svarg kee devee by munshi premchand
svarg kee devee by munshi premchand

पाँच साल गुजर गए। लीला दो बच्चों की माँ हो गई। एक लड़का था, दूसरी लड़की। लड़के का नाम जानकीसरन रखा गया और लड़की का नाम कामिनी। दोनों बच्चे घर को गुलज़ार किए रहते थे। लड़की दादा से हिली-मिली रहती थी, तो लड़का दादी से। दोनों शोख और शरीर थे। गाली दे बैठना, मुँह चिढ़ा देना तो उनके लिए मामूली बात थी। दिन-भर खाते और आये-दिन बीमार पड़े रहते। लीला ने खुद सभी कष्ट सह लिये थे, पर बच्चों में बुरी आदतों का पड़ना उसे बहुत बुरा मालूम होता था, किन्तु उसकी कौन सुनता था? बच्चों की माता होकर उसकी अब गणना ही न रही थी। जो कुछ थे, बच्चे थे। वह कुछ न थी। उसे किसी बच्चे को डाँटने का भी अधिकार न था, सास फाड़ खाती थी।

सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि उसका स्वास्थ्य अब और भी खराब हो गया था। प्रसव-काल में उसे ये सभी अत्याचार सहने पड़े, जो अज्ञान, मूर्खता और अंधविश्वास ने सौर की रक्षा के लिए गढ़ रखे हैं। उस काल-कोठरी में, जहाँ न हवा का गुजर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों ओर दुर्गंध, सील और गंदगी भरी हुई थी, उसका कोमल शरीर सूख गया। एक बार जो कसर रह गई थी, वह दूसरी बार पूरी हो गई। चेहरा पीला पड़ तथा, आंखें धँस गई। ऐसा मालूम होता, बदन में खून ही नहीं रहा। सूरत ही बदल गई।

गर्मियों के दिन थे। एक तरफ आम पके, दूसरी तरफ खरबूजे। इन दोनों फसलों की ऐसी अच्छी फसल पहले कभी न हुई थी। अबकी इनमें इतनी मिठास न-जाने कहां से आ गई थी कि कितना ही खाओ, मन न भरे। संतसरन के इलाके से आम और खरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर खूब उछल- उछल खाता था। बाबू साहब पुरानी हड्डी के आदमी थे। सवेरे एक सैकड़े आमों का नाश्ता करते, फिर पसेरी-भर खरबूजे चट कर जाते। मालकिन उनसे पीछे रहने वाली न थी। उन्होंने तो एक वक्त का भोजन ही बंद कर दिया। अनाज सड़ने वाली चीज नहीं। आज नहीं, कल खर्च हो जायेगा। आम और खरबूजे तो एक दिन भी नहीं ठहर सकते। शुदनी थी और क्या। यों ही हर साल दोनों चीजों की रेलमपेल होती थी, पर किसी को कभी कोई शिकायत न होती थी। कभी पेट में गिरानी मालूम तो हड़ की फेंकी मार ली। एक दिन बाबू संतसरन के पेट में मीठा- मीठा दर्द होने लगा। आपने उसकी परवाह न की। आम खाने बैठ गए। सैकड़ा पूरा करके उठे ही थे कि कै हुई। गिर पड़े। फिर तो तिल-तिल पर कै और दस्त…होने लगे। हैजा हो गया। शहर से डॉक्टर बुलाए गए, लेकिन उनके आने के पहले ही बाबू साहब चल बसे थे। रोना-पीटना मच गया। संध्या होते-होते लाश घर से निकली। लोग दाह-क्रिया करके आधी रात को लौटे, तो मालकिन को भी कै और दस्त हो रहे थे। फिर दौड़-धूप शुरू हुई, लेकिन सूर्य निकलते-निकलते वह भी सिधार गईं। स्त्री-पुरूष जीवन-पर्यन्त एक दिन के लिए भी अलग न हुए थे। संसार से भी साथ-साथ गये। सूर्यास्त के समय पति ने प्रस्थान किया, सूर्योदय के समय पत्नी ने।

लेकिन मुसीबत का अंत न हुआ था। लीला तो संस्कार की तैयारियों में लगी थी, मकान की सफाई की तरफ किसी ने ध्यान न दिया। तीसरे दिन दोनों बच्चे दादा-दादी के लिए रोते-रोते बैठके में जा पहुँचे। वहाँ एक आले पर खरबूजा कटा हुआ पड़ा था, दो-तीन कलमी आम और कटे रखे थे। इन पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। जानकी ने एक तिपाई पर चढ़कर दोनों चीजें उतार लीं और दोनों ने मिलकर खायी। शाम होते-होते दोनों को हैजा हो गया और, दोनों माँ-बाप को रोता छोड़, चल बसे। घर में अँधेरा हो गया। तीन दिन पहले जहाँ चारों तरफ चहल- पहल थी, वहाँ अब सन्नाटा छाया हुआ, किसी के रोने की आवाज भी सुनायी न देती थी। रोता ही कौन? ले-दे-के कुल दो प्राणी रह गए थे और उन्हें रोने की सुधि न थी।

लीला का स्वास्थ्य पहले भी कुछ अच्छा न था, अब तो वह और भी बेजान हो गई। उठने-बैठने की शक्ति भी न रही। हरदम खोयी-सी रहती, न कपड़े-लत्ते की सुधि थी, न खाने-पीने की। उसे न घर से वास्ता था, न बाहर से। जहाँ बैठती, वहीं बैठी रह जाती। महीनों कपड़े न बदलती, सिर में तेल न डालती। बच्चे ही उसके प्राणों के आधार थे। जब वही न रहे, तो मरना और जीना बराबर था। रात- दिन यही मनाया करती कि भगवान्! यहाँ से ले चलो। सुख-दुःख सब भुगत चुकी। अब सुख की लालसा नहीं है, लेकिन बुलाने से मौत किसी को आयी है?

सीतासरन भी पहले तो बहुत रोया-धोया, यहाँ तक कि घर छोड़कर भागा जाता था, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुजरते थे, बच्चों का शोक उसके दिल से मिटता जाता था। सन्तान का दुःख जो कुछ होता है माता ही को होता है। धीरे-धीरे उसका जी सँभल गया। पहले की भांति मित्रों के साथ हंसी-दिल्लगी होने लगी। यारों ने और भी चंग पर चढ़ाया। अब घर का मालिक था, जो चाहे कर सकता था। कोई उसका हाथ रोकने वाला न था। सैर-सपाटे करने लगा। कहीं तो लीला को रोते देख, उसकी आंखें सजल हो जाती थीं, कहाँ अब उसे उदास और शोकग्रस्त देख कर झुँझला उठता। जिन्दगी रोने ही के लिए तो नहीं है। ईश्वर ने बच्चे दिये थे, ईश्वर ही ने छीन लिये। क्या बच्चों के पीछे प्राण दे देना होगा? लीला यह बातें सुनकर भौंचक्की रह जाती। पिता के मुँह से ऐसे शब्द निकल सकते हैं? संसार में ऐसे प्राणी भी हैं?

होली के दिन थे। मर्दाने में गाना-बजाना हो रहा था। मित्रों की दावत का भी सामान किया गया था। अंदर लीला जमीन पर पड़ी हुई रो रही थी। त्यौहारों के दिन उसके रोते ही कटते थे। आज बच्चे होते, तो अच्छे-अच्छे कपड़े पहने कैसे उछलते-फिरते! वही न रहे, तो कहाँ की तीज और कहाँ के त्यौहार।

सहसा सीतासरन ने आकर कहा- क्या दिन-भर रोती ही रहोगी ? जरा कपड़े तो बदल डालो, आदमी बन जाओ। यह क्या तुमने अपनी गत बना रखी है?

लीला- तुम जाओ अपनी महफ़िल में बैठो, तुम्हें मेरी क्या फिक्र पड़ी है।

सीतासरन- क्या दुनिया में और किसी के बच्चे नहीं मरते? तुम्हारे ही सिर यह मुसीबत आयी है?

लीला- यह बात कौन नहीं जानता? अपना-अपना दिल ही तो है। उस पर किसी का बस है?

सीतासरन- मेरे साथ भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है?

लीला ने कौतूहल से पति को देखा, मानो उसका आशय नहीं समझी। फिर मुँह फेरकर रोने लगी।

सीतासरन- मैं अब इस मनहूसियत का अंत कर देना चाहता हूँ। अगर अपने दिल पर काबू नहीं है, तो मेरा भी अपने दिल पर काबू नहीं है। मैं अब जिंदगी-भर मातम नहीं मना सकता।

लीला- तुम राग-रंग मनाते हो, मैं तुम्हें मना तो नहीं करती! मैं रोती हूँ तो क्यों नहीं रोने देते?

सीतासरन- मेरा घर रोने के लिए नहीं है।

लीला- अच्छी बात है, तुम्हारे घर में न रोऊंगी।

लीला ने देखा, मेरे स्वामी मेरे हाथों से निकले जा रहे हैं। उन पर विषय का भूत सवार हो गया है और कोई समझाने वाला नहीं। वह अपने होश में नहीं हैं। मैं क्या करूँ? अगर मैं चली जाती हूँ तो थोड़े ही दिनों में सारा घर मिट्ठी में मिल जायेगा और इनका वही हाल होगा, जो स्वार्थी मित्रों के चंगुल में फंसे हुए नौजवान युवकों का होता है। कोई कुलटा घर में आ जायेगी और इनका सर्वनाश कर देगी। ईश्वर! मैं क्या करूँ? अगर इन्हें कोई बीमारी हो जाती, तो क्या मैं उस दशा में इन्हें छोड़कर चली जाती? कभी नहीं। मैं तन-मन से इनकी सेवा- शुश्रूषा करती, ईश्वर से प्रार्थना करती, देवताओं की मनौतियाँ करती। माना इन्हें शारीरिक रोग नहीं है, लेकिन मानसिक रोग अवश्य है। जो आदमी रोने की जगह हँसे और हँसने की जगह रोए, उसके दीवाना होने में क्या सन्देह है! मेरे चले जाने से इनका सर्वनाश हो जायेगा। इन्हें बचाना मेरा धर्म है।

हां, अपना शोक भूल जाना होगा। रोना, रोना तो तकदीर में लिखा ही है, लेकिन हँस-हँसकर। अपने भाग्य से लडूंगी। जो जाते रहे, उनके नाम को रोने के सिवा और कर ही क्या सकती हूँ लेकिन जो है उसे न जाने दूँगी। आ, ऐ टूटे हुए हृदय! आज तेरे टुकड़ों को जमा करके एक समाधि बनाऊं और अपने शोक को उसके हवाले कर दूँ। ओ रोने वाली आँखें, आओ और मेरे आँसुओं को अपनी विहंसित छटा में छिपा लो। आओ मेरे आभूषणों, मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारा अपमान किया, मेरा अपराध क्षमा करो। तुम मेरे भले दिनों के साथी हो, तुमने मेरे साथ बहुत विहार किए हैं, अब इस संकट में मेरा साथ दो, मगर देखो, दगा न करना, मेरे भेदों को छिपाए रखना!

लीला सारी रात बैठी अपने मन से यही बातें करती रही। उधर मर्दाने में धमा-चौकड़ी मची हुई थी। सीतासरन नशे में चूर कभी गाता था, कभी तालियाँ बजाता था। उसके मित्र लोग भी उसी रंग में रँगे हुए थे। मालूम होता था, इनके लिए भोग-विलास के सिवा और कोई काम नहीं है।

पिछले पहर को महफिल में सन्नाटा हो गया। हू-हा की आवाजें बंद हो गई। लीला ने सोचा, क्या लोग कहीं चले गये, या सो गए? एकाएक सन्नाटा क्यों छा गया। जाकर देहली पर खड़ी हो गई और बैठक में झाँककर देखा, सारी देह में एक ज्वाला-सी दौड़ गई। मित्र लोग विदा हो गए थे। समाजियों का पता न था। केवल एक रमणी मसनद पर लेटी हुई थी और सीतासरन उसके सामने झुका हुआ उससे बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहा था। दोनों के चेहरों और आँखों से उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे। एक की आँखों में अनुराग था, दूसरी की आँखों में कटाक्ष। एक भोला-भाला हृदय एक मायाविनी के हाथों लुटा जाता था। लीला की सम्पत्ति को उसकी आंखों के सामने एक छलिनी चुराए लिये जाती थी।

लीला को ऐसा क्रोध आया कि इसी समय चलकर इस कुलटा को आड़े हाथों लूँ ऐसा दुत्कारुं कि वह भी याद करे, खड़े-खड़े निकाल दूँ। वह पत्नी- भाव जो बहुत दिनों से सो रहा था, जाग उठा और उसे विकल करने लगा, पर उसने जब्त किया। वेग से दौड़ती हुई तृष्णाएं अकस्मात् न रोकी जा सकती थीं। वह उलटे पाँव भीतर लौट आयी और मन को शान्त करके सोचने लगी-वह रूप- रंग में, हाव-भाव में, नखरे-तिल्ले में उस दुष्टा की बराबरी नहीं कर सकती। बिलकुल चाँद का टुकड़ा है, अंग-भंग में स्फूर्ति भरी हुई है, पोर-पोर में मद छलक रहा है। उसकी आँखों में कितनी तृष्णा है, तृष्णा नहीं, बल्कि ज्वाला! लीला उसी वक्त आईने के सामने गयी। आज कई महीनों के बाद उसने आईने में अपनी सूरत देखी। उसके मुख से एक आह निकल गई। शोक ने उसकी कायापलट कर दी थी। उस रमणी के सामने यह ऐसी लगती थी, जैसे गुलाब के सामने जूूही का फूल।