकती। उसका बच्चा खो जाता तो किस प्रकार रहती ? मेरठ जाने से पहले वह बाबा के जोर देने पर ही उन्हें धन्यवाद देने चली आई थी। उसे क्या पता था कि आनन्द बाबू की तबियत इतनी खराब होगी। ऐसी स्थिति में उन्हें छोड़कर चले जाना भी तो पाप होता। आखिर उन्होंने बहुत आड़े समय उसकी सहायता की थी। उसने निश्चय कर लिया, आनन्द बाबू जैसे ही कुछ स्वस्थ होंगे, वह यहां से चली जायेगी। यह जानकर भी कि वह उससे प्रेम करते हैं, वह किस तरह उनके समीप रह सकती है ?

अस्पताल में पट्टी खुलने के बाद जब भगतराम को ज्ञात हुआ कि सुधा देख नहीं सकती, आपरेशन नाकाम है तो उनका वह भय दूर हो गया जो सुधा की आंखें आने के बाद उत्पन्न हो गया था। सुधा के लिए यह ठीक हुआ या नहीं, अब वह कोई अनुमान नहीं लगा सके। भगवान जो करता है ठीक ही करता है। ज्योति न आने पर सुधा के दिल में क्या बीती वह अच्छी तरह जानते थे। अपने लाड़ले को न देख पाई तो वह तड़पकर रह गई थी। यहां आने से पहले सुधा ने उन्हें याद दिलाया कि आनन्द बाबू बाहर गए हैं तो उन्होंने कह दिया कि देखने में हर्ज ही क्या है ? शायद आ गए हों।

पिछली बार भगतराम जब आनन्द से मिले थे तो वह अस्वस्थ था, इसीलिए उसके प्रति चिन्ता भी लगी हुई थी परन्तु जब वह सुधा के साथ यहां आए और आनन्द की अवस्था बहुत गम्भीर देखी तो उनके लिए ठहरना आवश्यक हो गया। सुधा को जब आनन्द की स्थिति का ज्ञान हुआ तो उसके मन को चोट पहुंची। उसने आनन्द का हाथ छुआ तो ऐसा लगा मानो किसी अंगारे पर अंगुलियां रख दी हों। उसके प्यार ने आनन्द की क्या अवस्था कर दी। परन्तु वह कितनी मजबूर थी। उसके लिए करती भी क्या ? उसका धर्म-ध्येय ? उसका निर्दोष पति उसकी याद को छाती से लगाए फांसी के तख्ते पर चढ़ गया। और वह अपने जीते जी उसे भूलकर किसी और को बसा ले ? यह कैसे हो सकता है ? यह कभी नहीं हो सकता ? अपने उद्देश्य पर अटल रहने के पश्चात् वह आनन्द की सेवा करने पर विवश है। मानव ही मानव के काम आता है।

तीन दिन बीत गए। इन तीन दिनों में आनन्द का स्वास्थ्य जितना सुधरा, सुधा उतनी ही उससे दूर हो गई। सुधा के खिंचे-खिंचे ढंग तथा दूरी से आनन्द का वह भ्रम दूर हो गया जो पहले दिन अपने मस्तक पर सुधा की उंगलियों का स्पर्श प्राप्त करके उत्पन्न हो गया था। फिर भी उसे आशा बंध गई थी। सुधा उसे पहचान नहीं सकती है इसलिए यहां से मेरठ जाने के बाद भी वह किसी बहाने सुधा से सम्पर्क रख सकता है। सम्पर्क स्थिर रहने से बहुत कुछ होने की आशा थी।

सुधा आनन्द के पास बहुत कम जाती। जाती तो केवल उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछती। फिर कुछ देर गुमसुम बैठती-मन ही मन सतर्क होकर, मानो उसकी पतिभक्ति पर आंच न आ जाए। ऐसा वह अपने दिल के सन्तोष के लिए कर रही थी या आनन्द के अहसानों की मजबूरी का एक बहाना लेकर, वह समझ न सकी। आनन्द की वह मेहमान है। ऐसी स्थिति में उससे सदा ही दूरी बरतना मानवता नहीं थी। चौथे दिन सुबह जब वह आनन्द के समीप बैठी हुई थी तो उसके मस्तिष्क को दिल पर काबू करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। ऐसा लगता था मानो उसकी इच्छा के विरुद्ध यह छाती फाड़कर आनन्द का बन जाना चाहता है। क्या यह भी प्यार का रूप है ? प्यार-जो करती वह अपने स्वर्गवासी पति से है परन्तु सहानुभूति का सहारा लेकर आनन्द के लिए उत्पन्न हो जाना चाहता है ! यह कैसा प्यार है ? आनन्द ने उसकी उपस्थिति में कभी कोई बात नहीं की फिर भी उसके दिल में उसने प्यार का ज्वालामुखी फटकर बाहर आ जाए, उससे अपने भटकते विचारों को झटक दिया और उठ खड़ी हुई। जाकर अपने कमरे में लेट गई और जबरदस्ती आंसू बहाने लगी-पति के वियोग में। उसने तय कर लिया, वह आज ही बाबा से मेरठ वापस चलने को कहेगी। अब और वह यहां नहीं रह सकती। आनन्द बाबू की स्थिति अब सन्तोषजनक है। उन्हें हरिया यहां संभाल लेगा।

सुधा के जाने के बाद आनन्द एक पल खामोश रहा। उसने सुधा के चेहरे की झुंझलाहट पढ़ ली थी। मुखड़ों पर आई-गई छाया पढ़ना कभी उसका पेशा ही था। वह समझ गया, सुधा अब जल्द ही मेरठ वापस चली जाना चाहती है। उसके दिल में टीस उठी, परन्तु मेरठ जाने के बाद भी उससे सम्पर्क रखने की जो आशा बंधी हुई थी, वह नहीं टूटी। आशा है तो सब कुछ है। उसने हरिया को बुलाकर मेज की दराज से कुछ कागजात निकलवाए। हरिया ने कागजात लाकर दे दिये। उसे इन कागजात का महत्व मालूम था इसलिए उसने मेज पर से कलम उठाकर बाबा को थमा दिया। बाबा ने उसे आश्चर्य से देखा-फिर आनन्द ने उन्हें अपने समीप कुर्सी सरकाने को कहा और फिर हस्ताक्षर के लिए कागजात उनकी ओर बढ़ा दिये।

‘‘यह क्या है ?’’ बाबा ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘आपको याद होगा, आपरेशन से पहले सुधा देवी की बात का गहरा असर लेकर मैं बाहर चला गया था और रात को बहुत देर से लौटा था ?’’

‘‘हां…याद है।’’

‘‘उस दिन मैं मेरठ चला गया था। आपके उन किरायेदार दुकानदारों से मिला और फिर उन्हीं से पता लेकर उस महाजन से भी मिला जिसके हाथों आपका मकान गिरवी है। सभी से सारी बातें तय कर ली हैं और मैं अब चाहता हूं कि आपका सारा कर्ज उतर जाए और आपको नियमित रूप से हर साल इतना किराया मिलता रहे कि आपमें से किसी को कभी कोई कष्ट न हो।’’

भगतराम आनन्द को फटी-फटी आंखों से देखने लगे। आनन्द सुधा से कुछ न प्राप्त करने के पश्चात अपना सब कुछ लुटाये जा रहा है। यह बात उन्हें उचित नहीं लगी। उन्होंने इंकार कर देना चाहा।

‘‘मैंने वकील के द्वारा यह सारे कागजात तैयार कराये हैं। जब आपसे इन पर हस्ताक्षर लेने का समय आया तो आपने अचानक आना ही बंद कर दिया। हस्ताक्षर के लिए मैं हरिया को भेजता ताकि आपके मेरठ पहुंचने से पहले सब कुछ ठीक हो जाए परन्तु मेरा स्वास्थ्य ही बिगड़ गया। मेरे कारण हरिया भी आपके पास नहीं जा सका।’’ आनन्द ने कागज उनकी ओर बढ़ा दिए।

‘‘नहीं, नहीं बेटा।’’ भगतराम का दिल आनन्द की महानता पर झुक गया। उन्होंने कहा-‘‘हम इतना बड़ा अहसान नहीं ले सकते, यह अन्याय है।’’

‘‘यह अन्याय नहीं है।’’ आनन्द ने कहा, ‘‘बल्कि आपका यह एक उपकार होगा कि आपने मुझे अपनी भूल का प्रायश्चित करने में सहायता दी। हस्ताक्षर कर दीजिए बाबा…प्लीज।’’ आनन्द ने मानो विनती की।

धन्य है आनन्द-बाबा सोचे बिना नहीं रह सके। उन्हें ऐसी सहायता की आवश्यकता भी थी-सख्त आवश्यकता थी। वह बूढ़े हैं-सुधा अन्धी है, राजा बहुत नन्हा है। कुछ दिनों बाद मकान हाथ से निकल जायेगा तो वे रहेंगे कहां ? जीवन निर्बाह कैसे होगा ? रहने को एक घर तथा खाने को दो रोटी तो सभी को चाहिए । वह सोच में पड़ गए।

‘‘बाबा।’’ आनन्द ने कहा, ‘‘यदि आपने इंकार किया तो मैं यही समझूंगा कि सुधा देवी के समान आप भी मुझसे घृणा करते हैं।’’

बाबा की आंखों में आंसू आ गये-प्यार के आंसू। उन्होंने आनन्द की प्रसन्नता, सुख और शांति की कामना दिल की गहराई से की और फिर खामोशी से झुकते हुए सभी कागजातों पर हस्ताक्षर कर दिये।

‘‘धन्यवाद बाबा-धन्यवाद।’’ आनन्द ने कहा और फिर कागजात हरिया की ओर बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘यह लो। चेक पहले ही मैं काट चुका हूं। दूसरी दराज से निकाल लो और तुरन्त जाकर वकील साहब से मिलो और हो सके तो आज ही, बल्कि अभी ही, टैक्सी से मेरठ चले जाना।’’ बाबा भगतराम आनन्द को बहुत कृतज्ञ होकर देख रहे थे। आनन्द उनकी ओर मुड़ा। बोला, ‘‘बाबा, हो सके तो यह बात सुधा देवी को कभी नहीं बताइयेगा।’’

बाबा चुपचाप सिर हिलाकर अंगुलियों द्वारा अपने आंसू पोंछने लगे।

उस दिन दोपहर में जब आनन्द के लौटने के बाद बाबा अपने कमरे में आकर आराम करने को लेट गये तो सुधा आहट पाकर तुरन्त उनके पास जा पहुंची। ‘‘बाबा।’’ उसने कहा, ‘‘आनन्द बाबू को अब हरिया देख सकता है। हमें यहां से तुरन्त चले जाना चाहिए। मैं अब और यहां नहीं रह सकती।’’

बाबा आनन्द की कृपाओं से अत्यधिक प्रभावित थे फिर भी उन्हें सुधा की जिद्द के आगे झुकना पड़ता। परन्तु इस समय ऐसा न करने का उनके पास एक अच्छा बहाना था। उन्होंने कहा, ‘‘हरिया शहर के बाहर गया हुआ है। वह आ जाए तो हम जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में आनन्द बाबू को छोड़ना उचित नहीं होगा।’’

सुधा सोच में पड़ गई। फिर पूछा, ‘‘कहां है

वह ?’’

‘‘कुछ पता नहीं बेटी।’’ भगतराम ने कहा, ‘‘परन्तु कल रात से पहले तो शायद ही लौटे।’’

सुधा मन मारकर अपने कमरे में चली आई थी। एक-दो दिन उसे किसी प्रकार बिताना ही पड़ेगा।

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