गूलर के फूल-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Gooler ke Phool

Hindi Kahani: विमल ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था।
“हेलो!” उधर से पत्नी की बिलखती हुई आवाज आई।
वह एक जूते का फीता बाँध चुका था। दूसरे जूते का फीता अज्ञात भय से उसके हाथ से छूट गया। काँपते हुए उसने कहा, “हाँ, कहो नीलम? क्या बात है?”
“म् म् मम्मी..।”
“हाँ हाँ मम्मी.. बोलो क्या हुआ?”
“मम्मी नहीं रहीं!”
“क्या?” उसके श्रवणेन्द्रिय में जैसे किसी ने फेवीकोल डाल दिया हो। फोन चिपक गया कानों से, हाथ वहीं रुक गया। सम्पूर्ण शरीर जड़वत हो गया।
बड़ी मुश्किल से थोड़ी देर बाद स्वयं को संभालकर उसने प्रश्न किया, “कब?”
दूसरी ओर रुलाई अब भी जारी थी।
“सम्हालो स्वयं को।”
“क्या करूँ विमल, हृदय में धीर ही नहीं बँधता है।” नीलम कठिनता से बोल पाई।
“शाम को तो तुम बता रही थी कि वह ठीक हैं!” विमल ने फिर वही सवाल दुहरा दिया।
“कहाँ हो तुम?”
“घ् घर पर।“ वह हकलाकर बोला।
“ठीक है, फौरन चल आओ।“
“हाँ, आ रहा हूँ, बस बॉस को इन्फार्म कर दूँ।”
उसने अँगूठा लगाकर मोबाइल का लॉक खोला और टूँऽ-टूँऽ-टूँऽ मोबाइल स्क्रीन पर नम्बर डायल करने लगा। पर अचानक विचारों की करवट ने अंगुलियाँ थाम दी उसकी। वह बॉस को फोन नहीं करेगा, केवल व्हाट्सएप से छुट्टी का मैसेज भेज देगा उन्हें। बॉस तमाम तरह के बहाने बनाकर उसे रोकने की कोशिश करेंगे। लेकिन अब वह जाएगा; नौकरी और बॉस जाए भाड़ में! अंतिम दरस को भी..नहीं अब वह नहीं रुकेगा, अब वह अवश्य जाएगा।

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इस बॉस और नौकरी ने तो उसको स्वार्थ के साठ हाथ तले जमीन में गाड़ दिया। रोती रही सास, बिलखती रही बेवा, दामाद से मिलने की आस हृदय में सँजोए हुए प्यासी आँखें इस संसार से स्वर्ग सिधार गईं…किंतु वह उनसे मिलने न जा पाया।
सप्ताह भर पहले जैसे छोटे साले ने उनके बीमार होने की सूचना फोन कर दी, उसने पत्नी को तुरंत अस्पताल भेज दिया। लेकिन स्वयं बॉस के चक्कर में आजकल-आजकल कहकर टालमटोल करता रहा। डॉक्टर ने चार दिन हर सम्भव उपचार करके कह दिया, “घर ले जाकर माँ को खिलाओ-पिलाओ, सेवा सत्कार करो। जो कुछ कहें इनकी वह इच्छा पूरी करने का यत्न करो। अंतिम समय है, महीना पार नहीं कर पाएँगी।”
वे अस्पताल से घर आ गईं। सारे नाते-रिश्तेदार आकर मिल गए। किन्तु वह ऑफिस में कंप्यूटर के की-बोर्ड से खेलते हुए खाली समय तलाशता रहा।
मन में बवंडर मचा तो हृदय रो उठा उसका। आँखों में आँसू उमड़ आए। दो बेटे और एक बेटी की माँ जीवन भर उम्मीद की बाट जोहती रही लेकिन आशा हरजाई गूलर के फूल की तरह कभी न फूली।
चार भाई-बहनों वाले घर में उर्मिला देवी ने जन्म लिया तो विपन्नता गोद में लेने के लिए बन-ठनके तैयार बैठी थी। जहाँ सुबह से शाम तक किसी प्रकार ठंडे चूल्हे को सुलगाकर पेट की अग्नि शांत करने की जद्दोजहद थी। तनिक होशियार हुई तो अभावों ने आसरे की अँगुली थमा दी। सुख-दुःख, अमीरी-गरीबी जीवन रूपी गाड़ी के पहिए हैं जो क्रमशः चलते रहते हैं। पहले सुख तो बाद में दुःख, पहले दुःख तो बाद में सुख। इस मृत्युलोक में आने वाले हर प्राणी को सुख-दुःख भोगना निश्चित है। भगवान राम, कृष्ण और भगवती सीता नहीं बच पाईं इस फेर से तो… बड़े-बूढ़ों के मुख से प्रकटे ज्ञान ने उनके मन में आस की ज्योति जला दी। मायके में विपन्नता है तो ससुराल में अवश्य सुख, सम्पन्नता मिलेगी। दृढ़ मन से आशा की खूँट थामे सोलहवें वर्ष वे ससुराल आ गईं।
ससुराल में पाँच-पाँच सास और ससुर, भारी-भरकम परिवार था; जहाँ पहले ही अस्तित्व, अधिकार व अभावों के मध्य संघर्ष छिड़ा हुआ था। वे अभी कुछ समझ भी नहीं पाई थीं कि तब तक सगी सास ने ज्येष्ठ बहू का धर्म सिखाते हुए अरमानों पर पाबंदियों और मुख पर जिम्मेदारियों के ताले जड़ दिए, “तुम इस घर की सबसे बड़ी बहू हो। तुम्हें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। तुम्हारा चाल-व्यवहार ही आने वाली परिवार की अन्य बहुओं के रास्ते का पत्थर बनेगा।”
वे अर-अराकर ढंग से ढह भी न सकीं। आरंभ में मन मलिन हुआ किंतु सुलझे हुए, विशाल सोच के परिश्रमी पति के निश्चल प्रेम ने दूसरे ही पल विश्वास के उस पार आसरे के दीप में और तेल डाल दिया। मन की सारी दुर्बलता त्याग कर वह दायित्वों का बोझ उठाकर आसरे की राह चल पड़ीं।
वे रम गईं अपनी गृहस्थी में अभावों और सास-ससुर के तानों, प्रताड़नाओं को बिसारती हुईं। पति पंजाब जाकर धनार्जन करने लगे और वे घर में लक्ष्मी को सहेजने लगीं। परिश्रम ने रंग दिखाया, दूर स्थित आस के दीपक की मद्धिम-मद्धिम रोशनी अब दिखलाई पड़ने लगी। समय ने क्रमशः पुत्र, पुत्री और फिर पुत्र, तीन फूल आँचल में डाल दिए उनके। माँ बनते ही उनके कंधे पर जिम्मेदारियों का बोझ और बढ़ गया लेकिन इसी दायित्व बोध ने आस के दीप को और सन्निकट ला दिया। तीन-तीन हृष्ट-पुष्ट संतान, आशा का दीपक क्या, अब तो आसमान के सारे तारे उनके हुए। मन तनिक वास्तविक और अधिक काल्पनिक सुख का संसर्ग पाकर फूल उठा।
बाल-बच्चों को खेते-पखेते, पारिवारिक जिम्मेदारियों के मध्य वे सुनहरे कल की कल्पनाओं में डूबी नौका सी लहरा कर चल रही थीं। तभी एकाएक वह हुआ जिसकी कल्पना निर्दयी दुःखों ने भी न की थी। हृदयाघात ने पति को छीन लिया। गृहस्थी के हाथों की मेहंदी मिटी भी न थी कि जीवन को तुषार की साटिका ओढ़ाने के लिए सुबह परदेश से पति की लाश ले आया। उषा ढंग से विदा भी न हुई थी, सूर्य-रश्मियाँ पाँवों में पायल बाँध ही रही थीं कि रोना-पीटना मच गया। आगत तूफान से अनभिज्ञ उर्मिला देवी भीतर चूल्हे में उपले सुलगा रही थीं। द्वार पर रोना सुनकर वे लकड़ियों को सुलगते उपले पर हाली-हाली रखने लगीं। तब तक बड़ा बेटा पास आकर चिल्लाया, “मम्मीऽऽ!”
अचानक बेटे की आवाज पर वे हड़बड़ा गईं। हाथ कँपा, लकड़ियाँ हिलीं और चूल्हे के सिरहाने पर रखी बटुलोई का सारा पानी चूल्हे में भर गया। उनके मुख से कुछ निकलता तब तक बेटा फिर चीखा, “मम्मी! पापा को देखोऽऽ!”
“पापा? कहाँ? वह तो…।” किसी अनहोनी की आशंका ने सवालों का बवंडर खड़ा कर दिया उनके मन में।
बाहर सासू माँ के रुदन ने स्वर पकड़ा, “हमार हीरा काहे सो गए?”
वे बेतहाशा दौड़ीं। बाहर द्वार पर पेड़ के कटे तने की तरह उनके पति का मृत शरीर पड़ा था। वे मर्यादा भूल कर चीखीं और लड़खड़ाते हुए पति के पैरों पर गिर पड़ीं। मुँह से प्रलयकारी बम फुटा, “नहींऽऽ!”
इसके आगे वे कुछ न बोल पाईं। पति की तरह उस क्षण जुबान भी दगा दे गई। वे बेहोश हो गईं। घर भर में कोहराम मच गया। पानी के छींटे मारे गए उनके मुँह पर। चेतना जगी फिर भी मुख से स्वर कम ही फुटा। बस आँसुओं ने साथ दिया। दोनों कपोल समन्दर हो गए।
घट की कीमत कब तक जब तक उसमें पानी, शरीर की कीमत तब तक जब तक उसमें प्राण। सायंकाल होते-होते पति की अंत्येष्टि कर दी गई। लक्ष्मण की उर्मिला के उलट यह उर्मिला आजीवन पति से वंचित हो गई। बिना पंख चिड़ी को देखकर चिड़ी के बच्चों की तरह, उनकी सूनी मांग तथा सूने पाँव को देखकर तीनों बच्चे डरकर उनकी आँचल से लिपट गए।
बूढ़े मां-बाप और पत्नी इस कहर से कँहर ही रहे थे कि तब तक अवसरवादिता ने अपना रूप दिखला दिया। उनके परिवार में खर्च अधिक था, बच्चे छोटे थे और सास-ससुर बूढ़े थे। परिवार का कमाऊ जन मर जाने से शेष चाचा-दादाओं के परिवार वालों ने अपना-अपना घोंसला अलग कर लिया। चालाक विहग सदा अपने आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों को चौकस रखते हैं, मूर्खों की तरह एक डाल पकड़कर उससे चिपके नहीं रहते।
समय ने दुःख दिया, समय ने उबारा। कालांतर में बूढ़े सास-ससुर के साथ मिलकर उन्होंने तीनों बच्चों का विवाह कर दिया। थोड़े दिनों तक सब सामान्य रहा। फिर दोनों बेटों ने भी अपना घोंसला अलग कर लिया। बेटी अपने घर चली गई। वह बेवा पेट के लिए हर महीने नाद बदलने लगीं। दोनों बेटों पर वे बोझ बन गई थीं। किसी तरह एक-एक महीने की पारी से उन्होंने उन्हें अपने पास रखने का समझौता किया।
विमल ने खूँटी पर टँगी मोटरसाइकिल की चाबी उतारी और दालान में से बाइक बाहर निकाला। मोटरसाइकिल रोज से अधिक भारी थी। उसे संदेह हुआ। पहिया देखा तो संदेह को बल मिला। पिछला टायर सम्भवतः पंचर हो गया था।
“सिट् इसे भी आज ही होना था!” उसने गुस्से में फर्श पर पैर पटका।
टायर ट्यूबलेस थी।
‘चलो गनीमत है।‘ उसने भीतर से एयर पंप निकालकर टायर में हवा डाली। गेट लॉक किया और चाबी गाड़ी की डिग्गी में डालकर वह ससुराल की ओर चल पड़ा। मिनट भर में मोटरसाइकिल साठ में चलने लगी और उसका मन एक सौ बीस में उड़ने लगा।
प्रारम्भ में उसका व्यवहार भी उनके प्रति बहुत असभ्य व कठोर था। वह उन्हें कंजूस, लालची और न जाने किन-किन उपाधियों से नवाजता था तथा उनसे बात भी नहीं करता था। उनकी सूरत से ही उसके मुँह का भूगोल बिगड़ जाता था, गुस्से से उसका नथुना फूल जाता था।
ब्याह के सात-आठ वर्ष तक उसने उनसे बात भी न की थी। वे करीब आतीं तो वह किसी न किसी बहाने से वहाँ से उठ जाता या बात की दिशा मोड़ देता अथवा मोबाइल से किसी दूसरे से बात करने लगता।
नीलम के मामा की लड़की न मिलती तो शायद अब भी वह बात न करता। शालू ने ही एक दिन पूछा था, “जीजू! आप बुआजी से क्यों नाराज हैं?”
उसके इस सवाल से वह सकपका गया था, सम्हलकर कहा, “क्या मतलब?”
“मतलब कि आप उनसे बात क्यों नहीं करते?”
शालू विमल का बड़ा आदर करती थी। उसे लगा कि सम्मान बचाने के लिए अब इसे सारी बात बताना ही पड़ेगा। वह बोला, “जानती हो कि उस नाटकी औरत ने क्या किया है मेरे साथ?”
“मैं तो नहीं जानती। आप बताएँ तो शायद कुछ जान पाऊँ।“ शालू की आवाज में नियंत्रित क्रोध था।
“उस औरत ने मेरे दोस्तों के बीच मेरा बड़ा अपमान किया। विवाह- वेदी पर कलेवा के समय नेग के रूप में उसने मुझे सौ रुपल्ली दिए।“ कहते हुए विमल का मुँह लाल हो गया।
“कुछ दिया ही न?”
“तुम जानती नहीं, मेरे दोस्तों ने मेरी कितनी खिल्ली उड़ाई बाद में। एक सरकारी क्लर्क को उसकी सास ने कलेवा का नेग सौ रुपए दिया। अरे! इस नौटंकीबाज को कुछ नहीं देना था तो मुझसे कहती, मैं उसे चार-छह हजार पहले दे देता, कम से कम दोस्तों और भाइयों के बीच मेरी इज्जत तो बच जाती!”
“लेकिन मुझे मालूम है कि उस समय तो सब बढ़िया से निपट गया था?”
“मेरे कारण, मेरे कारण निपट गया था बढ़िया से। मैं उस बेहया औरत की तरह तमाम लोगों के बीच उसकी और अपनी फजीहत नहीं कराना चाहता था।”
“ओह! तो बात रुपए की है?”
“नहीं, बात रुपए की नहीं; मान सम्मान की है।”
“वही, वही! मान सम्मान मतलब आपके रुपए।”
इससे पूर्व विमल ने शालू को इतना कटु कभी नहीं देखा था। वह तिलमिलाकर रह गया।
थोड़ी देर रुककर शालू पुनः कहने लगी, “एक बात पूछूँ, जीजू?”
“हाँ, पूछो।” अब वह उसके पास से जल्दी निकलना चाहता था।
“शादी से पहले आपको नहीं पता था कि आपकी सास विधवा हैं, कहें तो दूसरे के आश्रित! ससुर नहीं हैं!”
“जानता था लेकिन सास इतनी कंजूस होगी, कदापि नहीं सोचा था।”
“जीजाजी, आप इतने पढ़े लिखे हैं, समाज की हालत भी बखूबी समझते हैं फिर भी एक बेवा स्त्री की अवस्था नहीं समझते?”
“तुम क्या कहना चाहती हो?”
“हाँ जीजू! बेरोजगार बेटे, बूढ़े व बीमार सास-ससुर तथा एक असहाय विधवा! उस अकेली औरत ने कैसे बच्चों को पढ़ाया-लिखाया होगा और कैसे सबका विवाह किया होगा, आपने कभी सोचा? आप के लिए लाख-पचास हजार रुपयों की कोई कीमत नहीं होगी किन्तु एक बेवा के लिए दस रुपए भी दस हजार के बराबर हैं। उसने आपको सौ रुपए दिए तो समझो दस-बीस हजार दिए।”
शालू की बात सुनकर उसके अहंकार व रोष का किला ढहने लगा।
वह बोलती गई, “जीजू, आपने शायद गौर नहीं किया होगा कि कलेवा के समय सौ रुपए देते वक्त उनकी आँखों में आँसू क्यों थे? ये वह आँसू थे जो वे किसी भी कीमत पर परिणय की शुभ वेदी पर गिरने नहीं देना चाहती थीं। उनके यह आँसू किसी भी गहने-गधेले से अनमोल थे।”
“मुझे नहीं मालूम था।”
“आपको तो यह भी नहीं पता कि वह आपसे बात न कर पाने के कारण कितना मन ही मन तड़पती हैं। बुआ को और कोई रोग नहीं है, इसी चिंता में वे बीमार रहती हैं। उन्होंने कई बार मुझसे कहा है कि शालू, मैं भी चाहती हूँ कि अपने दामाद के पास बैठूँ, मैं भी उससे अपने दिल की दुख-दर्द कहूँ। ..जीजू, आप क्या जाने की एक बेवा स्त्री की घर और समाज में क्या दुर्दशा होती है? घर में कोई उसकी पीड़ा सुनना नहीं चाहता और बाहर वह किसी से कह नहीं सकती। जीजू! अपना दामाद डायन को भी प्यारा होता है, वे तो फिर भी एक स्त्री हैं। और एक बात और आपकी नाराजगी वे बखूबी समझती हैं। उन्होंने कई बार मुझसे कहा है कि मैं तेरे जीजा को सोने की अँगूठी देना चाहती हूँ किन्तु क्या करूँ दोनों लड़के मेरी विधवा पेंशन का भी रुपया भी नहीं छोड़ते। जीजा, वे पूरा जीवन केवल उम्मीदों पर जीती आई हैं। वह उम्मीद जो कभी पूरी नहीं हुई। वे अब भी अपने दामाद को अपनी कोई निशानी देने की आशा पाले हुए हैं।”
“ब बस शालू! मुझे क्षमा कर दो। मैं अपने व्यवहार पर बहुत शर्मिंदा हूँ। स्वार्थी, नौटंकीबाज और लालची वे नहीं, मैं हूँ स्वार्थी घमंडी और लालची। वे तो बहुत महान हैं।” कहते-कहते वह रोने लगा।
सामने पंचर की दुकान थी। पाँच मिनट रुककर उसने पंचर बनवा लेना उचित समझा। बाइक डबल स्टैंड पर खड़ी करके वह फोन पर पत्नी से वहाँ के इंतजाम की जानकारी लेने लगा। आध घड़ी में पंचर बन गया तो वह पुनः गाड़ी पर बैठकर उड़ने लगा। विचारों ने एक बार पुनः उसकी मोटरसाइकिल की गति से होड़ लगाना शुरु कर दिया।
उस दिन बहुत खुश हुई थीं वे, जब वह उनसे प्रेमपूर्वक मिला था। सीने से लगाकर देर तक रोती रही थीं। सिर पर हाथ रखकर ढेरों आशीर्वाद दिया था। विमल फिर सोचने लगा। लेकिन उसके बाद वह पुनः कभी उनके पास अधिक देर तक नहीं बैठ सका। हर बार नौकरी और उसका अंतर्मुखी स्वभाव बाधक बनकर उनके बीच आ जाता। वे जीवनपर्यंत कुरछती रहीं अपने मन की बात उससे करने को।
वे बहुत मान देती थीं उसे। उसकी गलती रहने पर भी वे सदा अपनी बेटी को ही दोषी ठहराती थीं। कहतीं थीं, “बेटा मैं जानती हूँ, यह कमअक्ली, जिद्दी स्वभाव की है। लेकिन मैं क्या करती? माँ थी, पालन-पोषण में बाप की तरह कड़ाई न कर सकी। इसलिए बच्चे अधिक जिद्दी हो गए।”
हर बार जब वह नीलम को लिवाने ससुराल जाता तो वही एक ही बात हाथ जोड़कर वे बोलतीं, “बेटा, इसे माफ कर देना। इसकी गलतियों के लिए मैं तुमसे क्षमा माँगती हूँ।”
एक्सीलेटर खींचकर वह ससुराल पहुँचा। दरवाजे के सामने जमीन पर पुआल बिछा हुआ था जिस पर वही भागलपुरी चद्दर पड़ी थी जो उनके पति मृत्यु से पहले लुधियाना से लेकर आए थे। उनका मृत शरीर उसी पर लिटाया हुआ था। उसने जैसे उनके चेहरे की ओर देखा लगा जैसे किसी ने पूछा हो, “बेटा पाँव धुला किसी ने?..ठहरो मैं पानी लाकर धुलती हूँ।”
उसकी आँखों से आंसू झरने लगे। उनकी गोल-गोल बड़ी-बड़ी आँखें, माथे पर अब भी तेज था। मानो सो रही हों, अभी उसका आना जानकर तुरंत उठ पड़ेंगी।
सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। टिकठी (विमान) भी बन गई। आधे घंटे में विमान उठाया गया तो उसने भी लपककर एक ओर का पाया पकड़ लिया। लोगों ने मना किया, “तुम इनके मान्य (पूज्यनीय) हो, आखिरी में उनका धर्म भ्रष्ट न करो।”
“आखिर में मुझे मेरा धर्म निभाने से मत रोको।” विमल रुँधे हुए गले से बोला।
दाह-संस्कार के बाद सभी अपने घर को चले गए। नीलम से मिलकर विमल भी अपने घर जाने लगा। भीतर से आवाज आई, “रुको बेटा। दामाद हो, जो कुछ फूल-पाती तुम्हारी सास के पास है, ले लिया करो। जाने कोई मेरे बाद दे न दे।”
उसने मुड़कर देखा, वहाँ कोई नहीं था। वह फफककर रोते हुए मोटरसाइकिल पर बैठ गया।