Kamna-Taru by Munshi Premchand
Kamna-Taru by Munshi Premchand

राजा इंद्रनाथ का देहांत हो जाने के बाद कुंवर राजनाथ को शत्रुओं ने चारों ओर से ऐसा दबाया, कि उन्हें प्राण लेकर एक पुराने सेवक की शरण जाना पड़ा, जो एक छोटे से गांव का जागीरदार था। कुंवर स्वभाव ही से शांतिप्रिय, रसिक, हंस-खेलकर समय काटने वाले युवक थे। रण-क्षेत्र की अपेक्षा कवित्व के क्षेत्र में अपना चमत्कार दिखाना उन्हें अधिक प्रिय था। रसिक जनों के साथ, किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए, काव्य-चर्चा करने में जो आनंद मिलता था, वह शिकार या राज-दरबार में नहीं। इस पर्वत-मालाओं से घिरे हुए गांव में आकर उन्हें जिस शांति और आनन्द का अनुभव हुआ, उसके बदले में वह ऐसे-ऐसे कई राज्य त्याग कर सकते थे। यह पर्वत मालाओं की मनोहर छटा, यह नेत्ररंजक हरियाली, यह जलप्रवाह की मधुर वीणा, यह पक्षियों की मीठी बोलियां, यह मृग शावकों की छलांगें, यह बछड़ों की कुलेलें, यह ग्रामवासियों की बालोचित सरलता, यह रमणियों की संकोचमय चपलता! ये सभी बातें उनके लिए नई थी, पर इन सबों से बढ़कर जो वस्तु उनको आकर्षित करती थी, वह जागीरदार की युवती कन्या चंदा थी।

चंदा घर का सारा काम-काज आप ही करती थी। उसको माता की गोद में खेलना नसीब ही न हुआ था। पिता की सेवा ही में रत रहती थी। उसका विवाह इसी साल होने वाला था कि इसी बीच में कुंवर जी ने आकर उसके जीवन में नवीन भावनाओं और नवीन आशाओं को अंकुरित कर दिया। उसने अपने पति का जो चित्र मन में खींच रखा था, वही मानों रूप धारण करके सम्मुख आ गया। कुंवर की आदर्श रमणी भी चंदा ही के रूप में अवतरित हो गई, लेकिन कुंवर समझते थे – मेरे ऐसे भाग्य कहां? चंदा भी समझती थी – कहां यह और कहां मैं।

दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की भांति तपने लगा। खस की टट्टियों और तहखाने में रहने वाले राजकुमार का चित्त गरमी से इतना बेचैन हुआ कि वह बाहर निकल आए और सामने के बाग में जाकर एक घने वृक्ष की छांह में बैठ गए। सहसा उन्होंने देखा – चंदा नदी से जल की गागर लिये चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुए सूर्य। लू से देह झुलसी जाती थी। कदाचित् इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी को भी नदी तक जाने की हिम्मत न पड़ती। चंदा क्यों पानी लेने गई थी? घर में पानी भरा हुआ हैं फिर इस समय वह क्यों पानी लेने निकली।

कुंवर दौड़कर उसके पास पहुंचे और उसके हाथ से गागर छीन लेने की चेष्टा करते हुए बोले – मुझे दे दो और भागकर छांह में चली जाओ। इस समय पानी का क्या काम था?’ चंदा ने गागर न छोड़ी। सिर से खिसका हुआ आंचल संभालकर बोली – ‘तुम इस समय कैसे आ गए? शायद मारे गरमी के अंदर न रहे सके?’

कुंवर – मुझे दे दो, नहीं तो मैं छीन लूंगा।’

चंदा ने मुस्कुराकर कहा – ‘राजकुमारों को गागर लेकर चलना शोभा नहीं देता।’

कुंवर ने गागर का मुंह पकड़कर कहा – ‘इस अपराध का बहुत बड़ा दण्ड सह चुका हूं। चंदा, अब तो अपने को राजकुमार कहने में भी लज्जा आती है।’

चंदा – ‘देखो, धूप में खुद भी हैरान होते हो और मुझे भी हैरान करते हो। गागर छोड़ दो, सच कहती हूं पूजा का जल है।’

कुंवर – ‘क्या मेरे ले जाने से पूजा का जल अपवित्र हो जायेगा?’

चंदा – ‘अच्छा भाई, नहीं मानते, तो तुम्हीं ले चलो। हां, नहीं तो… ।’

कुंवर गागर लेकर आगे-आगे चले। चंदा पीछे हो ली। बगीचे में पहुंचे, तो चंदा एक छोटे-से पौधे के पास रुक कर बोली – ‘इसी देवता की पूजा करनी है, गागर रख दो।’ कुंवर ने आश्चर्य से पूछा – ‘यहां कौन देवता है, चंदा? मुझे कहीं नहीं नजर आता।’

चंदा ने पौधे को सींचते हुए कहा – ‘यही तो मेरा देवता है।’

पानी पाकर पौधे की मुरझाई हुई पत्तियां हरी हो गई, मानो उनकी आंखें खुल गई हों।

कुंवर ने पूछा – ‘यह पौधा क्या तुमने लगाया है, चंदा?’

चंदा ने पौधे को एक सीधी लकड़ी से बांधते हुए कहा – ‘हां, उसी दिन तो, जब तुम यहां आये। यहां पहले मेरी गुड़ियों का घरौंदा था। मैंने गुड़ियों पर छांह करने के लिए अमोला लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम-धंधे में भूल गई। मैंने आकर देखा तो वह सूख गया था। मैंने तुरंत पानी लाकर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताजा होने लगा। तब से इसे सींचती हूं। देखा, कितना हरा-भरा हो गया है।’

यह कहते-कहते उसने सिर उठाकर कुंवर की ओर ताकते हुए कहा – ‘और सब काम भूल जाऊं, पर इस पौधे को पानी देना नहीं भूलती। तुम्हीं इसके प्राण दाता हो। तुम्हीं ने आकर इसे जिला दिया, नहीं तो बेचारा सूख गया होता। यह तुम्हारे शुभागमन का स्मृति-चिह्न है। जरा इसे देखो। मालूम होता है, हंस रहा है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह मुझसे बोलता है। सच कहती हूं कभी यह रोता है, कभी हंसता है, कभी फूटता है। आज तुम्हारा लाया हुआ पानी पाकर यह फूला नहीं समाता। एक-एक पत्ता तुम्हें धन्यवाद दे रहा है।’

कुंवर को ऐसा जान पड़ा, मानों वह पौधा कोई नन्हा-सा क्रीड़ा शील बालक है। जैसे, चुम्बन से प्रसन्न होकर बालक गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला देता है, उसी भांति यह पौधा भी हाथ फैलाए जान पड़ा। उसके एक-एक अणु में चंदा का प्रेम झलक रहा था।

चंदा के घर में खेती के सभी औजार थे। कुंवर एक फावड़ा उठा लाये और पौधे का एक थाल बनाकर चारों ओर ऊंची मेंड़ उठा दी। फिर खुरपी लेकर अंदर की मिट्टी को जोड़ दिया। पौधा और भी लहलहा उठा।

कुंवर ने मुस्कुराकर कहा – ‘हाँ, कहता है – अम्मा की गोद में बैठेगा।’

चंदा – ‘नहीं, कह रहा है, इतना प्रेम करके फिर भूल न जाना।’