Kamna-Taru by Munshi Premchand
Kamna-Taru by Munshi Premchand

मगर कुंवर को अभी राजपुत्र होने का दंड भोगना बाकी था। शत्रुओं को न जाने कैसे उनकी टोह मिल गई। इधर तो हितचिंतकों के आग्रह से विवश होकर बूढ़ा कुबेर सिंह चंदा और कुंवर के विवाह की तैयारियां कर रहा था, उधर शत्रुओं का एक दल सिर पर आ पहुंचा। कुंवर ने उस पौधे के आस-पास फूल-पत्ते लगाकर एक फुलवारी-सी बना दी थी। पौधे को सींचना अब उनका काम था। प्रातःकाल वह कंधे पर कांवर रखे नदी से पानी ला रहे थे, कि दस-बारह आदमियों ने उन्हें रास्ते में घेर लिया। कुबेर सिंह तलवार लेकर दौड़ा, लेकिन शत्रुओं ने उसे मार गिराया। अकेला अस्त्रहीन कुंवर क्या करता? कंधे पर कांवर रखे हुए बोला – ‘अब क्यों मेरे पीछे पड़े हो, भाई? मैंने तो सब-कुछ छोड़ दिया है।’

सरदार बोला – ‘हमें आपको पकड़ ले जाने का हुक्म है।’

‘तुम्हारा स्वामी मुझे इस दशा में भी नहीं देख सकता? खैर, अगर धर्म समझे तो कुबेर सिंह की तलवार मुझे दे दो। अपनी स्वाधीनता के लिए लड़कर प्राण दूं।’

इसका उत्तर यही मिला कि सिपाहियों ने कुंवर को पकड़कर मुश्कें कस दी और उन्हें एक घोड़े पर बिठाकर घोड़े को भगा दिया। कांवर वहीं पड़ी रह गई।

उसी समय चंदा घर से निकली। देखा – कांवर पड़ी हुई है और कुंवर को लोग घोड़े पर बिठाए जा रहे हैं। चोट खाए हुए पक्षी की भांति वह कई कदम दौड़ी, फिर गिर पड़ी। उसकी आंखों में अंधेरा छा गया।

सहसा उसकी दृष्टि पिता की लाश पर पड़ी। वह घबराकर उठी और लाश के पास जा पहुंची कुबेर अभी मरा न था। प्राण आंखों में अटके हुए थे।

चंदा को देखते ही क्षीण स्वर में बोला – ‘बेटी. ..कुंवर!’ इसके आगे वह कुछ न कह सका। प्राण निकल गए, पर इस शब्द – ‘कुंवर’ – ने उसका आशय प्रकट कर दिया।

बीस वर्ष बीत गए! कुंवर कैद से न छूट सके।

यह एक पहाड़ी किला था। जहां तक निगाह जाती, पहाड़ियां ही नजर आती। किले में उन्हें कष्ट न था। नौकर-चाकर, भोजन-वस्त्र, सैर-शिकार किसी बात की कमी न थी। पर, उस वियोगाग्नि को कौन शांत करता, जो नित्य कुंवर के रूप में जला करती थी। जीवन में अब उनके लिए कोई आशा न थी, कोई प्रकाश न था। अगर कोई इच्छा थी, तो कि एक बार उस प्रेमतीर्थ की यात्रा कर लें, जहां उन्हें वह सब कुछ मिला, जो मनुष्य को मिल सकता है। हां, उनके मन में एकमात्र यही अभिलाषा थी कि उस पवित्र स्मृतियों से रंजित भूमि के दर्शन करके जीवन का उसी नदी के तट पर अंत कर दें। वही नदी का किनारा, वही वृक्षों का कुंज, वहीं चंदा का छोटा-सा सुन्दर घर उसकी आंखों में फिरा करता और वही पौधा जिसे उन दोनों ने मिलकर सींचा था, उसमें तो मानो उसके प्राण ही बसते थे। क्या वह दिन भी आएगा, जब वह उस पौधे को हरी-हरी पत्तियों से लदा हुआ देखेगा? कौन जाने, वह अब है भी या सूख गया? कौन अब उसको सींचता होगा? चंदा इतने दिनों अविवाहित थोड़े ही बैठी होगी? ऐसा संभव भी तो नहीं। उसे अब मेरी सुध भी न होगी। हां, शायद कभी अपने घर की याद खींच लाती हो, तो पौधे को देखकर उसे मेरी याद आ जाती हो। मुझ-जैसे अभागे के लिए इससे अधिक वह और कर ही क्या सकती है? उस भूमि को एक बार देखने के लिए वह अपना जीवन दे सकता था, पर यह अभिलाषा न पूरी होती थी।

आह! एक युग बीत गया, शोक और नैराश्य ने उठती जवानी को कुचल दिया। न आंखों में ज्योति रही, न पैरों में शक्ति – जीवन क्या था। बस, जीवन का आधार एक अभिलाषा थी, एक सुखद स्वप्न, जो जीवन में न जाने कब उसने देखा था। एक बार फिर वही स्वप्न देखना चाहता था। फिर उसकी अभिलाषाओं का अंत हो जायेगा, उसे कोई इच्छा न रहेगी! सारा अनंत भविष्य, सारी अनंत चिंताएं, इसी स्वप्न में लीन हो जाती थी।

उसके रक्षकों को अब उसकी ओर से कोई शंका न थी। उन्हें उस पर दया आती थी। रात को पहरे पर केवल कोई एक आदमी रह जाता था, और लोग मीठी नींद सोते थे। कुंवर भाग सकता है, उसकी कोई सम्भावना कोई शंका न थी। यहां तक कि एक दिन यह सिपाही भी निःशंक होकर बंदूक लिये लेट रहा। निद्रा किसी हिंसक की भांति ताक लगाए बैठी थी। लेटते ही टूट पड़ी। कुंवर ने सिपाही की नाक की आवाज सुनी। उसका हृदय बड़े वेग से उछलने लगा। यह अवसर आज कितने दिनों के बाद मिला था। वह उठे मगर पांव थर-थर कांप रहे थे। बरामदे के नीचे उतरने का साहस न हो सका। कहीं इसकी नींद खुल गई तो? हिंसा उनकी सहायता कर सकती थी। सिपाही की बगल में उसकी तलवार पड़ी थी, पर प्रेम का हिंसा से बैर है। कुंवर ने सिपाही को जगा दिया। वह चौंक कर उठ बैठा । रहा-सहा संशय भी उसके दिल से निकल गया। दूसरी बार जो सोया, तो खर्राटे लेने लगा।

प्रातःकाल जब उसकी निद्रा टूटी, तो उसने लपक कर कुंवर के कमरे में झांका। कुंवर का पता न था।

कुंवर इस समय हवा के घोड़े पर सवार, कल्पक की द्रुतगति से भागा जा रहा था – उस स्थान को, जहां उसने सुख-स्वप्न देखा था।

किले में चारों ओर तलाश हुई, नायक ने सवार दौड़ाये पर कहीं पता न चला।

पहाड़ी रास्तों का काटा कठिन था, उस पर अज्ञातवास की कैद, मृत्यु के दूत पीछे लगे हुए, जिनसे बचना मुश्किल। कुंवर को कामना-तीर्थ पहुंचने में महीनों लग गए। जब यात्रा पूरी हुई तो कुंवर में एक कामना के सिवा और कुछ शेष न था। दिन भर की कठिन यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुंचे, तो संध्या हो गई थी। यहां बस्ती का नाम भी न था। दो-चार टूटे-फूटे हुए झोंपड़े उस बस्ती के चिह्न-स्वरूप शेष रह गए थे। वह झोंपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, जिसके नीचे उन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उपासना का मंदिर था, अब उनकी अभिलाषाओं की भांति भग्न हो गया था। झोंपड़े की भग्नावस्था मूक भाषा में अपनी करुण-कथा सुना रही थी। कुंवर उसे देखते ही ‘चंदा-चंदा!’ पुकारते हुए दौड़े, उन्होंने उस रज को माथे पर मला, मानो किसी देवता की विभूति हो, और उनकी टूटी हुई दीवारों से चिपटकर बड़ी देर तक रोते रहे। हाय रे अभिलाषा वह रोने ही के लिए इतनी दूर से आये थे। रोने की अभिलाषा इतने दिनों से उन्हें विकल कर रही थी, पर इस रुदन में कितना स्वर्गीय आनंद था। क्या समस्त संसार का सुख इन आंसुओं की तुलना कर सकता था?

तब वह झोंपड़े से निकले। सामने मैदान में एक वृक्ष हरे-हरे नवीन पल्लवों को गोद में लिये मानो उनका स्वागत करने खड़ा था। यह वह पौधा है, जिसे आज से बीस वर्ष पहले दोनों ने आरोपित किया था। कुंवर उन्मत्त की भांति दौड़े और जाकर उस वृक्ष से लिपट गए, मानों कोई पिता अपने मातृहीन पुत्र को छाती से लगाए हुए हो। यह उसी प्रेम की निशानी है, उसी अक्षय प्रेम की, जो इतने दिनों के बाद आज इतना विशाल हो गया है। कुंवर का रूप ऐसा हो उठा, मानो इस वृक्ष को अपने अंदर रख लेगा, जिससे उसे हवा का झोंका भी न लगे। उसे एक-एक पल्लव पर चंदा की स्मृति बैठी हुई थी। पक्षियों का इतना रम्य संगीत क्या कभी उन्होंने सुना था? उनके हाथों में दम न था, सारी देह भूख-प्यास और थकान से शिथिल हो रही थी। पर, वह उस वृक्ष पर चढ़ गये, इतनी फुर्ती से चढ़े कि बंदर भी न चढ़ता। सबसे ऊंची फुनगी पर बैठकर उन्होंने चारों ओर गर्व पूर्ण दृष्टि डाली। यही उनकी कामनाओं का स्वर्ग था। सारा दृश्य चंदामय हो रहा था। दूर की नीली पर्वत-श्रेणियों पर चंदा बैठी गा रही थी। आकाश में तैरने वाली लालिमामयी नौकाओं पर चंदा की उड़ी जाती थी। सूर्य की श्वेत-पीत प्रकाश की रेखाओं पर चंदा ही बैठी हंस रही थी। कुंवर के मन में आया, पक्षी होता तो इन्हीं डालियों पर बैठा हुआ जीवन के दिन पूरे करता।

जब अंधेरा हो गया, तो कुंवर नीचे उतरे और उसी वृक्ष के नीचे थोड़ी-सी भूमि झाड़ कर पत्तियों की शय्या बनाई और लेटे। यही उनके जीवन का स्वर्ण स्वप्न था, आह, यही वैराग्य! अब वह इस वृक्ष की शरण छोड़कर कहीं न जायेंगे, दिल्ली के तख्त के लिए भी वह इस आश्रम को न छोड़ेंगे।

उसी स्निग्ध, अमल चांदनी में सहसा एक पक्षी आकर उस वृक्ष पर बैठा और दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा। ऐसा जान पड़ा मानो वह वृक्ष सिर धुन रहा है। यह नीरव रात्रि उसके वेदनामय संगीत से हिल उठी। कुंवर का हृदय इस तरह ऐंठने लगा, मानों वह फट जायेगा। स्वर में करुणा और वियोग के तीर-से भरे हुए थे। आह पक्षी! तेरा भी जोड़ा अवश्य बिछुड़ गया है। नहीं तो तेरे राग में इतनी व्यथा, इतना विषाद, इतना रुदन कहां से आता कुंवर के हृदय के टुकड़े हुए जाते थे, एक-एक स्वर तीर की भांति दिल को छेद डालता था। वह बैठे न रह सके। आकर एक आत्मविस्मृति की दशा में दौड़े हुए झोंपड़े में गये, वहां से फिर वृक्ष के नीचे आये। उस पक्षी को कैसे पाएं? कहीं दिखाई नहीं देता।

पक्षी का गाना बंद हुआ, तो कुंवर को नींद आ गई। उन्हें स्वप्न में ऐसा जान पड़ा कि वही पक्षी उनके समीप आया। कुंवर ने ध्यान से देखा, तो वहां पक्षी न था, चंदा थी, हां प्रत्यक्ष चंदा थी।

कुंवर ने पूछा – चंदा, यह पक्षी यहां कहां?

चंदा ने कहा – मैं ही तो वह पक्षी हूं।

कुंवर – तुम पक्षी हो! क्या तुम्हीं गा रही थी?

चंदा – हां प्रियतम, मैं ही गा रही थी। इस तरह रोते-रोते एक युग बीत गया।

कुंवर – तुम्हारा घोंसला कहां है?

चंदा – उसी झोंपड़े में, जहां तुम्हारी खाट थी। उसी खाट के बान से मैंने अपना घोंसला बनाया है।

कुंवर – और तुम्हारा जोड़ा कहां है?

चंदा – मैं अकेली हूं। चंदा को अपने प्रियतम के स्मरण करने में, उसके लिए रोने में जो सुख है, वह जोड़े में नहीं। मैं इसी तरह अकेली रहूंगी और अकेली मरूंगी।

कुंवर – मैं क्या पक्षी नहीं हो सकता?

चंदा चली गई। कुंवर की नींद खुली गई। उषा की लालिमा आकाश पर छाई हुई थी और वह चिड़िया कुंवर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी। अब उस संगीत में करुणा न थी, विलाप न था, उसमें आनंद था, चापल्य था, सारल्य था। वह वियोग का करुण-क्रंदन नहीं, मिलन का मधुर संगीत था।

कुंवर सोचने लगे – इस स्वप्न का क्या रहस्य है?