आखिर उसे यहां इस प्रकार रहने में कष्ट ही क्या है ? इतनी सुविधाएं तो कोई अपना होता, तब भी नहीं देता, आदि-आदि। परन्तु सुधा अपनी जिद्द पर अड़ी रही-यदि उसकी आंखों का आपरेशन नहीं होना है तो वह यहां से चली जायेगी। जबसे पिछली रात नन्हे राजा ने अपने भोलेपन में आनन्द को उसका बापू बना देने की बात कही, है
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उसे एक अज्ञात-सा भय होने लगा है-आनन्द बाबू से नहीं-अपने आपसे। अपने स्वर्गवासी पति की याद का सहारा लेकर वह अपने- आपको अज्ञात पाप की आग में जलता हुआ महसूस कर रही थी और इसीलिए आनन्द के सामने नहीं जाना चाहती थी।
आनन्द का इसमें कोई दोष नहीं था इसलिए उसे उससे कोई शिकायत भी नहीं थी परन्तु आज की घटना ? भगतराम उसे समझाते-समझाते थककर चले गए तो वह बहुत देर तक यही सोचती रही कि आनन्द बाबू उसे क्यों चोरी-छिपे देख रहे थे ? क्यों पहले भी उससे बातें करते-करते खामोश हो जाते थे ? परन्तु फिर उसने अपने दिल को तसल्ली दी। यदि आनन्द बाबू को उससे जरा भी रुचि होती तो बाबा से यह बात हर्गिज नहीं छिपी रहती। आनन्द बाबू ने बाबा की निर्बलता तथा उसके अन्धेपन से अभी तक कोई भी ऐसा लाभ नहीं उठाया है जिस पर किसी प्रकार का सन्देह किया जाए।
परन्तु ऐसा सोचने के पश्चात् उसका दिल एक अज्ञात भय का आभास करके धड़कता ही जा रहा था और इसीलिए उसने तय कर लिया कि यदि कल उसकी आंखों का आपरेशन नहीं हुआ तो वह इस घर को छोड़कर चली जायेगी। जीने का सहारा नहीं मिला तो अपने बच्चे सहित आत्महत्या कर लेगी परन्तु अपनी पति भक्ति पर कभी आंच नहीं आने देगी। अपने पति की याद को छाती से लगाकर अन्तिम सांसों तक जीने में ही उसका जीवन सफल है। यहां पर तो जब भी आनन्द बाबू उसके समीप आएंगे, वह स्वयं को एक अग्नि परीक्षा में जलता हुआ महसूस करेगी। आनन्द बाबू को उसमें भले ही कोई रुचि न हो, परन्तु फिर भी वह उनकी खामोशी से अवश्य ऐसा महसूस करेगी कि वह उसे निहार रहे हैं।
उस शाम आनन्द बहुत देर तक नहीं आया। यहां तक कि सूर्य अपने विश्राम गृह पहुंचने से पहले ही काले बादलों का लिहाफ ओढ़कर सो गया। हवाएं तेज हो गई थीं। वर्षा भी झिमिर-झिमिर आरम्भ हो गई। ठण्ड बढ़ गई। होते-होते आठ बज गये तो हरिया के कहने पर सुधा ने अपने राजा बेटे तथा बाबा के साथ थोड़ा खाना खा लिया। फिर अपने कमरे में जाकर वह पलंग लेट गई। परन्तु आनन्द तब भी नहीं आया तो सुधा को अपने आज के व्यवहार का अफसोस हुआ। शायद उसकी बात से आनन्द बाबू को बहुत चोट पहुंची है। आनन्द का क्षमा मांगना अब उसे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था। उन्होंने भूल क्या की थी ? उन्हें यदि ज्ञात होता कि उसे पुलिस कर्मचारियों से सख्त घृणा है तो ऐसी बातें कभी नहीं कहते जिससे उसके दिल को चोट पहुंची थी। आनन्द उसके लिए एक अपरिचित सहायक था। यदि वह आनन्द की वास्तविकता जानती होती तो उसके बंगले में आने का प्रश्न ही नहीं उठता।
समय बीत रहा था। वर्षा की गति बढ़ती रही। कभी-कभी बादल भी गरज उठते थे। कभी-कभी हवाओं की सांय-सांय भी उसके कानों को सुनाई दे जाती थी। भगतराम सो चुके थे। उसके नन्हे राजा को सोए भी काफी देर हो चुकी थी परन्तु उसकी अपनी आंखों की नींद मानो किसी ने चुरा ली थी। सहसा दीवार पर टंगी घड़ी ने बारह के घंटे बजाए। आनन्द तब भी नहीं आया-आनन्द आता तो उसे अवश्य आहट मिलती। वह अपनी भूल का अहसास बहुत अधिकता के साथ करने लगी। वह पछताई। उसे आनन्द बाबू की बात का इतना गहरा प्रभाव हर्गिज नहीं लेना चाहिए था। उसने तय कर लिया, वह उनसे मिलेगी। अपनी भूल की क्षमा मांगेगी। वह देवता हैं-उसे अवश्य क्षमा कर देंगे और इसके बाद वह उनसे अपनी आंखों के आपरेशन के बारे में स्वयं पूछेगी। यदि आपरेशन होने की संभावना नहीं है तो वह इस घर को छोड़कर चली जाएगी। किसी की कृपा पर निर्भर रहने से तो अच्छा है कि वह अपने घर जाकर रूखा-सूखा खाते हुए जीवन निर्वाह करे।
ऐसा निर्णय करने के बाद भी उसे नींद नहीं आई, बल्कि वह अपने दिल में एक विचित्र-सी उलझन, एक विचित्र सी बेचैनी महसूस करने लगी। क्या यह उलझन, यह बेचैनी एक देवता का दिल दुखाने के परिणाम में ही उसे मिली है ? वह कोई अनुमान नहीं लगा सकी। सहसा वर्षा का शोर समाप्त हो गया, हवाएं भी रुकी-रुकी सी थीं। केवल कभी-कभी ही बादल गरज उठते थे-बहुत दूर, वर्ना हर तरफ खामोशी थी। जब और भी समय बीतने लगा तो इस खामोशी का सहारा लेकर अपने आप ही आनन्द की चिन्ता उसके मन में घर करने लगी। अनिच्छुक होकर भी वह उसके बारे में सोचने पर विवश हो गई। आनन्द बाबू क्यों नहीं आए ? उन्हें कुछ हो तो नहीं गया ?
इसी उलझन में करवटें बदलते-बदलते वह थक गई तो पलंग से उठ खड़ी हुई। शरीर पर शाल डाला और फिर बहुत आहिस्ता से उसने अपने कमरे का दरवाजा खोला। दबे पगों बाहर निकली। फिर टहलती हुई सामने के बरामदे की ओर बढ़ गई। उसने बरामदे का अन्तिम द्वार खोला। बाहर हल्की परन्तु ठण्डी हवा चल रही थी। शायद वर्षा थम गई है। शायद वर्षा की हल्की-हल्की फुहार पड़ रही हो। बाहर अंधकार था। उसकी ज्योतिहीन आंखों के लिए तो अन्दर-बाहर सभी जगह हर समय अंधकार था। वह बरामदे में रखी उस आराम कुर्सी पर जाकर बैठ जाना चाहती थी जिस पर दिन के समय प्रायः उसके बाबा जाकर बैठ जाया करते थे। उसका विचार था कि जब बंगले के मुख्य द्वार पर किसी टैक्सी के रुकने या अन्दर आने का स्वर सुनाई पड़ेगा तो वह तुरन्त उठकर अन्दर चली जायेगी। जब तक वर्षा का शोर न उठे वह यहां बैठकर बहुत आसानी के साथ इस आहट को सुन सकती थी। आंखें जाने के बाद तो उसके कान एक हल्की-सी आहट पर भी चैकन्ने हो जाते हैं। उसने हाथों को फैलाकर टटोलते हुए अपने पग बढ़ा दिए। सहसा बादल गरजा-गरजता ही गया-और बादल की गरज जैसे ही समाप्त हुई वह किसी से टकरा गई। गिरते-गिरते बची। शायद गिर पड़ती यदि उसे किसी की मजबूत बांहों का सहारा नहीं मिलता। थामने वाली बांहें पानी से भीगी तथा ठण्डी थीं।
‘‘आप ?’’ यह आनन्द का स्वर था। वह खुद चौंक उठा था। सुधा संभल गई तो उसने अपनी बांहें हटा लीं। उसकी बांहें ही नहीं पूरा शरीर भीगा हुआ था क्योंकि बाहर हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही थीं। अचानक टैक्सी उसके बंगले से कुछ दूर पर खराब हो गई थी इसलिए रात के इस पहर कोई दूसरी टैक्सी न मिलने के कारण वह वहां से पैदल ही अपने बंगले तक चला आया था। भीगने के कारण उसका शरीर ठण्डा हो गया था, परन्तु सुधा का स्पर्श प्राप्त करते ही उसके अन्दर बिजली दौड़ गई।
सुधा तो बिलकुल बौखला गई। वह मन ही मन सोच रही थी कि कम्बख्त बादल को भी इसी समय गरजना था। बादल नहीं गरजता तो निश्चय ही उसे आनन्द के पगों की चाप सुनाई पड़ जाती। जाने क्यों उसे टैक्सी का स्वर नहीं सुनाई पड़ा ? अपनी स्थिति पर उसे बहुत लाज आई। आनन्द के प्रति उसके दिल में केवल श्रद्धा है। शायद इसी श्रद्धा के कारण इस समय उसके दिल में उसके प्रति चिन्ता भी उत्पन्न हो गई थी। परन्तु यदि आनन्द के दिल में उसके प्रति कुछ हुआ तब वह क्या सोचेगा ? लाज के मारे वह धरती में गड़ जाना चाहती थी।
सहसा बिजली कौंधी। बिजली की कौंध में आनन्द ने सुधा का मुखड़ा देखा। सुन्दरता की प्रतिमा बनी वह उसके सामने खड़ी थी। रात की यह खामोशी-अकेलापन-भीगा-भीगा समां। इतनी रात गए सुधा का इस प्रकार यहां खड़ा होना कोई अर्थ रखता था-और अर्थ यही था कि वह उसकी प्रतीक्षा कर रही थी-केवल उसकी प्रतीक्षा। उसकी टूटती हुई निराशा आशा की मजबूत चट्टान बन गई। वह सुधा के दिल में पग रख चुका है। उसका मन जीत चुका है। आखिर एक न एक दिन तो ऐसा होना ही था। आग और तेल कब तक एक ही स्थान पर अलग-अलग रह सकते हैं। प्यार की आग भड़ककर ही रहती है। खुशी से उसका मन करता था वह चीख-चीखकर सारा संसार अपने सिर पर उठा ले। परन्तु उसने अपने दिल पर काबू किया। सुधा को उसे अभी अपने वास्तविक रूप में भी जीतना है। उसका सच्चा प्यार तभी सार्थक होगा।
परन्तु अभी उसे अपनी वास्तविकता बताने का समय बिल्कुल नहीं आया था। यह तो उसके प्यार का प्रारम्भ है। इस प्यार को मजबूत बनाने के लिए अभी उसे और भी बहुत से पग उठाने थे। सुधा का दिल इस प्रकार जीतना था कि वह उसके बिना एक पल भी अलग नहीं रह सके। तभी वह उसे क्षमा कर सकती थी। सच्चा प्यार करने वाले अतीत का रोना लेकर नहीं बैठते। अतीत एक नासूर है जो जीवन की प्रसन्नताओं को डंस लेता है। अपने प्यार को मजबूत बनाने के लिए उसने सुधा को अपनी बांहों में समा लेना चाहा, उसे प्यार कर लेना चाहा।
सुधा आनन्द की खामोशी का अहसास करके कांप गई। आज दिन में भी आनन्द ने उसे बहुत देर तक चोरी से निहारा था और इस समय भी उसने यही बात महसूस की तो उसका दिल ही नहीं, शरीर भी ऊपर से नीचे तक कांप गया। ऐसा न हो कि आनन्द उसे गलत समझ बैठे। उसने झट कहा, ‘‘आनन्द बाबू, मैं अपनी भूल की क्षमा मांगने के लिए ही इस समय तक आपकी प्रतीक्षा कर रही थी।’’
‘‘क्षमा ! किस भूल की ?’’ आनन्द ने आश्चर्य से पूछा। उसे अपने जज़्बात पर काबू करना पड़ा। सुधा को अपनी छाती में समाने वाली बांहें बढ़ते-बढ़ते रुक गईं।
‘‘आप नहीं जानते कि मुझे पुलिस कर्मचारी से कितनी घृणा है। यही कारण था कि जब आपने राजा को…’’
‘‘मुझे सब मालूम है।’’
‘‘सब मालूम है।’’
‘‘हां।’’ आनन्द ने खेद प्रकट किया, ‘‘सच तो यह है कि मुझे ऐसे लोगों की चर्चा ही नहीं करनी चाहिए थी जिनसे आपके पति की मृत्यु का संबंध है।’’
‘‘पुरानी बातें मत छेड़िये वरना घाव फिर ताजा हो जायेगा।’’ सुधा का स्वर अचानक ही भीग गया।
आनन्द खामोश हो गया। उसके दिल में उसी प्रकार खुशियों का तूफान मौजें मार रहा था। वह जानता था कि सुधा के दिल में चोर है वरना अपनी सफाई वह बिना पूछे नहीं देती। क्षमा मांगने के लिए सुधा को कल भी समय मिल सकता था। नारी का दिल कितना ही निर्बल हो, पुरुष के समक्ष प्रारम्भ में वह अपना प्यार कभी नहीं प्रकट करती। यह काम पुरुष को ही करना पड़ता है और इसीलिए एक बार फिर आनन्द पूरे विश्वास के साथ सुधा को अपनी बांहों में समाने के लिए तड़प उठा।
‘‘आनन्द बाबू।’’ तभी सुधा ने कहा, शाल द्वारा अपनी बांहों को पोंछते हुए जो आनन्द से टकराने के बाद भीग गई थीं। बात उसने जारी रखी ‘‘एक विनती है आपसे।’’
‘‘कहकर देखिए।’’ आनन्द ने भावुक होकर अपना भीगा मुखड़ा सुधा के बिलकुल समीप कर दिया। बोला, ‘‘पूरी नहीं कर सका तो अपनी जान दे दूंगा।’’
सुधा की सांस जहां की तहां रुक गई। यह उसके दिल का चोर है जो वह आनन्द बाबू की बात का इतना गहरा प्रभाव ले रही है या आनन्द बाबू वास्तव में उसे प्यार करने लगे हैं ? अपनी भूल का आभास उसे बहुत अधिकता के साथ हुआ। आनन्द बाबू ने उसे रात के मध्य यहां अकेला खड़ा देखकर वास्तव में गलत अनुमान लगा लिया है वर्ना वह ऐसी बात कहने का कभी साहस नहीं करते। आनन्द के स्वर को उसने अपने मुखड़े के बिलकुल समीप महसूस किया तो ऊपर से नीचे तक कांप गई। अग्नि परीक्षा ? परन्तु वह अपनी पतिभक्ति पर सफल उतरने का प्रण पहले ही कर चुकी थी। उसके पग कभी नहीं डगमगायेंगे। एक पग पीछे हटकर उसने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘हम अब और अधिक आप पर बोझ नहीं बनना चाहते। मेरी आंखों का आपरेशन नहीं हो सकता तो आप हमें जाने की आज्ञा दीजिए।’’

सहसा क्षितिज पर बहुत जोर की बिजली कड़की। कौंध से सारा संसार जगमगा उठा। फिर जैसे ही कौंध समाप्त हुई, सारा संसार पहले से भी अधिक अंधकारमय हो गया-बिलकुल आनन्द के जीवन के समान-जैसे अभी-अभी उसे आशाओं की चकाचौंध प्राप्त हुई थी और अब उसका जीवन पहले से भी अधिक अंधकारमय हो गया था। यह बिजली उसके अरमानों पर ही गिरी थी। उसका दिल टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो गया था। दम घुटने लगा, आंखों में आंसू आने को तड़प उठे। उसने बहुत भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मैं कल ही आपको डाक्टर के पास ले चलूंगा।’’ आनन्द ने सुधा की बात की प्रतीक्षा नहीं की और अन्दर प्रविष्ट हो गया।
सुधा को आनन्द के चले जाने की पदचाप मिल चुकी थी। उसका निराश तथा आंसुओं में डूबा स्वर सुनकर उसे उसके दिल की अवस्था भी मालूम हो गई। उसके दिल में एक अनचाही टीस उठी। इस टीस का कारण क्या है ? न चाहते हुए भी वह उसके लिए क्यों चिन्तित है ? वह समझ न सकी कि उसने आनन्द से जो कुछ भी कहा है वह उचित था या अनुचित परन्तु उसके दिल को सन्तोष अवश्य मिला। वह अपने ध्येय में सफल है। अग्नि परीक्षा में खरी है। एक भारतीय पतिव्रता स्त्री का धर्म उसने नष्ट नहीं होने दिया।

