मई का महीना और मध्याह्न का समय था। सूर्य आंखों के सामने से हटकर सिर पर जा पहुंचा था, इसलिए उनमें शील न था। ऐसा विदित होता था मानो पृथ्वी उसके भय से थर-थर कांप रही थी। ठीक ऐसे ही समय एक मनुष्य एक हिरन के पीछे उदात्त भाव से घोड़ा फेंके चला आता था। उसका मुंह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथ-पथ। किंतु मृग भी ऐसा भागता था मानो वायुवेग से जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद स्पर्श नहीं करते। इसी दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन निर्भर था।
पछुआ हवा बड़े जोर से चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था मानो अग्नि और धूल की वर्षा हो रही हो। घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा रहा था। किन्तु मृग का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कि वह अपनी बन्दूक को सम्हाले। कितने ही ऊख के खेत, ढाक के वन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही ‘सपने की सम्पत्ति’ की भांति अदृश्य हो गये।
क्रमशः मृग पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ही ऊंचा कगार, दीवार की भांति खड़ा था। आगे भागने की राह बन्द थी, और उस पर से कूदना मानो मृत्यु के मुख में कूदना था। हिरन का शरीर शिथिल पड़ गया। उसने एक करुणा-भरी दृष्टि चारों ओर फेरी। किन्तु उसे हर तरफ मृत्यु ही – मृत्यु दृष्टिगोचर होती थी। अश्वारोही के लिए इतना समय बहुत था। उसकी बन्दूक से गोली क्या छूटी मानों मृत्यु ने एक महा-भयंकर जयध्वनि के साथ अग्नि की एक प्रचंड ज्वाला उगल दी। हिरन भूमि पर लोट गया।
मृग पृथ्वी पर पड़ा तड़प रहा था और अश्वारोही की भयंकर और हिंसा प्रिय आंखों से प्रसन्नता की ज्योति निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसने असाध्य साधन कर लिया। उसने उस पशु के शव को नापने के बाद उसके सींगों को बड़े ध्यान से देखा और मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था कि इससे कमरे की सजावट दूनी हो जायेगी और नेत्र सर्वदा उस सजावट का आनन्द सुख से भोगेंगे।
जब तक वह इस ध्यान में मग्न था, उसको सूर्य की प्रचण्ड किरणों का लेशमात्र भी ध्यान न था, किन्तु ज्यों ही उसका ध्यान उधर से फिरा, वह उष्णता से विह्वल हो उठा और करुणापूर्ण आंखें नदी की ओर डाली लेकिन वहां तक पहुंचने का कोई भी मार्ग न दिख पड़ा और न कोई वृक्ष ही दिख पड़ा, जिसकी छांह में जरा विश्राम करता।
इसी चिंतितावस्था में एक अति दीर्घकाल पुरुष नीचे से उछलकर कंगूरे के ऊपर आया और अश्वारोही के सम्मुख खड़ा हो गया। अश्वारोही उसको देखकर बहुत अचंभित हुआ। नवागंतुक एक बहुत ही सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था। मुख से भाव उसके हृदय की स्वच्छता और चरित्र की निर्मलता का पता देते थे। वह बहुत ही दृढ़प्रतिज्ञ, आशा-निराशा तथा भय से बिलकुल बेपरवाह-सा जान पड़ता था।
मृग को देखकर उस संन्यासी ने बड़े स्वाधीन भाव से कहा – राजकुमार, तुम्हें आज बहुत ही अच्छा शिकार हाथ लगा। इतना बड़ा मृग इस सीमा में कदाचित ही दिखाई पड़ता है।
राजकुमार के अचम्भे की सीमा न रही। उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है।
राजकुमार बोला – जी हां, मैं भी यही ख्याल करता हूं। मैंने भी आज तक इतना बड़ा हिरन नहीं देखा।। लेकिन इसके पीछे आज बहुत हैरान होना पड़ा।
संन्यासी ने दयापूर्वक कहा – निःसंदेह तुम्हें दुःख उठाना पड़ा होगा। तुम्हारा मुख लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया है। क्या तुम्हारे संगी बहुत पीछे रह गए।
इसका उत्तर राजकुमार ने बिलकुल बेपरवाही से दिया, मानो उसे इसकी कुछ भी चिंता न थी।
संन्यासी ने कहा – यहां ऐसी कड़ी धूप और आंधी में खड़े तुम कब तक उनकी राह देखोगे? मेरी कुटी में चलकर जरा विश्राम कर लो। तुम्हें परमात्मा ने ऐश्वर्य दिया है, लेकिन कुछ देर के लिए संन्यास आश्रम का रंग भी देखो और वनस्पतियों और नदी के शीतल जल का स्वाद लो।
यह कहकर संन्यासी ने उस मृग के रक्तमय मृत शरीर को ऐसी सुगमता से उठाकर कंधे पर धर लिया मानो वह एक घास का गट्ठा था, और राजकुमार से कहा – मैं तो प्रायः कगार से नीचे उतर जाया करता हूं किन्तु तुम्हारा घोड़ा सम्भव है न उतर सके। अतएव कठिन राह छोड़कर सरल राह चलेंगे। घाट यहां से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटी है।
राजकुमार संन्यासी के पीछे चला। उसे संन्यासी के शारीरिक बल पर अचंभा हो रहा था। आधा घंटे तक दोनों चुपचाप चलते रहे। इसके बाद ढालू भूमि मिलनी शुरू हुई और थोड़ी देर में घाट आ पहुंचा। वहीं कदम्ब-कुंज की घनी छाया में जहां सर्वदा कुलों की सभा सुशोभित रहती, नदी की तरंगों का मधुर स्वर सर्वदा सुनाई दिया करता है, जहां हरियाली पर मयूर थिरकता, कपोत आदि पक्षी मस्त होकर झूमते, लता-द्रमादि से सुशोभित संन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी।
संन्यासी की कुटी हरे-भरे वृक्षों के नीचे सरलता और संतोष का चित्र बना रही थी। राजकुमार की अवस्था वहां पहुंचते ही बदल गयी थी। यहां की शीतल वायु का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा जैसा मुरझाते हुए वृक्ष पर वर्षा का। उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों ही पर निर्भर नहीं है और न निद्रा सुनहरे तकिये की ही आवश्यकता रखती है। शीतल, मंद, सुगंधमय वायु चल रही थी। सूर्य भगवान अस्ताचल को पलायन करते हुए इस लोक को तृषित नेत्रों से देखते जाते थे और संन्यासी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ गा रहा था।
‘ऊधो कर्मन की गति न्यारी’
राजकुमार के कानों में स्वर की भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा। उसने बड़े-बड़े कलावंतों के गाने सुने थे, किन्तु आज जैसा आनन्द उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। इस पद ने उसके ऊपर मानो मोहिनी-मंत्र का जाल बिछा दिया। वह बिलकुल बेसुध हो गया। संन्यासी की धुन में कोयल की कूक सरीखी मधुरता थी।
सम्मुख नदी का जल गुलाबी चादर की भांति प्रतीत होता था। कूलद्वय की रेत चंदन की चौकी-सी दीखती थी। राजकुमार को यह दृश्य स्वर्गीय सा जान पड़ने लगा। उस पर तैरने वाले जल-जन्तु ज्योतिर्मय आत्मा के सदृश दिख पड़ते थे, जो गाने का आनंद उठाकर मत्त से हो गए थे।
जब गाना समाप्त हो गया, राजकुमार जाकर संन्यासी के सामने बैठ गया और भक्तिपूर्वक बोला – महात्मन् आपका प्रेम और वैराग्य संग्रहणीय है। मेरे हृदय पर इसका जो प्रभाव पड़ा है, वह चिरस्थायी रहेगा। यद्यपि सम्मुख प्रशंसा करना सर्वथा अनुचित है, किन्तु इतना मैं अवश्य कहूंगा कि आपके प्रेम की गम्भीरता सराहनीय है। यदि मैं गृहस्थी के बन्धन में न पड़ा होता तो आपके चरणों से पृथक होने का ध्यान स्वप्न में भी न करता।
इसी अनुरागावस्था में राजकुमार कितनी ही ऐसी बातें कह गया जो कि स्पष्ट रूप से उसके आन्तरिक भावों का विरोध करती थी। संन्यासी मुस्कुराकर बोला तुम्हारी बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूं और मेरी उत्कट इच्छा है कि तुमको कुछ कराऊं, किन्तु यदि मैं जाने भी दूं तो इस सूर्यास्त के समय तुम जा नहीं सकते। तुम्हारा रीवां पहुंचना दुष्कर हो जाएगा। तुम जैसे आखेट-प्रिय हो वैसा मैं भी हूं। हम दोनों को अपने-अपने गुण दिखाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। कदाचित् तुम भय से न रुकते, किन्तु शिकार के लालच से अवश्य रहोगे।
राजकुमार को तुरन्त ही मालूम हो गया कि जो बातें उन्होंने अभी-अभी संन्यासी से कहीं थी, वे बिलकुल ऊपरी और दिखावे की थी और हार्दिक भाव उनसे प्रकट नहीं हुए थे। आजन्म संन्यासी के समीप रहना तो दूर, वहां एक रात बिताना उसको कठिन जान पड़ने लगा। घरवाले उद्विग्न हो जाएंगे और मालूम नहीं क्या सोचेंगे। साथियों की जान संकट में होगी। घोड़ा बेदम हो रहा है। उस पर चालीस मील जाना बहुत ही कठिन और बड़े साहस का काम है। लेकिन यह महात्मा शिकार खेलते हैं – यह बड़ी अजीब बात है। कदाचित यह वेदांती हैं। ऐसे वेदांती, जो जीवन और मृत्यु को मनुष्य के हाथ नहीं मानते। इनके साथ शिकार में बड़ा आनंद आयेगा।
यह सब सोच-विचार कर उन्होंने संन्यासी का आतिथ्य स्वीकार किया, उन्हें धन्यवाद दिया और अपने भाग्य की प्रशंसा की, जिसने उन्हें कुछ काल तक और साधु-संग से लाभ उठाने का अवसर दिया।
रात दस बजे का समय था। घना अंधियारा छाया हुआ था। संन्यासी ने कहा – अब हमारे चलने का समय हो गया है।
राजकुमार पहले ही से प्रस्तुत था। बंदूक कन्धे पर रखकर बोला – इस अंधकार में शूकर अधिकतर मिलेंगे किन्तु ये पशु बड़े भयानक हैं।
