आनन्द जोशी ने बिना एक पल गंवाए टैक्सी रोकी। ड्राइवर के पीछे सुधा को बैठाया, उसके बगल में बाबा भगतराम को। वह खुद ड्राइवर की बगल में बैठा। रास्ते में भगतराम ने उसे अपने जीवन की कठिनाइयों से परिचित कराया, परन्तु ऐसी कोई बात नहीं कही जिसके कारण आनन्द जोशी खुद को जिम्मेदार समझकर लज्जित होता। फिर भी आनन्द जोशी जानता था कि उनकी सारी कठिनाइयों का जिम्मेदार वही है-और कोई नहीं।
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और इसीलिए कंधों से कुछ पीछे पलटते हुए वह उनकी बात सुनने के साथ-साथ सुधा को भी देख रहा था जो सिर झुकाए बहुत खामोशी के साथ गोद में लेटे अपने बच्चे पर आंखें बिछाए हुई थी, इस प्रकार मानो वास्तव में उसे देख रही हो। सुधा की साड़ी का आंचल ढलककर गोद में चला आया था। उसकी सफेद गर्दन दूध के समान चमक रही थी। लटों का एक लच्छा पीछे से उड़ते हुए उसकी छाती पर आकर बिखर गया था। लटों की दो परतें हवा के दबाव पर हल्के-हल्के कांपती हुईं उसके कपोलों का चुम्बन ले रही थीं।
आनन्द जोशी ने गौर किया, इतने वर्षों निरंतर भादों के थपेड़े खाने के पश्चात् उसके शरीर में कहीं न कहीं यौवन का सहारा लिए वही पुरानी सुन्दरता छिपी हुई अब भी सुरक्षित है। इस सुन्दरता को उसकी आंखों ही ने नहीं, दिल ने भी पहचाना-पहचाना तो उसका दिल हल्के से धड़क भी गया। यह धड़कन कैसी है ? जिसमें दर्द भी था और मिठास भी ? क्या इसी धड़कन का नाम प्यार है ? कितनी आसानी के साथ यह अनूठा प्यार सुधा की पल भर की समीपता लिए उसके दिल में सदा के लिए समा गया था। उसने तुरन्त इरादा कर लिया-वह प्रयत्न करेगा-पूरा प्रयत्न करेगा कि सुधा के जीवन में एक बार फिर सावन की सुगन्धित प्रसन्नताएं वापस आ जाएं। सुधा का मन जीत लेना उसके लिए चुनौती बन गया जिसे स्वीकारने में उसने अपना गौरव समझा। परिस्थितियों के अनुसार अब उसे सुधा के सामने आनन्द बनकर रहने की आवश्यकता थी और उसने अपने आपको आनन्द बना लिया-केवल आनन्द।
आनन्द के बंगले में सुधा तथा बाबा को साथ रहते हुए दो सप्ताह से भी अधिक समय हो गया। इतने दिनों के अन्दर सुधा की स्थिति इस प्रकार सुधर गई जैसे पतझड़ में सूखते किसी पौधे को वर्षा की फुहार मिल गई हो। बंगले के लॉन में हरियाली बढ़ गई। फूलों की गिनती बढ़ी तो चारों ओर सुगन्धित वातावरण छा गया। आनन्द ने पहले ही दिन हरिया को सारी बातें समझाकर भेद में रहने का आदेश दिया था। हरिया अपने मालिक के दुखी दिल से परिचित था। अपने मालिक की शांति के लिए उसने अपनी जुबां पर ताला डाल लिया।
पहले ही दिन आनन्द सुधा तथा बाबा के लिए साधारण कपड़े खरीद लाया था। दिल में इच्छा अवश्य थी कि सुधा को एक से एक बहुमूल्य साड़ियों से संवारकर उसी प्रकार रखे जैसे उसने उसे जीवन में पहली बार देखा था, परन्तु बात अभी आरम्भ की थी इसलिए ऐसा पग उठाने से सुधा को किसी प्रकार का संदेह हो सकता था। उसके राजा बेटा के साथ घुल मिलकर आनन्द खेलता तो बिल्कुल बच्चा बन जाता। यही कारण था कि राजा बेटा अपनी मां से अधिक उसके साथ रहना पसन्द करने लगा था। आनन्द के कहने पर ही उसे वह ‘अंकल’ कहकर पुकारने लगा था। पिता को भी देखा नहीं था इसलिए पहली बार उसे जब आनन्द से पिता जैसा प्यार मिला तो वह सब कुछ भूल गया।
भगतराम बूढ़े तथा गमगीन आदमी थे। कब तक राजा के लिए कृत्रिम मुस्कान बिखेरते रहते ? आनन्द उसके लिए रोज ही कोई न कोई नया खिलौना अवश्य ले आता था। सुधा अपने बच्चे की तोतली जबान से खिलौने का नाम सुनती तो चुप रह जाती। दिल नहीं चाहता था कि उसके लिए कोई इतना सब करे। परन्तु प्रेम से दी हुई वस्तु के लिए तो इंकार भी नहीं किया जा सकता। आनन्द का व्यवहार ही ऐसा था। इसके विपरीत उसके मन में उसके प्रति एक अलग ही श्रद्धा बढ़ती जा रही थी। यह श्रद्धा उस समय और गहरी हो गई जब एक दिन बाबा भगतराम ने उसे समाचार पत्र पढ़कर बताया कि जिस गिरोह के व्यक्तियों ने उसके बेटे को अपहृत करने का प्रयत्न किया था उस गिरोह पर पुलिस ने छापा मारकर एक-एक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया है। गिरोह का धंधा कई वर्षों से यही चल रहा था कि बच्चों का अपहरण करके उनकी आत्माओं में देश-द्रोह के कीटाणु भरे जाएं। लड़के बड़े होकर देश की शांति भंग करें तथा लड़कियां एक विदेशी सरकार के लिए जासूसी। यह गिरोह एक विदेशी सरकार से इस काम के लिए बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त कर रहा था।
सुधा ने बाबा के होंठों से सारी बातें सुनीं तो कांपकर अपने लाड़ले को छाती से लगा लिया। यदि उसका बेटा अपहृत हो जाता तो बड़ा होकर कितना गन्दा काम करता। आनन्द के पग छूने के लिए उसका दिल बेचैन हो उठा। अपनी बहादुरी के द्वारा आनन्द ने उसके दिल के टुकड़े को ही नहीं बचाया, बल्कि देश की भी एक बहुत बड़ी सेवा की है। आनन्द की शरण में उसने अपने आपको बहुत सुरक्षित महसूस किया। उसकी वह सारी ही झिझक मिट गई जो आनन्द के साथ इस घर में पहली बार आते समय हुई थी। बल्कि जब आनन्द घर में नहीं होता तो उसे ऐसा लगता मानो पूरा घर सूना-सूना है। परन्तु आनन्द के घर में बाबा भगतराम पर कुछ और ही प्रभाव पड़ा। आनन्द के घर आते समय उन्हें यह आशा बिल्कुल भी नहीं थी कि वह इतने ऊंचे घराने से संबंध रखता है और यही कारण था कि उसके बंगले में रहते हुए वह कुछ-कुछ हीन भावना का शिकार हो गये।
शायद सुधा पर भी कुछ ऐसा ही बीतता, यदि वह अपनी आंखों से आनन्द का रहन-सहन देख सकती होती। देख सकती होती तो यहां आने का प्रश्न ही नहीं उठता था। हीन-भावना का शिकार होकर बाबा भगत राम ने आनन्द से अपना वह दुखड़ा भी कह सुनाया जो अब तक छिपा रखा था-मकान गिरवी रखा है-पांच वर्ष में नहीं छुड़ाया तो महाजन सूद समेत अपना रुपया लेने के लिए मकान नीलाम कर देगा। दामाद के मुकदमे में खर्च करने के लिए जो पैसा उन्होंने किरायेदारों से लिया था उसमें दुकानें भी हाथ से निकल जायेंगी-इत्यादि-इत्यादि। आनन्द ने उनकी कहानी सुनी और इसी निश्चय पर पहुंचा कि यह केवल एक संयोग था जो सुधा को उसके समीप ले आया। उसने इस संयोग को धन्य कहा और एक सुहाने स्वप्न में डूब गया। उसके दिल ने प्यार की वह मिठास प्राप्त की जिसके लिए वह कभी किरण का विचार करके तरसता था। प्यार किन परिस्थितियों में किससे, कब और कहां हो जाता है, कोई नहीं जानता।
बंगले में कमरे इतने थे कि आनन्द ने एक कमरा सुधा को दे दिया तथा उसके बगल वाला बाबा को। बाबा के कमरे के दरवाजे के बिल्कुल सामने एक गैलरी के बाद उसके अपने कमरे का दरवाजा था तथा सुधा के दरवाजे के सामने उसके अपने कमरे की खिड़की। सभी दरवाजों पर परदे थे। यदि सुधा के दरवाजे का परदा सरका होता तो वह अपनी खिड़की से उसे अच्छी तरह देख सकता था। सुधा अपने कमरे का दरवाजा केवल रात में सोते समय ही बंद करती थी।
बिलकुल एक कुटुम्ब के सामान जब दिन या रात का खाना खाने के बाद कुछ समय के लिए तीनों बड़े कमरे में इकट्ठा बैठते तो अधिकांश आनन्द ही बातें करता रहता। सुधा से बातें करने का कोई विषय नहीं मिलता तो राजा से ही बातें करते लगता, परन्तु उसकी दृष्टि सुधा पर ही चिपकी रहती। समीप बैठकर अखबार या पत्रिका पढ़ते-पढ़ते भगतराम पलकें उठा कर चश्मे के अन्दर से उसे देखते-बहुत कुछ समझने का प्रयत्न करते-समझते भी, परन्तु फिर भी एक आह भरकर दोबारा पलकें झुका लेते। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करें ? आनन्द की बातों से सदा यही प्रकट होता कि वह अपनी भूल का पश्चात्ताप ही नहीं कर रहा है, बल्कि उसे सुधा से प्यार भी हो गया है-निःस्वार्थ प्यार। सुधा की मजबूरी से वह कोई लाभ नहीं उठाना चाहता, वरना एक अन्धी लड़की का सम्मान कब तक एक निर्बल तथा बूढ़े व्यक्ति के साथ सुरक्षित रह सकता था।
आनन्द की शरण में जब उन्हें सुधा का जीवन सुरक्षित दिखाई पड़ता तो वह बहुत गहरी सोच में पड़ जाते। वह सोचते कि काश, सुधा का दिल भी आनन्द की ओर आकृष्ट हो जाए तो कितना अच्छा होगा ! सुधा अपना पिछला गम भूलकर एक नया जीवन प्राप्त कर सकती है। यह जीवन निश्चय ही उसे केवल आनन्द से मिल सकता है। अपनी एक भूल के कारण आनन्द सदा ही सुधा के पगों में प्रसन्नताओं का ढेर एकत्र करता रहेगा। परन्तु फिर एक अज्ञात भय का आभास करके उनका दिल उदास भी हो जाता। आनन्द के प्रति वह सोचते कि क्या मन का यह सच्चा देवता सदा सुधा को धोखा देकर इसी प्रकार अपने दिल का सन्तोष तथा सुधा की प्रसन्नताएं स्थिर रख सकेगा। सुधा ने केवल अपनी आंखों का आपरेशन कराने के लिए ही आनन्द के घर में शरण ली है और वह आज नहीं तो कल आपरेशन के लिए आनन्द से अवश्य कहेगी। कब तक वह इसी प्रकार एक पराए व्यक्ति के घर में अपाहिज समान बैठना पसन्द करेगी ? आनन्द के बारे में वह उसे कुछ भी तो नहीं बता सकते। उन्होंने आनन्द का त्याग तथा सुधा के विश्वास का परिणाम भगवान के ऊपर छोड़ दिया। अब तो जो होना है, वह होकर ही रहेगा।
एक दिन शाम के समय आनन्द अपनी बातों द्वारा सुधा का मन बहला रहा था। सुधा भी उसकी बातों में पूरी रुचि ले रही थी इसलिए बाबा भगतराम ने उनके मध्य से हट जाना ही अच्छा समझा। उन्होंने राजा का हाथ पकड़ा और उसे घुमाने के बहाने बाहर ले गए। यदि सुधा के दिल में आनन्द का स्थान बन गया तो वह प्रयत्न करेंगे कि सुधा की आंखों का आपरेशन न हो तथा आनन्द की वास्तविकता भेद में ही रहे। सुधा के साथ यह अन्याय था परन्तु इसी में उसके जीवन की सुख-शांति तथा उसके बेटे का उज्ज्वल भविष्य सुरक्षित था। इसी में आनन्द की भी भलाई थी। किसी को जानकर नफरत करने से तो अच्छा है कि उसको अनजाने में ही प्यार किया जाए। प्यार हर अवस्था में घृणा से बहुत ऊंचा स्थान रखता है।
सहसा आनन्द बात करते-करते खामोश हो गया। खामोश होकर सुधा की उभरती सुन्दरता में इस प्रकार खो गया मानो अचानक ही उसने उसके अन्दर बहुत बड़ा परिवर्तन देख लिया था। बिना कोई आहट किए वह उसके समीप आकर खड़ा हो गया-बहुत समीप-और उसे देखने लगा। सुधा ने लटों को खींचकर बिल्कुल साधारण ढंग से संवारा था। मांग सूनी, न ज्योतिहीन आंखों में काजल, न कपोलों पर मुस्कान की लालिमा। फिर भी उसका यौवन सुन्दरता की अंगड़ाई ले चुका था। उसका रंग खिल उठा था। रंग के साथ शरीर का उभार निखर आया था-बहुत तेजी के साथ। जिस प्रकार एक लड़की को बचपन से जवानी में पग रखते देर नहीं लगती, उसी प्रकार सुधा की ढलती जवानी को भी वापस आने में समय नहीं लगा था। उसके दिल में सुधा की छवि और गहरी हो गई।
‘‘आप यहीं हैं या…चले गये ?’’ इतनी देर की खामोशी के बाद जब सुधा को उसके चले जाने की चाप नहीं सुनाई पड़ी तो उसने पूछ लिया।
‘‘चला गया।’’ आनन्द ने बिना किसी आहट के पीछे हटकर कहा और हल्के-से मुस्करा दिया।
सुधा के होंठों पर भी एक मुस्कान चली आई-एक बहुत ही हल्की-सी मुस्कान, जिसकी मिठास का अहसास उसे एक युग के बाद हुआ तो वह तुरन्त ही फिर गंभीर हो गई, इस प्रकार मानो उसे मुस्कराने का जरा भी अधिकार नहीं था। वह विधवा है और एक भारतीय विधवा के जीवन में मुस्कान का स्वप्न भी आना पाप है।
यह क्रम कई बार चला। जब भी आनन्द को सुधा के साथ अकेले में रहने का अवसर मिला तो वह बस बातें करते-करते खामोश होकर उसकी दिन-प्रति-दिन उभरती हुई सुन्दरता में डूब गया और जब सुधा को वातावरण की खामोशी में भेद-भरी सांसों का अहसास होता तो वह पूछ बैठती, ‘‘आप हैं या…चले गये ?’’
आनन्द का भी एक ही उत्तर, ‘‘चला गया।’’
और तब सदा के समान सुधा मुस्कराते-मुस्कराते फिर गंभीर हो जाती। एक विधवा को मुस्कराने का क्या अधिकार है ? उसे तो अपना शेष जीवन पति के वियोग में सिसक-सिसककर बिता देना चाहिए।
परन्तु जब आंखों के आपरेशन की प्रतीक्षा में सुधा के कुछ दिन और बीत गए तो उसे मानो अपने आपसे डर लगने लगा। उसे ऐसा लगा जैसे आनन्द के साथ रहकर वह अपने पवित्र प्रेम की अग्नि परीक्षा में सफल नहीं उतरेगी। आनन्द के व्यवहार से वह इतना प्रभावित थी कि उसने उसे याद दिलाना उचित नहीं समझा कि वह इस घर में क्यों रह रही है ? परन्तु शीघ्र ही बाबा से यह बात छेड़ने का इरादा उसने अवश्य कर लिया।
दूसरे दिन आनन्द सुबह लगभग दस बजे निकला। उसे कुछ न कुछ काम से रोज ही बाहर जाना पड़ता था, परन्तु अब तक वह किसी एक व्यापार को करने के निर्णय पर इसलिए नहीं पहुंच सका था क्योंकि उसकी प्रसन्नताएं दुविधा में थीं। फिर भी उसे कुछ न कुछ तो अवश्य करना ही था इसलिए प्रयत्न अवश्य कर रहा था, परन्तु इसकी उसे कोई जल्दी नहीं थी। उस दिन सुबह से ही वातावरण कुछ भीगा-भीगा सा था। हल्की-हल्की हवाएं चल रही थीं। ऐसा लगता था मानो कहीं दूर वर्षा हुई है-या होने वाली है। कहीं दूर बादलों की गरज सुनाई पड़ जाती थी। आनन्द के जाने के बाद सुधा अपने कमरे में अकेले रह गई तो बाबा उसके पास आकर आरामकुर्सी पर बैठ गए। उनके पगों की चाप से वह भली-भांति परिचित थी। तब उसके राजा बेटे को घुमाने के बहाने हरिया सब्जी लेने के लिए अपने साथ बाहर ले गया था। सुधा को एकान्त में अपने बाबा से दिल की बात कहने का अवसर मिल गया।
‘‘बाबा।’’ सुधा ने सावधानी बरतते हुए अगल- बगल आहट ली और कहा, ‘‘मेरी आंखों का आपरेशन कब होगा ?’’
उसका प्रश्न सुनकर बाबा मौन रह गये। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दें। आंखों के आपरेशन के पक्ष में वह स्वयं भी नहीं थे। वो सोचते थे कि आंखों का आना सुधा के सुखी जीवन के हित में कभी नहीं होगा। उन्हें यह विश्वास था कि आनन्द इतनी आसानी के साथ सुधा को उसकी ज्योति वापिस दिलाकर अपनी पहचान देना स्वीकार नहीं करेगा। ऐसा न हो कि सुधा के दिल में समाई श्रद्धा फिर नफरत में बदल जाए।
‘‘बाबा।’’ सुधा ने बाबा की खामोशी में चिन्ता महसूस की तो फिर अपना प्रश्न दोहराना चाहा।
‘‘उसे आने दे बेटी, मैं पूछकर बताऊंगा।’’ बाबा ने उसे टाल दिया।
उस दिन काफी समय बीतने के बाद भी आनन्द नहीं आया। हरिया बहुत पहले लौट आया था और इस समय राजा सुधा के समीप फर्श पर बैटरी की मोटर चलाते हुए खेल रहा था। फिर भी सुधा को जाने क्यों एक उकताहट-सी महसूस होने लगी। आनन्द रहता था तो उससे न सही उसके बेटे से ही सदा बातें करता रहता था और इसीलिए घर की रौनक स्थिर रहती थी। इतनी देर बाद भी वह नहीं आया तो से पूरा बंगला सूना लगने लगा। भगतराम अब तक उसके कमरे में बैठे हुए एक पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थे। आनन्द ने उनके लिए अनेकों धार्मिक तथा राजनैतिक पत्रिकाओं का प्रबन्ध कर दिया था। सहसा दीवार पर टंगी घड़ी ने एक का घंटा बजाया।
‘‘एक बज गया क्या ?’’ सुधा ने पूछा।
‘‘नहीं-डेढ़ बजे हैं।’’ भगतराम ने एक बार घड़ी पर दृष्टि उठाई और फिर पत्रिका में डूब गये।
‘‘अभी तक आनन्द बाबू नहीं आए ?’’
‘‘नहीं।’’ भगतराम ने सुधा को गौर से देखा। आनन्द के लिए सुधा का चिंतित होना उन्हें पसन्द आया।
तभी हरिया ने कमरे में प्रवेश किया। राजा को उसने गोद में उठा लिया और सुधा तथा भगतराम, दोनों ही से बोला, ‘‘मालिक की आज्ञा है कि कभी उन्हें आने में देर हो जाए तो आप लोगों को खाना खिला दिया करूं। खाना मेज पर लग चुका है।’’
सुधा ने आनन्द को आज पहली बार खाने के समय अनुपस्थित पाया था। इस घर की वह मेहमान है। जिसकी मेहमान है, वही घर में न हो तो वह किस प्रकार खाना खा सकती है ? उसने कहा, ‘‘आनन्द बाबू को आने दो, खाना हम सब इकट्ठे ही खायेंगे।’’

हरिया कुछ झिझका। उसने नन्हे राजा को देखा। फिर बोला, ‘‘यदि आप आज्ञा दें तो मैं राजा भैया को ही खाना खिला दूं।’’
सुधा ने आज्ञा दे दी। हरिया चला तो सुधा ने सोचा, आनंद बाबू उसका कितना अधिक ध्यान रखते हैं ! इतना अधिक ध्यान तो कोई अपना सगा भी नहीं रखता। उसे आनन्द में कोई गलत रुचि नहीं थी, फिर भी उसके दिल के अन्दर आनन्द के व्यक्तिगत जीवन के बारे में सब कुछ जाने लेने की इच्छा बढ़ने लगी तो उसने पूछा, ‘‘बाबा, आनन्द बाबू का व्यापार क्या है ?’’
‘‘कुछ पता नहीं बेटी।’’ भगतराम ने पत्रिका बंद की और सुधा की रुचि में रुचि लेते हुए बोले, ‘‘जो हम पर इतना दयालु है उसकी व्यक्तिगत बातें पूछते हुए भी तो डर लगता है।’’
सुधा एक पल चुप रही। परन्तु उसका दिल जाने क्यों अपने देवता के बारे में सब कुछ जानने के लिए अधीर हुआ जा रहा था। जब मानव को भगवान मिल जाता है तो मानव भगवान की बिल्कुल सही तस्वीर को अपने दिल के अन्दर उतार लेना चाहता है। उसने पूछा, ‘‘अच्छा बाबा, आनन्द बाबू जितने दयालु हैं क्या देखने में भी वैसे ही लगते हैं ?’’
‘‘उससे भी अच्छे लगते हैं।’’ भगतराम ने कहा, आनन्द बाबू का व्यक्तित्व उनके दिल का दर्पण है।’’ एक पल के लिए भगतराम का दिल चाहा कि वह सुधा के समक्ष आनन्द की वास्तविकता व्यक्त कर दें। परन्तु अभी उचित समय नहीं आया था। सुधा के दिल में अपने देवता के लिए कितनी ही श्रद्धा हो, परन्तु इससे कहीं अधिक घृणा वह अपने पापी से करती थी। यदि सुधा को आनन्द की वास्तविकता ज्ञात हो गई तो वह उसके द्वारा अपनी आंखों का आपरेशन भी नहीं करायेगी। आंखों के आपरेशन के बाद भी यदि उसे आनन्द की वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो वह अपनी आंखें फोड़ डालेगी और तब एक अच्छा-बड़ा तूफान खड़ा हो जायेगा। फिर वह अपने पापी के साथ उससे भी घृणा करने लगेगी। वह उस व्यक्ति का अहसान किस प्रकार ले सकती है जिसके सर उसके पति की हत्या है, जो उसकी सारी बरबादियों का जिम्मेदार है ? पाप का दण्ड यदि पैसे से चुकाया जाता तो इस संसार में सभी पापियों को मुक्ति मिल जाती। उन्हें अपना पहले का विचार उचित ही लगा। सुधा की आंखों का आपरेशन कभी न हो तथा आनन्द की वास्तविकता सदा भेद में रहे। इसी में सबकी भलाई है। उन्होंने खामोशी धारण कर ली।

