अंधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुम-घुम करती हुई चक्कियां। नदी के दाहिने तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है, जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है। टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गांव है। यह गढ़ी और गांव दोनों एक बुंदेला सरदार के कीर्ति-चिह्न हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो गयीं, बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ, मुसलमान आये और बुंदेला राजा उठे और गिरे कोई कोई गांव, कोई इलाका ऐसा न था, जो इन दुर्व्यवस्था से पीड़ित न हो, मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहरायी और इस गांव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ यह उसका सौभाग्य था।
अनिरुद्ध सिंह वीर राजपूत था। वह जमाना ही ऐसा था जब मनुष्य को मात्र अपने बाहु-बल और पराक्रम का ही एक भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनाएं पैर जमायें खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे। अनिरुद्ध सिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा, मगर सजीव दल था। इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था। उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था। तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतला देवी से हुआ था, मगर अनिरुद्ध विहार के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की खैर मनाने में। वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों पर गिरकर रोयी थी कि तुम मेरी आंखों से दूर न हो, मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ बनवास अच्छा है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता। उसने प्यार से कहा, जिद से कहा, विनय की, मगर अनिरुद्ध बुंदेला था। शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी।
अंधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी, तारे आकाश में जागते थे। शीतला देवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी ननद सारंधा फर्श पर बैठी हुई मधुर स्वर में गाती थी।
बिन रघुवीर कटत नहीं रैन…..
शीतला ने कहा– ‘जी न जलाओ। क्या तुम्हें नींद नहीं आती?’
सारंधा – ‘तुम्हें लोरी सुना रही हूं।’
शीतला- मेरी आंखों से तो लोरी लोप हो गयी है।’
सारंधा – ‘किसी को ढूंढ़ने गयी होगा।’
इतने में द्वार खुला और एक गठीले बदन के रूपवान पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। यह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे। बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतर जमीन पर बैठ गयी।
सारंधा ने पूछा – ‘भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं?’
अनिरुद्ध – ‘नदी तैरकर आया हूं।’
सारंधा – ‘हथियार क्या हुए?’
अनिरुद्ध – ‘छिन्न गये।’
सारंधा – ‘और साथ के आदमी।’
अजिथ्व – ‘सबने वीर-गति पायी।’
शीतला ने दबी जवान से कहा – ‘ईश्वर ने ही कुशल किया, मगर सारंधा के तेवर पर बल पड़ गये और मुख-मंडल गर्व से सतेज हो गया। बोली – ‘भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।’
सारंधा भाई पर जान देती थी। उसके मुख से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया। वह वीराग्नि जिसे क्षण भर के लिए अनुराग ने दबा लिया था, फिर ज्वलंत हो गयी। वह उलटे पांव लौटा और यह कह कर बाहर चला गया कि सारंधा, तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया यह बात मुझे कभी न भूलेगी।’
अंधेरी रात थी। आकाश-मंडल में तारों का प्रकाश बहुत धुंधला था। अनिरुद्ध किले से बाहर निकला। पल भर में उस पार जा पहुंचा और फिर अंधकार में लुप्त हो गया। शीतला उसके पीछे-पीछे किले की दीवारों तक आयी, मगर जब अनिरुद्ध छलांग मारकर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी चट्टान पर बैठकर रोने लगी।
इतने में सारंधा भी वहीं आ पहुंची। शीतला ने नागिन की तरह बल खाकर कहा – ‘मर्यादा इतनी प्यारी है?’
सारंधा – ‘हां।’
शीतल – ‘अपना पति होता तो हृदय में छुपा लेती।’
सारंधा – ‘ना, छाती में छुरा चुभा देती।’
शीतला ने ऐंठ कर कहा – ‘चोली में छिपाती फिरोगी, मेरी बात गिरह में बांध लो।’
सारंधा – ‘जिस दिन ऐसा होगा, मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊंगी।’
इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध महरौनी को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारंधा का विवाह ओरछा के राज चम्पतराय से हो गया मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में कांटे की तरह खटकती रही।
राजा चम्पतराय बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। सारी बुंदेला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुगल बादशाहों को कर देना बंद कर दिया और वे अपने बाहु-बल से राज्य-विस्तार करने लगे। मुसलमानों की सेनाएं बार-बार उन पर हमले करती थी, पर हारकर लौट जाती थी।
यही समय था जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चम्पतराय से विवाह कर दिया। सारंधा ने मुंह-मांगी मुराद पायी। उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुंदेला जाति का कुल-तिलक हो, पूरी हुई। यद्यपि राजा के निवास में पांच रानियां थी मगर उन्हें शीघ्र ही -मालूम हो गया कि वह देवी, जो हृदय में मेरी पूजा करती है सारंधा है।
परन्तु कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि चम्पतराय को मुगल बादशाह पर आश्रित होना पड़ा। वे अपना राज्य अपने भाई पहाड़ सिंह को सौंपकर देहली चले गये। यह शाहजहां के शासन-काल का अंतिम भाग था। शाहजादा दारा शिकोह राजकीय कार्यों को संभालते थे। युवराज की आंखों में शील था और चित्त में उदारता उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएं सुनी थीं, इसलिए उनका बहुत आदर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उन्हें भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। वह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आये दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ। रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी। राजा विलास में डूबे, रानी जड़ाऊ गहनों पर रीझीं, मगर सारंधा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती। वह इन रहस्यों से दूर-दूर रहती, ये नृत्य और गान की सभाएं उसे सूनी प्रतीत होती।
एक दिन चम्पतराय ने सारंधा से कहा…‘सारन, तुम उदास क्यों रहती हो? मैं तुम्हें कभी हंसते नहीं देखता। क्या मुझसे नाराज हो?’
सारंधा की आंखों में पानी भर आया, बोली – ‘स्वामीजी, आप क्यों ऐसा विचार करते हैं, जहां आप प्रसन्न हैं, वहां में भी खुश हूं।’
चम्पतराय – ‘मैं जबसे यहां आया हूं मैंने तुम्हारे मुख-कमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कुराहट नहीं देखी। तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं संवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये। कहीं प्रेमलता मुरझाने तो नहीं लगी।’
सारंधा – ‘प्राणनाथ, आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं, जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है। यथार्थ इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। मैं बहुत चाहती हूं कि खुश रहूं अगर बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है।’
चम्पतराय स्वयं आनंद में थे। इसलिए उनके विचार में सारंधा का असंतुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। वे भौहें सिकोड़ कर बोले – ‘मुझे तुम्हारे उदास होने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम लेता। ओरछे में कौन-सा सुख था, जो यहां नहीं है?’
सारंधा का चेहरा लाल हो गया। बोली – ‘मैं कुछ कहूं आप नाराज तो न होंगे।’ चम्पतराय – ‘नहीं, शौक से कहो।’
सारंधा – ‘ओरछे मैं एक राजा की रानी थी। यहां मैं एक जागीरदार की चेरी हूं। ओरछे में वह थी, जो अवध में कौशल्या थी, यहां मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूं। जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं, वह शख्स आपके नाम से कांपता था। राजी से चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है। आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियां बड़े-महंगे दामों में मोल ली हैं।’
चम्पतराय के नेत्रों पर से एक पर्दा-सा हट गया। वे अब तक सारंधा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे। जैसे बे-मां-बाप का बालक मां की चर्चा सुनकर रोने लगता है, उसी तरह ओरछे की याद से चम्पतराय की आंखें सजल हो गयीं। उन्होंने आदरयुक्त अनुराग के साथ सारंधा को हृदय से लगा लिया।
आज से उन्हें फिर उस उजड़ी बस्ती की फिक्र हुई। जहां से धन और कीर्ति की अभिलाषाएं खींच लायी थी।
मां अपने खोये हुए बालक को पाकर निहाल हो जाती है। चम्पतराय के आने से बुंदेलखंड निहाल हो गया। ओरछे के भाग जागे। नौबतें झड़ने लगीं और फिर सारंधा के कमल-नेत्रों में जातीय अभिमान का आभास दिखायी देने लगा।
यहां रहते-रहते कई महीने बीत गये। इसी बीच में शाहजहां बीमार पड़ा। पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी। यह खबर सुनते ही ज्वाला प्रचंड हुई। सफर की तैयारियां होने लगीं। शाहजादा मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले। वर्षा के दिन थे। उर्वरा भूमि रंग-बिरंगे रूप भरकर अपने सौन्दर्य को दिखाती थी।
मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए कदम बढ़ाते चले आते थे। यहां तक कि वे धौलपुर के निकट चम्बल के तट पर आ पहुंचे, परंतु यहां उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया।
शाहजादे अब बड़ी चिंता में पड़े। सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी, किसी योगी के त्याग के सदृश। विवश होकर चम्पतराय के पास संदेश भेजा कि खुदा के लिए आकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए।
राजा ने भवन में आकर सारंधा से पूछा – ‘इसका क्या उत्तर दूं?’
सारंधा – ‘आपको मदद करनी होगी।’
चम्पतराय – ‘उनकी मदद करना दारा शिकोह से बैर लेना है।’
सारंधा – ‘यह सत्य है, परन्तु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए।’
