किंशु को बार-बार कार्टून चैनल बदलते देख दादा-दादी समझ गए कि वह अब इससे भी बोर हो गया है। अपने बेटे-बहू और 8 वर्षीय पोते को इतने गौर से देखने-समझने का यह उनका पहला अवसर था। हमेशा तो हम तीनों की व्यस्तता देख वे हमारे आग्रह के बावजूद एक-दो सप्ताह से ज्यादा रुकने का मन नहीं बना पाते थे, पर इस बार तो कोरोना की त्रासदी और उसके चलते घोषित लॉकडाउन ने उनके क्या सबके पांवों में बेड़ियां डाल दी थीं। विपुल और मेरे पास तो वर्क फ्रॉम होम था, किंतु किंशु की तो स्कूल, रॉबी क्लास सब बंद हो चुका था।
लोकेलिटी में बाई-कुक, बाहर से खाना सब निषिद्ध हो गया है। इधर किंशु चौबीसों घंटे घर पर, तिस पर पापाजी-मम्मीजी भी अब तो जाने कब तक यहीं रहेंगे, समझ नहीं आ रहा कैसे सब मैनेज होगा? ‘मंथ एंड है, मुझ पर तो ऑफिस का वर्कलोड ही बहुत है… रात्रि के एकांत में मैं पति से अपनी चिंता शेयर कर रही थी। बेडरूम के बाहर पदचाप हुई तो मेरी जिह्वïा को विराम लगा।
‘किंशु कहानी सुनते-सुनते इधर हमारे पास ही सो गया है। उसका इंतजार मत करना।
‘ठीक है मम्मी! बेडस्विच ऑफ कर विपुल करवट बदलकर सो गया तो मैंने भी जाना ही उचित समझा।
सवेरे आंखें मलती मैं रसोई में पहुंची तो पाया ताजा दूध उबाला जा चुका था और चाय भी तैयार थी।
‘अरे मम्मीजी, आपने क्यों तकलीफ की?
‘क्यों हमारा घर नहीं है यह? हम बूढ़ों की तो सवेरे उठने की आदत होती है। मैं तो सब्जी भी काटने वाली थी। तुम्हारे पापाजी ने कहा कल से बहू से पूछकर रखना कि कौनसी सब्जी बनेगी?
‘क्यों, मुझसे क्यों पूछना होगा? आपका घर नहीं है यह?
‘वाह! इसे कहते हैं विरोधी को उसी के दांव से चित्त करना। पापाजी ने प्रशंसा की तो मेरे दिमाग में बिजली कौंधी।
‘पापाजी, किंशु हिन्दी में कमजोर है। क्या इन छुट्टियों में आप उसे…
‘हां…हां… बिल्कुल!
दादा-दादी के सानिध्य में किंशु ही नहीं मैं और विपुल भी बहुत कुछ सीख रहे थे। घर में उपलब्ध वस्तुओं से ही सुस्वादु पौष्टिक खाना बनाना मैंने सीखा तो इस्तरी, नल आदि ठीक करना विपुल ने। दादा-दादी ने हमसे लेपटॉप चलाना, ऑनलाइन काम निबटाना सीखा। पोर्च में खेलते किंशु का रैकेट टूटा तो दादा ने मजबूत धागे से उसकी जालियां बांधकर फिर खेलने लायक बना दिया। उसके बढ़ते बाल आंखों में आने लगे तो दादी ने इलास्टिक डालकर सुंदर सा हेयरबैंड सिल दिया।
‘अरे वाह, तू तो इसमें हीरो लग रहा है। काश मेेरे सिर पर भी बाल होते तो मैं भी ऐसा हेयरबैंड लगाता। दादा ने छेड़ा।
‘पर मेरे तो हैं, मम्मी मेरे लिए भी बनाओ। विपुल बच्चों की तरह ठुमकने लगा।
‘इसे कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है। किंशु ने चिहुंकते हुए बताया तो उसके हिन्दी ज्ञान ने सबको चौंका दिया। ‘क्या लॉकडाउन समाप्त होने पर आप लोग चले जाओगे?Ó किंशु के मासूम सवाल के साथ हमारी आशंकित निगाहें भी स्वयं पर जमी देख दादा-दादी भावातिरेक से अभिभूत हो गए। रिश्तों के समीकरण कैसे बदल जाते हैं।
‘एकबारगी तो लौटना होगा। पर जल्दी आएंगे और ज्यादा दिनों के लिए। उनके रुंधे स्वर ने सबकी आंखें नम कर दीं।
आसमां से विधाता भी अपनी इस कृति (इंसान) को देख निहाल हो रहा था। ‘विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी सकारात्मक और आशावादी बने रहकर तू विजयी हो ही जाता है। धन्य है तू!
