svarg kee devee by munshi premchand
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भाग्य की बात! शादी-विवाह में आदमी का क्या अख्तियार। जिससे ईश्वर ने, या उसके नायबों-ब्राह्मणों-ने तय कर दी, उससे हो गई। बाबू भारतदास ने लीला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोई कसर नहीं उठा रखी। लेकिन जैसा घर-वर चाहते थे, वैसा न पा सके। वह लड़की को सुखी देखना चाहते थे, जैसा हर एक पिता का धर्म है, किन्तु इसके लिए उनकी समझ में सम्पत्ति ही सबसे जरूरी चीज थी। चरित्र या शिक्षा का आजकल के जमाने में मूल्य ही क्या है? सम्पत्ति के साथ शिक्षा भी हो, तो क्या पूछना! ऐसा घर उन्होंने बहुत ढूंढ़ा, पर न मिला। ऐसे घर हैं ही कितने, जहाँ दोनों पदार्थ मिलें? दो-चार घर मिले भी तो अपनी बिरादरी के न थे। बिरादरी भी मिली, तो जायजा न मिला, जायजा भी मिला, तो शर्तें तय न हो सकीं। इस तरह मजबूर होकर भारतदास को लीला का विवाह लाला संतसरन के लड़के सीतासरन से करना पड़ा। अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोड़ी-बहुत शिक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले-मुकदमे समझता था और जरा दिल का रंगीला भी था। सबसे बड़ी बात यह थी कि रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्न-मुख, साहसी आदमी था, मगर विचार वही बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी जितनी बातें हैं, सब अच्छी, नई जितनी बातें हैं, सब खराब। जायदाद के विषय में जमींदार साहब नए-नए दफों का व्यवहार करते थे, वहाँ अपना कोई अख्तियार न था, लेकिन सामाजिक प्रथाओं के कट्टर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते या कहते देखता, वही खुद भी कहता और करता। उसमें खुद सोचने की शक्ति ही न थी। बुद्धि की मंदता बहुधा सामाजिक अनुदारता के रूप में प्रकट होती है।

लीला ने जिस दिन घर में पाँव रखा, उसी दिन उसकी परीक्षा शुरू हुई। वे सभी काम, जिसकी उसके घर में तारीफ होती थी, यहाँ वर्जित थे। उसे बचपन से ताजी हवा पर जान देना सिखाया था, यहाँ उसके सामने मुँह खोलना भी पाप था। बचपन से सिखाया गया था कि रोशनी जीवन है, यहाँ रोशनी के दर्शन भी दुर्लभ थे। घर पर अहिंसा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताए गए थे, यहाँ इसका नाम लेने की भी स्वाधीनता न थी। संतसरन बड़े तीखे, गुस्सेवर आदमी थे, नाक पर मक्खी न बैठने देते। धूर्तता और छल-कपट से ही उन्होंने जायदाद पैदा की थी और उसी को अपने जीवन का मंत्र समझते थे। उनकी पत्नी उनसे भी दो अंगुल ऊँची थीं। मजाल क्या कि बहू अपनी अँधेरी कोठरी के द्वार पर खड़ी हो जाये या कभी छत पर टहल सके। प्रलय आ जाता, आसमान सिर पर उठा लेतीं। उन्हें बकने का मर्ज था। दाल में नमक का जरा तेज हो जाना, उन्हें दिन-भर बकने के लिए काफी बहाना था। मोटी-ताजी महिला थीं, छींट का घाघरेदार लहँगा पहने, पानदान बगल में रखे, गहनों से लदी हुई, सारे दिन बरोठे में माची कर बैठी रहती थीं। क्या मजाल कि घर में उनकी इच्छा के विरुद्ध एक पत्ती भी हिल जाये। बहू की नई-नई आदतें देख-देख जला करती थीं। अब काहे को आबरू रहेगी? मुंडेर पर खड़ी होकर झाँकती है। मेरी लड़की ऐसी दीदा-दिलेर होती, तो गला घोंट देती। न-जाने इसके देश में कौन लोग बसते हैं! गहने नहीं पहनती। जब देखो, नंगी-बुची बनी बैठी रहती है। यह भी कोई अच्छे लच्छन हैं। लीला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पड़ती। तुझे भी चाँदनी में सोना अच्छा लगता है, क्यों? तू भी अपने को मर्द कहेगा? यह मर्द कैसा कि औरत उसके कहने में न रहे। दिन- भर घर में घुसा रहता है। मुँह में जबान नहीं है? समझाता क्यों नहीं

सीतासरन कहता- अब, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो?

माँ- मानेगी क्यों नहीं, तू मर्द है कि नहीं, मर्द वह चाहिए कि कड़ी निगाह से देखे तो औरत काँप उठे।

सीतासरन- तुम तो समझाती ही रहती हो।

माँ- मेरी उसे क्या परवाह? समझती होगी, बुढ़िया चार दिन में मर जायेगी, तब मैं मालकिन हो ही जाऊंगी।

सीतासरन- मैं भी तो उसकी बातों का जवाब नहीं दे पाता। देखती नहीं हो, कितनी दुर्बल हो गई है। वह रंग ही नहीं रहा। उस कोठरी में पड़े-पड़े उसकी दशा बिगड़ती जाती है।

बेटे के मुँह से ऐसी बातें सुन, माता आग हो जाती और सारे दिन जलती, कभी भाग्य को कोसती कभी समय को।

सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बातें करता, लेकिन लीला के सामने जाते ही उसकी मति बदल जाती थी। वह वही बातें करता, जो लीला को अच्छी लगती। यहाँ तक कि दोनों वृद्धा की हँसी उड़ाते। लीला को इस घर में और कोई सुख न था। यह सारे दिन कुढ़ती रहती। कभी चूल्हे के सामने न बैठी थी, पर यहाँ पसेरियों आटा थोपना पड़ता, मजूरों और टहलुओं के लिए भी रोटियाँ पकानी पड़तीं। कभी-कभी वह तवे के सामने बैठी घंटों रोती। यह बात न थी कि यह लोग कोई महाराज-रसोइया न रख सकते हों, पर घर की पुरानी प्रथा यही थी कि बहू खाना पकाये और उस प्रथा का निभाना जरूरी था। सीतासरन को देखकर लीला का संतप्त हृदय एक क्षण के लिए शान्त हो जाता था।

गर्मी के दिन थे और संध्या का समय। बाहर हवा चलती भीतर, देह झुकती थी। लीला कोठी में बैठी एक किताब देख रही थी कि सीतासरन ने आकर कहा- यहाँ तो बड़ी गर्मी है, बाहर बैठो।

लीला- यह गर्मी उन तानों से अच्छी है, जो अभी सुनने पड़ेंगे।

सीतासरन- आज अगर बोली, तो मैं भी बिगड़ जाऊंगा।

लीला- तब तो मेरा घर में रहना भी मुश्किल हो जायेगा।

सीतासरन- बला से, अलग ही रहेंगे।

लीला- मैं तो मर भी जाऊँ, तो भी अलग न रहूँ। वह जो कुछ कहती-सुनती हैं, अपनी समझ से मेरे भले ही के लिए कहती-सुनती हैं। उन्हें मुझसे कुछ दुश्मनी थोड़े ही है। हां, हमें उनकी बातें अच्छी न लगें, यह दूसरी बात है। उन्होंने खुद वह सब कष्ट झेले हैं जो वह मुझे झेलवाना चाहती हैं। उनके स्वास्थ्य पर उन कष्टों का जरा, भी असर नहीं पड़ता। यह इस 65 वर्ष की उम्र में मुझसे कहीं टाँठी हैं। फिर उन्हें कैसे मालूम हो कि इन कष्टों रो स्वास्थ्य बिगड़ सकता है?

सीतासरन ने उसके मुरझाए हुए मुख की ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा- तुम्हें इस घर में आकर बहुत दुःख सहना पड़ा। यह घर तुम्हारे योग्य न था। तुमने पूर्व-जन्म में जरूर कोई पाप किया होगा।

लीला ने पति के हाथों से खेलते हुए कहा- यहाँ न आती, तो तुम्हारा प्रेम कैसे पाती?