papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

उसने लपककर स्टियरिंग पकड़ ली और पूरी ताकत से बाईं ओर घुमा दी। ऐसा करते समय उसके पग भी जमीन में रगड़ गये। परन्तु उसने स्टियरिंग नहीं छोड़ा। ड्राइवर उसका हाथ छुड़ाने का प्रयत्न कर रहा था। फिर भी उसकी पकड़ मजबूत थी। फलस्वरूप कार बाईं ओर मुड़कर तुरन्त ही सड़क के किनारे बनी नाली से टकराई।

पापी देवता नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

कार स्टार्ट थी। आनन्द जोशी ने ड्राइवर के मुंह पर एक भरपूर मुक्का मारा। वह सीट पर लुढ़क गया तो आनन्द जोशी ने झट हाथ बढ़ाकर कार की चाभी बाहर निकाल ली। घटना की गंभीरता देखकर पीछे बैठे दोनों व्यक्ति तुरन्त बाहर निकले और उस पर टूट पड़े। तब तक आनन्द जोशी कार की चाभी को अपनी पाकेट में रख चुका था। अब ड्राइवर गाड़ी लेकर भाग नहीं सकता था इसलिए वह भी उतरकर उस पर टूट पड़ा। फिर एक अच्छा-खासा घमासान युद्ध छिड़ गया। चाकू और छुरे आनन्द जोशी की मृत्यु बनकर लहराने लगे। परन्तु आनन्द जोशी ऐसे यमदूतों से जरा भी डरने वाला नहीं था। ऐसे लोगों से मुकाबला करना तो कभी उसका पेशा ही था। शरीर से वह यूं भी ताकतवर था। बदमाशों का उसने जमकर मुकाबला किया।

अचानक इतना बड़ा झगड़ा देखकर आसपास की कुछेक दुकानें बंद हो गईं। कुछेक दुकानदारों ने पुलिस को भी फोन कर दिया। लोग एकत्र होने लगे, परन्तु किसी ने भी उन गुण्डों का मुकाबला करने का साहस नहीं किया। कुछ लोग वास्तविकता से अनभिज्ञ झगड़े को उनका व्यक्तिगत मामला समझकर दूर खड़े तमाशा देखते रहे। किसी ने भी आनन्द जोशी का साथ नहीं दिया फिर भी आनन्द जोशी उसी प्रकार डटा रहा। खुद घायल हो गया। होंठों से रक्त भी निकल आया। चाकू से एक बांह की चमड़ी भी हल्के से कट गई, परन्तु उसने अपना पग पीछे नहीं हटाया। जिस बदमाश को भी उसका तौला हुआ एक भरपूर हाथ पड़ा, उसे पलभर के लिए चक्कर आ गया। आखिर थक-हारकर जब तीनों बदमाशों ने वहां से भाग निकलना चाहा तो आनन्द ने अन्तिम बदमाश को अपनी पकड़ में ले ही लिया। अन्तिम बदमाश कार ड्राइवर था, मार खाने के बाद पस्त-बेहाल सा। आनन्द जोशी ने उसे कालर पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए गर्दन उठाकर कार के अंदर झांका। वहां कुछ भी नहीं था। उसने बदमाश के मुंह पर एक जोरदार थप्पड़ रसीद किया। फिर चीखकर पूछा, ‘‘बताओ-कहां है वह बच्चा जो अभी-अभी तुम लोगों ने गायब किया ?’’

आसपास की जनता के दिल में आनन्द जोशी की बहादुरी का सिक्का बैठा चुका था। परन्तु जब उसका गरजता हुआ प्रश्न उनके कानों में पड़ा तो सब के सब स्तब्ध रह गये। झगड़े के मध्य वहीं पर सुधा भी बौखलाई सी खड़ी थी। आनन्द जोशी का प्रश्न जब उसने सुना तो स्वर पर ध्यान न दे सकी। उसके लिए प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण था। वहीं से चीखती तथा छाती पीटती हुई वह आनन्द जोशी की ओर लपकी, ‘‘कहां है मेरा बच्चा ? किसने मेरे बच्चे को गायब किया है ?’’

उसकी पुकार सुनकर जनता ने उसे रास्ता दे दिया तो वह अगल-बगल के लोगों से टकराती हुई अपने आप ही आनन्द जोशी के समीप पहुंच गई। आनन्द जोशी ने सुधा को देखा। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा जारी थी। उसने अपने हाथ में थामे बदमाश का कालर और जोर से अपनी ओर खींचा जिसने अब तक उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया था। फिर उसने उसके गाल के दोनों ओर चार-छः थप्पड़ लगाए, एक ही हाथ द्वारा, कभी हथेली से तो कभी हथेली के उल्टी ओर से। बदमाश के जबड़े हिल गये। इस बार आनन्द जोशी पहले से अधिक तेज स्वर में गरजा, ‘‘बताओ वह बच्चा कहां है वरना मैं अभी तुम्हें पुलिस थाने ले चलता हूं।’’

‘‘मुझे पुलिस थाने मत ले जाइए साहब…मुझे पुलिस थाने मत ले जाइए…मैं…मैं सब कुछ बता देता हूं।’’ वह व्यक्ति दर्द से तड़पकर गिड़गिड़ाया, ‘‘वह बच्चा…वह…वह बच्चा कार की डिक्की में है।’’

सुधा ने सुना तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। उसने अपनी अंगुली होंठों पर रख ली। फिर भी स्वर निकल ही गया-‘‘आह !’’ सांस घुट जाने के कारण उसकी चीख आधी रह गई थी।

आनन्द जोशी ने बदमाश को एक सख्त झटका देकर इस प्रकार छोड़ा कि वह लड़खड़ाता हुआ समीप खड़े व्यक्तियों पर जा गिरा। फिर जनता ने उसे संभाल लिया। लात, जूते, घूंसे, थप्पड़ तथा गालियों से उसका स्वागत होने लगा। आनन्द जोशी ने ‘डिक्की’ खोली। नन्हा-मुन्ना बच्चा एक गठरी समान पड़ा हुआ छटपटा रहा था। बदमाशों ने आवाज न निकलने के कारण नन्ही-सी जान के मुंह में इतना अधिक कपड़ा ठूंस दिया था कि उसकी जान भी निकल सकती थी। हाथ-पैर भी बंधे हुए थे। कुछ लोगों ने देखा तो राम-राम किए बिना नहीं रह सके।

सुधा ने सुना तो एक अज्ञात भय से उसका दिल ही कांप गया। वह अपने बच्चे तक पहुंचने के लिए अधीर हो उठी। इसी बीच आनन्द जोशी ने बच्चे को गोद में उठा लिया था। बच्चे के मुंह से उसने कपड़ा निकाला तो वह चीख-चीखकर रो पड़ा। समीप खड़े लोगों में से कुछेक आगे बढ़े और आनन्द जोशी की सहायता करते हुए उन्होंने बच्चे के हाथ-पैर के बन्धनों को खोल दिया।

बच्चे का स्वर सुनकर सुधा की छाती धड़क उठी। आनन्द जोशी के समीप पहुंचकर वह इधर-उधर देखने लगी तो आनन्द जोशी ने बच्चा उसकी गोद में डाल दिया। सुधा बच्चे को छाती से लगाकर दीवानों समान चूमने लगी और फूट-फूटकर रो पड़ी। उसके आंसुओं को देखकर आनन्द जोशी का दिल फट गया। वह जानता था कि और मांओं से कहीं अधिक अभागिन सुधा के दिल में अपने बच्चे के लिए प्यार अधिक है। उसके स्वर्गवासी पति की यही तो एकमात्र जीती-जागती निशानी उसके पास बची थी। बच्चे की आयु लगभग साढ़े तीन वर्ष की थी, फिर भी सुधा उसे इस प्रकार अपनी छाती में समाए हुए थी मानो उसने अभी-अभी ही उसे अपनी कोख से जन्मा है। बच्चा बिछुड़ जाता तो शायद वह अपना सिर पटक-पटककर जान दे देती। इसी भय के कारण रोते-रोते उसकी हिचकी भी बंध गईं।

तभी एक सज्जन ने सुधा को देखकर कहा, ‘‘अरे, अब क्यों रो रही हो ? धन्यवाद दो इस महापुरुष को जिसने अपनी जान पर खेलकर तुम्हारे बच्चे की रक्षा कर दी।’’ उसने आनन्द जोशी की ओर इशारा किया।

‘‘नहीं-नहीं-कोई बात नहीं।’’ आनन्द जोशी ने अपनी पाकेट से रुमाल निकालकर अपने होंठों का रक्त पोंछते हुए कहा, ‘‘इनकी सहायता करना तो मेरा कर्तव्य था।’’

सुधा ने आनन्द के स्वर पर जरा भी गौर नहीं किया। जब पहली बार इस स्वर को सुनकर उसने ध्यान नहीं दिया तो दोबारा सुनकर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं थी-विशेष कर ऐसी स्थिति में। और फिर जिस स्वर से उसे घृणा थी वह आनन्द जोशी का स्वर नहीं था-इंस्पेक्टर जोशी का स्वर था। इस स्वर में अन्तर था-इतना अन्तर जितना सहानुभूति तथा घृणा के बीच है। तब उसने जो भी कुछ सुना था इंस्पेक्टर जोशी को देखने के बाद ही सुना था।

इंस्पेक्टर जोशी को देखते ही उसके मन में उसके प्रति घृणा का समा जाना स्वाभाविक था। परन्तु इस समय परिस्थिति बिल्कुल अलग थी। इस समय वह आनन्द जोशी को देख नहीं सकी इसलिए अकारण ही उसके मन में कोई घृणा भी नहीं उत्पन्न हुई। घृणा उत्पन्न नहीं हुई तो वह उसके स्वर को पहचान भी नहीं सकी। आनन्द जोशी की बात सुनकर सुधा ने अपनी स्थिति संभाली और उसकी ओर मुखड़ा उठाकर बोली, ‘‘आपका यह उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूंगी। आप मानव नहीं देवता हैं।’’ अपने बच्चे को उसने कन्धे पर संभाल लिया और एक हाथ द्वारा अपनी आंखों के आंसू पोंछने लगी।

‘‘नौजवान।’’ सहसा समीप खड़े एक बूढ़े व्यक्ति ने आनन्द जोशी के व्यक्तित्व को ऊपर से नीचे तक देखकर सराहते हुए कहा ‘‘तुम वास्तव में बहादुर हो। तुम्हें तो एक फौजी सिपाही होना चाहिए था।’’

‘‘फौजी सिपाही क्यों ?’’ एक दूसरे व्यक्ति ने आनन्द जोशी के अन्दर के गुण की सराहना की। बोला, ‘‘इन्हें तो कोई जासूस होना चाहिए था या कम से कम एक पुलिस इंस्पेक्टर ही। वाह ! क्या आंखें हैं ! एक ही दृष्टि में अपराधियों को पहचान गईं।’’

तभी वहां पुलिस की गाड़ियां आ गईं। जनता ने बदमाश को अपनी पकड़ में ले रखा था। पुलिस ने अपराधी बनाकर उसे अपनी हिरासत में ले लिया। फिर एक पुलिस इंस्पेक्टर ने आनंद जोशी की ओर देखा। उसके सुन्दर व्यक्तित्व से वह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। आनन्द जोशी के चेहरे तथा एक बांह पर रक्त के धब्बे थे। उसने पूछा, ‘‘आपको अस्पताल जाने की तो आवश्यकता नहीं है ?’’

‘‘ओह नो।’’ आनन्द जोशी ने गर्दन हिलाकर झूमते हुए कहा, ‘‘बिल्कुल भी नहीं।’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने उसकी मन ही मन प्रशंसा की। फिर बयान के लिए उसके साथ सुधा को भी थाने ले जाना चाहा।

‘‘परन्तु मैं कैसे जा सकती हूं ?’’ सुधा ने एक नई कठिनाई में उलझते हुए कहा, ‘‘मुझे तो बाबा की इसी जगह प्रतीक्षा करनी है।’’

‘‘प्रतीक्षा करनी है !’’ आनन्द जोशी ने आश्चर्य से पूछा। यदि सुधा का बाबा आ गया तो वह निश्चय ही उसे पहचान लेगा और यदि उसे पहचान कर उन्होंने उसकी वास्तविकता सुधा के सामने प्रकट कर दी तो सुधा की जीती हुई सहानुभूति तथा श्रद्धा फिर घृणा में परिवर्तित हो जायेगी। एक नारी अपने पति के हत्यारे को कभी भी क्षमा नहीं कर सकती। वह चिन्ता में पड़ गया।

‘‘हां।’’ सुधा ने उसके दिल में उठती चिन्ता से निश्चिंत कहा।

‘‘परन्तु वह गये कहां हैं ?’’ आनन्द जोशी ने मानो न चाह कर भी पूछा।

‘‘वह समीप ही किसी गली में कुछ फल लेने गये हैं।’’ सुधा ने कहा, ‘‘गली में भीड़ थी इसलिए मुझे ले जाना उचित नहीं समझा, अंधी हूं न मैं-इसलिए देख नहीं सकती।’’

आनन्द जोशी का दिल उसके प्रति करुणा से भर गया। पुलिस इंस्पेक्टर ने चाहा कि उसके बाबा की प्रतीक्षा में यहां पर एक कांस्टेबिल को छोड़ दे और सबको साथ ले जाये, परन्तु तभी वहां पर बाबा भगतराम आ गये। उनके हाथ में कपड़े की एक थैली लटक रही थी, थैली में शायद कुछ फल थे। आनन्द जोशी ने उन्हें देखा तो एक ही दृष्टि में पहचान लिया और तुरन्त अपना मुंह दूसरी ओर फेरकर एक किनारे सरक गया। जनता की भीड़ से धक्का खाकर उसके स्थान पर एक दूसरा व्यक्ति आ खड़ा हुआ। भगत राम को जनता से पहले ही ज्ञात हो गया था कि किस घटना के कारण यहां पर इतनी भीड़ एकत्रित है। घबराए स्वर में वह पूछ रहे थे, ‘‘कहां है मेरी बच्ची ? कहां है ?’’ और फिर उन्होंने आते ही सुधा को उसके बच्चे सहित अपनी छाती से लगा लिया। सुधा की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। भगतराम अपनी बच्ची के सिर पर हाथ रखकर मानो खुद से बोले, ‘‘उन बदमाशों को एक अंधी दुखिया का बच्चा छीनते मौत क्यों नहीं आ गई ?’’

‘‘बाबा।’’ सुधा ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘मेरे राजा को आज कोई भी नहीं बचा सकता था, यदि यह देवता मेरी सहायता नहीं करते।’’ उसने उस ओर इशारा किया जहां आनन्द जोशी पहले खड़ा था।

‘‘मैं !’’ सहसा आनन्द जोशी के स्थान पर आकर खड़ा व्यक्ति चौंककर बौखला गया। फिर बोला, ‘‘अरे मैं नहीं-वह’’ उसने समीप ही खड़े आनन्द की ओर इशारा किया, ‘‘वह देवता तो वह खड़े हैं।’’

सुधा ने स्वर में अन्तर पाया तो अपनी बेबसी पर लजा गई। भगतराम ने आनन्द जोशी को देखा। उसका मुखड़ा तिरछा था। वह अपने आपको छिपाने का प्रयत्न कर रहा था। यदि इस समय पुलिस नहीं होती तथा जनता की प्रशंसनीय दृष्टि का वह एकमात्र केन्द्र नहीं होता तो निश्चय ही यहां से निकल भागता। भगतराम को उसका चेहरा कुछ परिचित-सा लगा। अपने मस्तक पर बल डालकर चश्मे के अन्दर ही अन्दर आंखों पर जोर देते हुए वह आनन्द जोशी के समीप आ गये-बिल्कुल सामने। आनन्द जोशी की जान ही निकल गई। भगतराम ने उसे पहचाना तो चौंक गये। होंठों से अपने आप ही निकल गया, ‘‘तुम !’’

‘‘जी हां।’’ सहसा समीप खड़े एक दूसरे व्यक्ति ने कहा, ‘‘इनके अतिरिक्त एक पराये बच्चे के लिए इतने भयानक बदमाशों का मुकाबला करने का साहस यहां किसी में नहीं हुआ। चाकू, छुरा सभी कुछ तो लेकर सब इन पर टूट पड़े थे।’’

भगतराम ने देखा-जोशी-इंस्पेक्टर जोशी वास्तव में बहुत घायल है। वह उसे इंस्पेक्टर जोशी के ही नाम से जानते थे। आनन्द जोशी के गोरे मुखड़े पर चोट पड़ने के कारण कहीं-कहीं भूरे धब्बे पड़ गए थे। होंठों के किनारे पर भी रक्त का धब्बा था। एक बांह की आस्तीन रक्त से तर थी। कहीं-कहीं रक्त जमकर पपड़ी बन गया था। भगतराम को विश्वास ही नहीं हुआ। आनन्द जोशी ने उन्हें देखा तो अपनी दृष्टि नीचे झुका ली।

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