Mysterious Story: “लावणी… मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं…. तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा….!”ठाकुर वीरप्रताप ने लावणी के दोनों हाथों को जोर से पकड़ते हुए कहा।
लेकिन लावणी तो कहीं किसी सोच में गुम थी।
ठाकुर वीर प्रताप सिंह की आवाज उसके कानों में जा ही नहीं रही थी। ठाकुर वीर प्रताप ने उसके चेहरे को देखा
” लावणी… लावणी….!!!” वीरप्रताप ने उसे झिंझोरते हुए कहा।
” जी..जी…!,लावणी जैसे होश में आई।उसने कहा
“वो…छोटे ठाकुर सा…!”
” फिर वही बात!, मैंने हजारों बार कहा है तुम मुझे छोटे ठाकुर और सा कभी नहीं बोलोगी। मेरा नाम वीरप्रताप है तुम मुझे मेरे नाम से बुलाओगी।
…और तुम किन खयालों में थी!”
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” छोटे ठाकुर सा…!,उई…गलती हो गई… वीर जी, अब हमें ख्याल आ रहा है हम ने कितने बड़े गलती की !
आपके बाबा सा हमें जिंदा जला देंगे।”
” भला क्यों?”
” कहां आप भावनगर के ठाकुर के इकलौते बेटे और हम एक छोटे से दुकानदार की बेटी… हमारा कहां मेल!”
“यह यह क्या कह रही हो?, वीरप्रताप ने ठहाके लगाते हुए कहा।
“लेकिन…!
” लेकिन लेकिन… कुछ नहीं! अब मैं तुम्हें अपनी लुगाई बना कर ही दिखाऊंगा। देखना छोटे ठाकुर वीर प्रताप में कितनी ताकत है!”
यह कह कर वीरप्रताप ने लावणी को अपनी बाहों में भर लिया।
लावणी भी उसकी बाहों में पिघलती चली गई… सब कुछ भूल कर ..!
लावणी एक गरीब दुकानदार की बेटी थी।उसके पिता का एक छोटा सा किराने का दुकान था,जिसे लावणी के पिता रामकिशन चलाते थे।
उसी से लावणी के पूरे परिवार का भरण पोषण होता था।
लावणी पढ़ने में तेज होशियार थी। पढ़ाई के अलावा स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लिया करती थी, जिसके कारण भावनगर के ठाकुर के बेटे वीर प्रताप की नजर उसपर पड़ गई थी… और फिर…उसके प्यार में पड़ गई थी।
एक दिन वीर प्रताप सिंह अपने दल बल के साथ रामकिशन के घर में पहुंच कर बेटी का हाथ मांग लिया।
गरीब रामकिशन के पास छोटे ठाकुर के प्रस्ताव को नकारने की हिम्मत भी नहीं थी।
नतीजा यह हुआ कि एक मंदिर में फेरे दिलवाकर उसने अपनी बेटी को विदा कर दिया।
लावणी वीरभद्र की पत्नी बनकर भावनगर से दूर उसकी हवेली में पहुंच गई थी।
लावणी को अपनी किस्मत पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन द्वार पर खड़ी औरतों की टोली जो आरती का थाल लिए उसका इंतजार कर रही थी,वह सच था।
एक नई बहू की तरह उसकी आरती उतारी गई फिर उसे आलते की थाल में पैर रखकर अंदर अंदर ले जाया गया।
लावणी अपनी किस्मत पर इतराने जा रही थी तभी उस के कान में औरतों को बात सुनाई दी।
वे लोग आपस में बातें कर रही थी …इस बार छोटे ठाकुर फिर नई उठाकर ले आया।
एक को तो मार दिया, दूसरी कहां गई कुछ पता ही नहीं…अब वह इसके साथ मजे करेगा..फिर इसे भी ठिकाने लगा देगा!”
यह सुनते ही लावणी को चक्कर आ गया। रात में फूलों से सजे बिस्तर पर अपने आपको न्योछावर करते हुए भी लावणी का मन घृणा से भर उठा।
उसने वीरप्रताप की आँखों में झांकते हुए पूछा
“आखिर मुझमें क्या योग्यता दिखी थी कि आपने मुझसे ब्याह कर लिया।
वीरप्रताप ने उसे टालते हुए कहा
” अभी मुझे तुममें खोने दो… यह सब बातें बाद में हो जाएगी।”
कुछ दिन और बीत गए।हवेली के ऊपरी भाग के कमरों में ताला लगा हुआ था।
लावणी ने इसके बारे में वीरप्रताप से पूछा तो वह टाल गया।उसने नाराजगी से कहा
“लावणी, अपने आप में रहा करो।यहां की चीजों को ज्यादा छेड़छाड़ मत करना!” यह कहकर वह जल्दबाजी में वहां से चला गया।
धीरे धीरे लावणी ने वहां मौजूद नौकर चाकरों से पता लगा लिया था कि छोटे ठाकुर की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई थी और दूसरी पत्नी रातोंरात कहां गई उसका कुछ पता नहीं चला…!
यह सब सुन कर लावणी घबरा गई।
हवेली की एक नौकरानी चंपा बाई लावणी को बहुत ही प्यार करने लगी थी।
वह यह जानती थी कि वीरप्रताप इसका भी वही हश्र करेगा।
वह उसकी मदद करना चाहती थी।लावणी ने उससे कहा
” काकी सा,मुझे वीरप्रताप की लापता पत्नी के बारे में जानना है…,उसके कमरे में जाना है!”
चंपाबाई धीरे से बोली
“बाहर से निकलकर सीढ़ियों से होकर जाना पड़ता है,बड़ी बहुरिया नू कमरे में.. पर ठाकुर सा उसमें ताला लगा कर रखते हैं!”
“ऐसा क्या है उसमें!, लावणी ने कहा.. मुझे जानना है!”
चंपाबाई ने कहा
“मैं दरवाजा खोल दूंगी जब झाड़ू पोछा होता है, आप चुपके से वहां चले जाना।”
” ठीक है!, लावणी ने कहा।
एक दिन जब घर पर कोई नहीं था। चंपाबाई ने कमरा खोल दिया।
लावणी चुपके से उस कमरे में पहुंची। आलिशान कमरा था..,बड़े बड़े सोफे, बिस्तर… शीशे लगे हुए आलमारी।
उसी में एक नई दुल्हन के साथ वीरप्रताप भी दूल्हा बनकर खड़ा था।
उसे देख लावणी रो पड़ी।
“कितना कमीना इंसान है…!अपनी हवस मिटाने के लिए इसने छल किया है मेरे साथ!”
वह इधर उधर कुछ तलाश रही थी तभी उसकी नजर कमरे के बीचोंबीच रखे हुए आदम कद शीशे में पड़ी।
लावणी उस आइने में अपना प्रतिबिंब देखने लगी।
तभी किसी ने उसे आवाज दिया…” लावणी..!”
लावणी डर गई। वह इधर-उधर देखने लगी।
” इधर देखो सामने !”
आइने में वही औरत थी, जिसकी तस्वीर पीछे लगी हुई थी।
“आप…तो वहीं हैं ना!”लावणी ने अपनी उंगलियों से इशारा किया।
“हाँ, मैं वही हूँ, सुगंधा…! लावणी…मेरी आत्मा भटक रही है!
यह जो कुछ दिख रहा है,वह सब झूठ है।
ठाकुर एक नंबर का कुटिल और चरित्रहीन व्यक्ति है। यहां उसका अपना राज चलता है…उसके अपने नौकर है और बाकी खरीदे हुए लोग!
वह जो भी बोल रहा है झूठ बोल रहा है। तुम्हें फंसा रहा है। जब तुमसे तो फिर मन भर जाएगा फिर तुम्हारा वही हाल करेगा जो उसने मेरा किया है!”
लावणी गुस्से से तिलमिला उठी।
“सुगंधा दीदी, आप आईने से बाहर आओ,मैं आपको न्याय दिलाउंगी।”
तभी आइने से दो आँखें चमकी और लावणी दूर छिटक कर गिर पड़ी।
अब उस आईने में कोई भी नहीं था… लावणी सोफे पर गिरी पड़ी सोच रही थी …उसने जो कुछ अभी देखा वह उसका भ्रम था या सच था!
कुछ देर तक कमरे में बैठी हुई वह सोचती रही फिर वह चुपके से उतर कर अपने कमरे में आ गई।
काफी दिनों तक विचार करने के बाद लावणी ने यह तय किया कि वह सुगंधा के शरीर को तलाश करेगी और फिर उस का अंतिम संस्कार कराएगी!
पर वहां सच ढूढ़ना मुश्किल था।
देखते ही देखते एक महीना बीत गया और लावणी को कोई भी सिरा पकड़ नहीं आया।
एक दिन बहुत जोरों की बारिश हो रही थी।
वीर प्रताप काफी दिनों से दूसरे शहर में था।
सब अपने कमरे में थे।लावणी ने चंपाबाई से सुगंधा के कमरे का दरवाजा खोलने कहा।
वह आईने के पास जाकर खड़ी हो गई।
उसने कहा
” बड़ी दीदी सा… यदि आप हमारी मदद नहीं करेंगी तो हम आपकी मदद नहीं कर पाएंगे!”
आईने से कोई आवाज नहीं आई।
लावणी थोड़ी देर तक खड़ी रही फिर निराश होकर वह लौटने लगी। तब उसे फिर से आवाज आई
“लावणी, गुलाब के बगीचे में जाकर देखो!”
बारिश जोरदार थी।
लावणी पिछवाड़े के गुलाब के बगीचे में पहुची। वहां गुलाब की क्यारियां लगी थीं।उनके किनारे आमों के पेड़ थे।
उसने ध्यान से देखा आम के पेड़ के नीचे की मिट्टी अभी भी थोड़ी नरम सी थी।
अभी भी एक फावड़ा वहां पड़ा हुआ। उसने आव देखा ना ताव फावड़ा लेकर जमीन को खोदना शुरू किया…!
काफी देर तक जमीन को खोदने के बाद एक बैग हुआ था… उसने उस बैग को खींचकर बाहर निकाला
एक सड़ी लाश के सिर्फ नर कंकाल ही शेष थे….!!!
यह देखकर लावणी रो पड़ी।
उसने हवेली के नौकरों को बुलाया और लाश के अंतिम संस्कार के लिए कहा।
कंकाल का अंतिम संस्कार करने के बाद उसने ब्राह्मणों को भोज भी कराया।
लगभग दो हफ्ते बाद वीरप्रताप वापस लौटा। सारी सच्चाई जानने के बाद वह घबरा गया।
लावणी ने अपने सारे आभूषण उतार कर एक डिब्बे में रखकर वीरप्रताप को देते हुए बोली
” छोटे ठाकुर सा,यह लो आपकी सारी अमानत…!आपका मन तो भर गया होगा मुझसे!
मैं जाती हूं… अपनी पढ़ाई पूरी करने…!!”
” पर ऐसे कैसे…!!” वीरप्रताप थोड़ा घबराया।
” ठाकुर सा हर कोई बड़ी दीदी सा जैसी किस्मत वाली नहीं होती कि उसे अंतिम सद्गति देने के लिए कोई आ जाए…मैं ने तो उनकी श्रद्धांजलि दे दी… मुझे कौन देगा…!,
अब मैं मिलूंगी पढ़लिख कर कामयाब होने के बाद…तब तुम्हारे हाथों में हथकडियां लगाउंगी।”
वीरप्रताप शर्मिंदा हो गया।उसने कहा
” मुझे माफ कर दो!”
“नहीं ठाकुर सा आपकी कोई गलती नहीं है, गलती तो हमारी है! हम छोटे लोग ऊंचे सपने देखेंगे तो उनका अंत ऐसा ही होगा!”
जाने से पहले लावणी सुगंधा के कमरे में गई। आज आईना बिल्कुल शांत था।
उसे मुक्ति मिल गई थी..मरने के बाद… लावणी भी को भी मुक्ति मिल गई जीतेजी…!
