papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

‘‘ऐसा लगता है जैसे…’’ सहसा पुलिस इंस्पेक्टर अपना अनुमान लगाते हुए सकुचाया। फिर बोला, ‘‘आप खुद ही एक पुलिस अधिकारी हैं।’’

‘‘जी नहीं।’’ आनन्द जोशी ने साफ इंकार किया। बोला ‘‘मैं तो एक व्यापारी हूं पुलिस जैसी हरकत इसलिए करने लगता हूं क्योंकि अंग्रेजी की जासूसी किताबें आवश्कता से अधिक पढ़ चुका हूं।’’

पापी देवता नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

उसकी इस बात का विश्वास किसी भी पुलिस कर्मचारी को नहीं हुआ। अत्यन्त प्रभावोत्पादक कहानियां पढ़ने से मानव का स्वभाव बदल सकता है परन्तु उसके व्यक्तित्व में कभी अन्तर नहीं आता। आनन्द जोशी अपनी बातों से ही नहीं व्यक्तित्व से भी एक ऊंचा पदाधिकारी जान पड़ता था। उनके विश्वास की पुष्टि हो गई कि निश्चय ही यह व्यक्ति गुप्तचर विभाग का कोई अधिकारी है जो किसी भी अवस्था में उन्हें अपना परिचय नहीं देगा। पुलिस इंस्पेक्टर को भी ऐसा विश्वास था इसलिए उसने दोबारा उसके बारे में कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा।

‘‘इंस्पेक्टर साहब।’’ सहसा आनन्द जोशी ने अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी को देखते हुए कहा, ‘‘अपराधी का बयान तो अब आप बाद में भी ले सकते हैं, कृपया हमारा बयान पहले लेकर हमें जाने की आज्ञा दीजिए।’’

इंस्पेक्टर ने उसकी स्थिति देखी। रक्त के धब्बे कमीज को खराब कर चुके थे। इस नवयुवक को तो उसे पहले ही बयान लेकर छोड़ देना चाहिए था। परन्तु इसका उसे अफसोस नहीं हुआ। यह नवयुवक नहीं होता तो निश्चय ही वह उस अपराधी से दिल की बातें नहीं उगलवा सकता था। उसने कहा, ‘‘क्यों नहीं ? क्यों नहीं ? आइये, पहले हम आप लोगों का ही बयान ले लेते हैं।’’ पुलिस इंस्पेक्टर अपनी मेज की ओर बढ़ गया।

आनन्द जोशी ने अपने बयान में वही कहा जो उस पर इस घटना में बीता था। सुधा ने अपना नाम तथा मेरठ का पता बताने के बाद कहा कि वह इस शहर में अपनी आंखों के आपरेशन के लिए कल ही आई है और आज वापस लौटने वाली थी कि यह घटना उत्पन्न हो गई। अचानक अपना बयान देती हुई वह चौंक पड़ी। ‘‘अरे बाबा।’’ दृष्टि द्वारा अपने बाबा को टटोलकर उसने पूछा, ‘‘हमारे कपड़ों का बक्स कहां है ?’’

‘‘बक्स !’’ बाबा ने भी अचानक चौंककर इधर-उधर देखा। घटनास्थल से लेकर अब तक उनका मस्तिष्क परेशानी में इतना व्यस्त था कि सुधा के पास अपना बक्स देखने का उन्हें ध्यान ही नहीं आया। उन्होंने आश्चर्य से कहा, ‘‘परन्तु बक्स तो मैं तुम्हारे पास छोड़ गया था।’’

‘‘वह…वह….’’ सुधा और चिन्तित हो उठी। बोली, ‘‘राजा बेटा के खो जाने के बाद मैं इतना घबरा गई थी कि…’’ वह खुद ही चुप हो गई।

‘‘ओह !’’ सहसा पुलिस इंस्पेक्टर ने सहानुभूति दिखाई। बोला, ‘‘लगता है झगड़े का लाभ उठाकर कोई उचक्का उसे ले भागा। खैर, मैं रिपोर्ट लिख लेता हूं। पैसे तो उसमें नहीं थे ?’’

‘‘थे-पूरे पैंसठ रुपये थे।’’ बाबा की चिन्ता बढ़ गई।

घटनास्थल पर आनन्द जोशी के लिए सुधा को देखने के बाद उसके बक्स पर दृष्टि डालने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उसे बक्स के खोने का इतना दुख नहीं हुआ जितना उसके बच्चे के मिल जाने की खुशी थी। कपड़े-लत्ते तथा पैसा दोबारा प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु उसका बेटा हाथ से निकल जाता तो शायद कभी वापस नहीं मिलता। उसने सोच लिया, वह अपने पास से बाबा की सहायता कर देगा, यदि उन्होंने इंकार नहीं किया।

पुलिस इंस्पेक्टर ने बाबा भगतराम से कुछ आवश्यक प्रश्न पूछे और फिर तीनों को विदा कर दिया। थाने के बाहर तीनों ही एक साथ निकले और सड़क पर आकर ठहर गए। आनन्द जोशी ने भगतराम को देखा और फिर सुधा को। दोनों ही एक नई चिन्ता में डूबे हुए थे। आनन्द जोशी ने उनकी इस चिन्ता का कारण जानने का प्रयत्न किया-शायद उनके पास मेरठ जाने के लिए पैसा नहीं है-परन्तु साफ-साफ कुछ पूछकर उन्हें लज्जित करना भी उसने उचित नहीं समझा। उनका मन टटोलने के लिए उसने पूछा, ‘‘बाबा, अब आप लोग कहां जायेंगे ?’’

‘‘जहां हमारा दुर्भाग्य ले जाए।’’ बाबा के बदले सुधा ने कहा, एक आह लेते हुए इस प्रकार मानो जीवन का बोझ उठाते-उठाते पूर्णतया थक गई हो।

आनन्द जोशी के दिल में टीस उठी। यह टीस उसके होंठों तक चली आई तो वह मानो खुद से ही बोल पड़ा, ‘‘आप वास्तव में बहुत दुखी हैं।’’

‘‘मेरे सारे दुखों का जिम्मेदार केवल एक ही पापी है।’’ सुधा ने आनन्द जोशी के दिल की स्थिति से अनभिज्ञ कहा। अपने पापी को कोसते हुए पति की याद में उसका गला भर आया। वह कह रही थी, ‘‘उस पापी ने मेरे पति को मृत्युदण्ड दिला दिया वरना आज मेरे पास भी सब कुछ होता-घर-घर की सारी प्रसन्नतायें। मुझे ज्ञात होता कि अपने पति के वियोग में रो-रोकर मैं अंधी हो जाऊंगी तो आरम्भ से ही अपने बच्चे के लिए दिल पर पत्थर रख लेती। भगवान करे, वह पापी उसी जेल में सड़-सड़कर मर जाये।’’

भगतराम ने बीच में हस्तक्षेप करना चाहा परन्तु सुधा तब तक अपना वाक्य पूरा कर चुकी थी। उन्होंने आनन्द जोशी को देखा, परन्तु कुछ समझ नहीं सके कि उससे क्या कहना चाहिए। सुधा की बात सुनकर आनन्द जोशी का चेहरा और गंभीर हो गया। उसकी पलकों के कोने भी बहुत हल्के से भीग गये। एक बार उसने भगतराम को देखा, फिर सुधा से पूछा, ‘‘क्या उस पापी के मर जाने से आपके दिल को वास्तव में शान्ति पहुंच जायेगी ?’’

भगतराम आनन्द जोशी की बात सुनते ही कांप गये। आनन्द जोशी के स्वर में बलिदान का भार था। ऐसा न हो कि सुधा के दिल की शान्ति के लिए वह वास्तव में अपनी जान दे दे। सुधा के होंठ खुलने से पहले ही उन्होंने उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। बच्चे की ओर हाथ बढ़ाते हुए बोले, ‘‘ला बेटी, राजा बेटे को मैं संभाल लूं। तू थक गई होगी।’’

‘‘नहीं बाबा।’’ सुधा अपने बच्चे को ठीक से कन्धे पर संभालती हुई सब कुछ भूल गई और बोली, ‘‘अभी राजा बेटे को मेरे पास ही रहने दो। उस घटना के कारण मेरा दिल अब तक धक-धक कर रहा है। मेरे कलेजे का टुकड़ा खो जाता तो मैं वास्तव में पागल हो जाती। यूं भी इतना बड़ा दुख सहते-सहते बिल्कुल थक चुकी हूं।’’

आनन्द जोशी ने सुधा की आंखों में झांका-उन आंखों में जिनके चारों ओर बड़ी-बड़ी पलकों का पहरा था, फिर भी आंखों की ज्योति उसका पापी चुरा ले गया था। उसने डरते-डरते पूछा, ‘‘क्या इतने बड़े दुख में आप किसी को अपना साथी नहीं बना सकतीं ? दुख बंट जाए तो हल्का हो जाता है।’’

‘‘कौन है इस संसार में जो मेरा दुख बांटेगा ?’’ सुधा ने निराशा की एक सांस ली। फिर बोली, ‘‘मेरे दुर्भाग्य के कारण तो मेरे ससुराल वाले भी मुझसे घृणा करने लगे हैं। मां भी मेरे दुर्भाग्य पर आंसू बहाती-बहाती चल बसी। अब केवल बाबा ही हैं जिनके सहारे जी रही हूं।’’

‘हां बेटा।’’ भगत राम ने कहा, ‘‘मेरे अतिरिक्त इस संसार में इसका कोई भी नहीं है। इसीलिए चाहता था कि इसका इलाज करा दूं परन्तु…’’ भगतराम चुप हो गये। दूसरों के आगे अपना दुखड़ा रोने से लाभ भी क्या ?

आनन्द जोशी ने उनकी इस समय की स्थिति जानने के लिए बात छेड़ी थी ताकि उन्हें सहायता पहुंचा सके, परन्तु उसे उनके सारे ही दुखों का ज्ञान होता जा रहा था। यह उसके पक्ष में सिद्ध हुआ क्योंकि अब वह सुधा की अधिक सहायता करने की आशा कर सकता था। सुधा की सहायता करने के लिए उसके दिल में अपने आप ही इच्छाएं जागृत होती जा रही थीं। वह उसका पापी था। उसकी सहायता करके वह अपने दिल का रहा-सहा बोझ भी हल्का कर सकता था। ऐसा उसने दिल की गहराई से महसूस किया। उसने बहुत भेद भरे स्वर में पूछा, ‘‘परन्तु..?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा-कुछ भी नहीं।’’ भगतराम ने बात छिपा ली।

आनन्द जोशी ने भगतराम को देखा तो उन्होंने अपनी दृष्टि तुरन्त फेर ली। उसने उनकी स्थिति समझी। एक बूढ़ा तथा निर्बल व्यक्ति-साथ में एक जवान विधवा बेटी-एक नन्हा बच्चा। भगतराम तथा सुधा की वेशभूषा सादी ही नहीं, गरीबी की जीती-जागती कहानी थी। उसने पूछा, ‘‘डाक्टर से मिले थे ?’’

‘‘हां।’’ भगतराम इंकार नहीं कर सके।

‘‘कहने लगा कि आपरेशन करना पड़ेगा ?’’

‘‘हां।’’

‘‘और आपरेशन के लिए पैसों का प्रबन्ध नहीं हो सकता ?’’

‘‘हां-पांच हजार रुपये कम नहीं होते जबकि मैं एक साधारण…’’ भगतराम बातों के बहाव में वास्तविकता उगल गए, परन्तु तभी चौंक पड़े। तुरन्त बोले, ‘‘नहीं-नहीं…मेरा मतलब…’’ उन्होंने बात संभाल लेनी चाही परन्तु भेद खुल चुका था इसलिए हारकर खामोशी धारण कर ली और फिर अपनी पलकें नीचे झुका लीं।

‘‘आनन्द बाबू।’’ सहसा सुधा ने कहा, ‘‘आपको तो वास्तव में एक पुलिस इंस्पेक्टर या जासूस होना चाहिए था। कितनी आसानी से आपने बाबा के दिल का भेद बाहर निकाल लिया !’’

‘‘धन्यवाद।’’ आनन्द जोशी को आशा बंधी तो उसने पूछा, ‘‘सुधा देवी, अभी-अभी आपने कहा था कि कौन है इस संसार में जो आपके दुखों को बांटेगा ?’’

‘‘जी हां-कहा तो था।’’ सुधा ने अपनी पलकें झपकाईं।

‘‘यदि मैं कहूं कि आपका दुःख…मैं बांटना चाहता हूं-तो ?’’ उसने डरते-डरते उसकी ज्योतिहीन आंखों में झांका।

‘‘नहीं-नहीं।’’ सुधा का दिल अचानक ही हल्के से कांप गया। इतनी सारी सहानुभूति एक अपरिचित व्यक्ति से एकदम प्राप्त करना कोई अच्छी बात नहीं थी। उसने कहा, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है ? आप जैसे देवता को मैं अपने दुःख का भागीदार कभी नहीं बना सकती। रहने दीजिए-रहने दीजिए, मुझे इसी प्रकार। मैं बिलकुल ठीक हूं और फिर मैं अपने दुःख में आपको सम्मिलित भी किस प्रकार कर सकती हूं जबकि हम आज ही मेरठ वापस जा रहे हैं ? आंखों के आपरेशन का प्रश्न तो अब उठता ही नहीं।’’

‘‘प्रश्न क्यों नहीं उठता ? आप मुझे अवसर देकर तो देखिए।’’ आनन्द जोशी ने मानो भीख मांगी। उसने महसूस किया कि जिस अज्ञात शांति के लिए एक युग से उसका दिल तड़प रहा था, संयोगवश वह इस समय उसके सामने उपस्थित है। इस शांति को खो देना जरा भी बुद्धिमानी नहीं थी। यह शांति उसे अपनी भूल की सजा पूरी करने के पश्चात भी नहीं प्राप्त हो सकी थी-शायद इसलिए कि सजा कम थी और भूल बहुत बड़ी। उसके बड़े-से-बड़ा पश्चाताप करने के पश्चात भी सुधा का पति जीवित होकर नहीं वापस आ सकता था, फिर भी उसे अधिक से अधिक सहायता पहुंचाकर वह उसका दुःख अवश्य कम कर सकता था, उसे जीने का सहारा दे सकता था और साथ ही अपनी अन्तरात्मा को भी संतुष्ट कर सकता था। अपने ध्येय में सहायता के लिए उसने बाबा भगतराम को देखा-बहुत आशा के साथ।

‘‘अवसर देने से क्या होता है आनन्द बाबू ?’’ तभी सुधा ने कहा, ‘‘यह आपरेशन तो रुपया चाहता है-पूरे पांच हजार और यदि आप हम पर दया करके इतने सारे रुपये देना चाहते हैं तो यह आपकी भूल है।’’

सत्य के पुजारी ने जीवन में पहली बार महसूस किया कि इस संसार में सत्य ही सब कुछ नहीं है। झूठ के सहारे भी किसी के साथ भला करके मन का सन्तोष प्राप्त किया जा सका है। यह उसके अपने दिल की पुकार थी या सुधा के अन्दर छिपा हुआ कोई आकर्षण, वह ज्ञात नहीं कर सका। उसके पास सुधा के समीप रहकर उसकी सहायता करने का यही एक रास्ता था इसलिए उसने उसे आसानी से छोड़ना उचित नहीं समझा। उसने कहा, ‘‘रुपये की बात कौन कर रहा है ? यह आपरेशन तो बिल्कुल मुफ्त होगा-मेरे एक मित्र द्वारा, आपको शायद नहीं मालूम कि मेरा एक मित्र आंखों का बहुत अच्छा डाक्टर है।’’

सुधा एक पल के लिए गहरे सोच में पड़ गई। क्या एक अजनबी से इतनी जल्दी घुल-मिलकर उसकी सहायता स्वीकार कर लेनी चाहिए ? अजनबी ? अजनबी कौन ? आनन्द बाबू तो देवता हैं-देवता। क्या इस धरती पर देवता इसी प्रकार अपना दर्शन देते हैं-आये-झटपट सहायता की ओर चले गये ? उसके समक्ष अपने राजा बेटे के भविष्य का भी प्रश्न था। आंखें आ गईं तो वह कोई छोटा-मोटा काम करके अपने बेटे को पढ़ा-लिखा देगी। उसके देवता के स्वर में जाने कौन-सा ऐसा अपनापन था कि उसकी बात से इंकार नहीं करते बन रहा था। साथ ही उसकी सहायता स्वीकार करते हुए भी उसे संकोच हो रहा था।

भगतराम ने आनन्द जोशी को बहुत आश्चर्य से देखा। उन्हें विश्वास था कि आनन्द जोशी अपने त्याग द्वारा सुधा का मन जीत लेना चाहता है ताकि अपनी भूल की पूरी-पूरी क्षमा प्राप्त कर सके। परन्तु उन्हें उसका अफसोस हुआ। वह जानते थे कि यदि वह सुधा के लिए अपनी जान भी दे देगा तब भी सुधा के मन में उसके प्रति समाई घृणा कम नहीं होगी। संसार की कोई भी पतिव्रता स्त्री अपने सुहाग के हत्यारे को कभी क्षमा नहीं कर सकती। फिर भी आनन्द जोशी की महानता पर उनका दिल श्रद्धा से झुक गया। आज के युग में प्रायश्चित करना तो देर की बात, कोई अपनी भूल भी स्वीकार नहीं करता।

‘‘मैं ठीक कह रहा हूं बाबा…’’ आनन्द जोशी ने भगतराम को भी विश्वास दिलाना चाहा।

भगतराम सोच में पड़ गये। बाक्स चोरी हो जाने के बाद अब मेरठ जाने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं थे। किसी न किसी की सहायता तो उन्हें लेनी ही थी। परन्तु इस पराये देश में उनका था भी कौन ? एक आनन्द जोशी ही उन्हें ऐसा व्यक्ति दिखाई पड़ा जो ऐसे आड़े समय में एक देवता का रूप लिए उनकी सहायता करने चला आया था। और जब इस देवता से सहायता लेनी ही है तो वह पूरी-पूरी सहायता क्यों न ले ? सुधा की आंखें आ जाएं तो उनके दिल पर से चिन्ता का एक बहुत बड़ा बोझ उतर जायेगा। आंखें आ जाने के बाद सुधा अपने पापी देवता से कैसा व्यवहार करेगी, यह बात उन्होंने भगवान पर छोड़ दी। इस समय तो सुधा को आंखों की सख्त आवश्यकता थी। एक गहरी सांस लेकर उन्होंने सुधा का हाथ पकड़ा और स्वीकृति दे दी।

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