shikaar by munshi premchand
shikaar by munshi premchand

फटे वस्त्रों वाली मुनिया ने रानी वसुधा के चाँद-से मुखड़े की ओर सम्मान-भरी आँखों से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा-हम ग़रीबों का इस तरह कैसे निबाह हो सकता है महारानी! मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न पटे। मैं उसे घर में बैठने न दूँ। ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय।

रानी वसुधा ने गम्भीर विनोद के भाव से कहा-क्यों, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलनेवाली कौन है? मेरी जो इच्छा होगी, वह करूँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब? मैं तेरा गुलाम नहीं हूँ।

मुनिया तीन ही दिन से यहाँ लड़कों को खिलाने के लिए नौकर हुई थी। पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से अदब के साथ बात करना कभी न सीख पायी थी। उसका सूखा हुआ साँवला चेहरा उत्तेजित हो उठा। कर्कश स्वर में बोली-जिस दिन ऐसी बातें मुँह से निकालेगा, मूँछें उखाड़ लूँगी! सरकार! वह मेरा ग़ुलाम नहीं है, तो क्या मैं उसकी लौंडी हूँ? अगर वह मेरा ग़ुलाम है, तो मैं उसकी लौंडी हूँ। मैं आप नहीं खाती, उसे खिला देती हूँ, क्योंकि वह मर्द का बच्चा है। पल्लेदारी में उसे बहुत कसाला करना पड़ता है। आप चाहे फटे पहनूँ, पर उसे फटे-पुराने नहीं पहनने देती। जब मैं उसके लिए इतना करती हूँ, तो मज़ाल है कि वह मुझे आँख दिखाये। अपने घर को आदमी इसीलिए तो छाता-छोपता है कि उससे बरखा-बूँदी में बचाव हो। अगर यह डर रहे कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा? उससे तो रुख की छाँह ही कहीं अच्छी। कल न जाने कहाँ बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात-भर उससे बोली नहीं। लगा पैरों पड़ने, घिघियाने, तब मुझे दया आ गयी! यही मुझमें एक बुराई है। मुझसे उसकी रोनी सूरत नहीं देखी जाती। इसी से वह कभी-कभी बहक जाता है; पर अब मैं पक्की हो गयी हूँ, फिर किसी दिन झगड़ा किया तो या वही रहेगा, या मैं ही रहूँगी। क्यों किसी की धौंस सहूँ सरकार! जो बैठकर खाये, वह धौंस सहे! यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ।

वसुधा ने उसी गम्भीर भाव से फिर पूछा-अगर वह तुझे बिठाकर खिलाता, तब तो उसकी धौंस सहती?

मुनिया जैसे लड़ने पर उतारू हो गयी। बोली-बैठाकर कोई क्या खिलायेगा सरकार? मर्द बाहर काम करता है, तो हम भी घर में काम करती हैं, कि घर के काम में कुछ लगता ही नहीं? बाहर के काम से तो रात को छुट्टी मिल जाती है। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी नहीं मिलती। पुरुष यह चाहे कि मुझे घर में बैठाकर आप सैर-सपाटा करे, तो मुझसे तो न सहा जाय। यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गयी।

वसुधा ने थकी हुई, रुआँसी आँखों से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा बाग़ था, जिसके रंग-बिरंगे फूल यहाँ से साफ़ ऩजर आ रहे थे और पीछे एक विशाल मन्दिर आकाश में अपना सुनहला मस्तक उठाए, सूर्य से आँखें मिला रहा था। स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहने पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर के दाहिनी तरफ़ तालाब में कमल प्रभात के सुनहले आनन्द से मुस्करा रहे थे और कार्तिक की शीतल रवि-छवि जीवन-ज्योति लुटाती फिरती थी, पर प्रकृति की वह सुरम्य शोभा वसुधा को कोई हर्ष न प्रदान कर सकी। उसे जान पड़ा, प्रकृति उसकी दशा पर व्यंग्य से मुस्करा रही है। उसी सरोवर के तट पर केवट का एक टूटा-फूटा झोंपड़ा किसी अभागिन वृद्धा की भाँति रो रहा था। वसुधा की आँखें सजल हो गयीं। पुष्प और उद्यान के मध्य में खड़ा वह सूना झोंपड़ा उसके विलास और ऐश्वर्य से घिरे हुए मन का सजीव चित्र था। उसके जी में आया, जाकर झोपड़े के गले लिपट जाऊँ और ख़ूब रोऊँ!

वसुधा को इस घर में आये पाँच वर्ष हो गये। पहले उसने अपने भाग्य को सराहा था। माता-पिता के छोटे-से कच्चे आनन्नदहीन घर को छोड़कर वह एक विशाल भवन में आयी थी, जहाँ सम्पत्ति उसके पैरों को चूमती हुई जान पड़ती थी। उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखों में सब कुछ थी। पति-प्रेम गौण-सी वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्ति पर सन्तुष्ट न रह सका; पति-प्रेम के लिए हाथ फैलाने लगा। कुछ दिनों में उसे मालूम हुआ, मुझे प्रेम रत्न भी मिल गया; पर थोड़े ही दिनों में यह भ्रम जाता रहा। कुँवर गज़राजसिंह रूपवान थे, उदार थे, बलवान् थे, शिक्षित थे, विनोदप्रिय थे, और प्रेम का अभिनय करना जानते थे; पर उनके जीवन में प्रेम से कम्पित होनेवाला तार न था। वसुधा का खिला हुआ यौवन और देवताओं को लुभानेवाला रूप-रंग केवल विनोद का सामान था। घुड़दौड़ और शिकार, सट्टे और मकार जैसे सनसनी पैदा करनेवाले मनोरंजन में प्रेम दबकर पीला और निर्जीव हो गया था और प्रेम से वंचित होकर वसुधा की प्रेम तृष्णा की प्रेम तृष्णा अब अपने भाग्य को रोया करती थी। दो पुत्र-रत्न पाकर भी वह सुखी न थी। कुँवर साहब, एक महीने से ज़्यादा हुआ, शिकार खेलने गये और अभी तक लौटकर नहीं आये। और यह ऐसा पहला ही अवसर न था। हाँ, अब उनकी अवधि बढ़ गयी थी। पहले वह एक सप्ताह में लौट आते थे, फिर दो सप्ताह का नम्बर चला और अब कई बार से एक-एक महीने में ख़बर लेने लगे। साल में तीन-चार महीने शिकार की भेंट हो जाते थे। शिकार से लौटते तो घुड़दौड़ का राग छिड़ता। कभी मेरठ, कभी पूना कभी बम्बई, कभी कलकत्ता। घर पर कभी रहते, तो अधिकतर लम्पट रईसज़ादों के साथ गप्पें उड़ाया करते। पति के यह रंग-ढंग देखकर वसुधा मन-ही-मन कुढ़ती और घुलती जाती थी। कुछ दिनों से हल्का-हल्का ज्वर भर रहने लगा था।

वसुधा बड़ी देर तक बैठी उदास आँखों से यह दृश्य देखती रही। फिर टेलीफ़ोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा-कुँवर साहब का कोई पत्र आया?

फ़ोन ने जवाब दिया- जी हाँ, अभी ख़त आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।

वसुधा ने जलकर कहा-मैं यह नहीं पूछती! आने को कब लिखा है?

‘आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।’

‘यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर है?’

‘यहाँ से! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।’

‘मेरे लिए दो मोटरों का इंतज़ाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।’

फ़ोन ने कई मिनट के बाद जवाब दिया-एक मोटर तो वे साथ ले गये हैं। एक हाकिम ज़िला के बँगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में। चौथी की मरम्मत हो रही है।

वसुधा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। बोली-किसके हुक्म से बैंक के मैनेजर और हाकिम ज़िला को मोटरें भेजी गई? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज ज़रूर जाऊँगी।

‘उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं, इसलिए मैंने भेज दीं। अब आप हुक्म दे रही हैं, तो मँगवा लूँगा।’

वसुधा ने फ़ोन से आकर सफ़र का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में आकर अपना भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परित्यक्ता की भाँति पड़ी रहकर वह जीवन समाप्त न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी, अगर आप यह समझते हैं कि मैं आपकी सम्पत्ति की लौंडी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी सम्पत्ति आपको मुबारक हो! मेरा अधिकार आपकी सम्पत्ति पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे जौ-भर हटना चाहते हैं, तो मैं आपसे हाथ-भर हट जाऊँगी। इस तरह की और कितनी ही विराग-भरी बातें उसके मन में बगूलों की भाँति उठ रही थीं।

डॉक्टर साहब ने द्वार पर पुकारा-मैं अन्दर आऊँ?

वसुधा ने नम्रता से कहा-आज क्षमा कीजिए, मैं ज़रा पीलीभीत जा रही हूँ।

डॉक्टर ने आश्चर्य से कहा-आप पीलीभीत जा रही हैं। आपका ज्वर बढ़ जायेगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।

वसुधा ने विरक्त स्वर में कहा- बढ़ जायेगा, बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है।

वृद्ध डॉक्टर परदा उठाकर अन्दर आ गया और वसुधा के चेहरे की ओर ताकता हुआ बोला-लाइए, मैं टेम्परेचर ले लूँ। अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज़ न जाने दूँगा।

‘टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।’

‘स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य है।’

वसुधा ने मुस्कराकर कहा-आप निश्चित रहिए, मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ। फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे?

डॉक्टर ने दो-एक बार और आग्रह किया, फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया।

रेलगाड़ी से जाने में आख़िरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता तय करवा पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब बराबर मोटर पर ही जाते थे। वसुधा ने भी उसी मार्ग से जाने का निश्चय किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयी। वसुधा ने ड्राइवरों पर गुस्सा उतारा-अब मेरे हुक्म के बग़ैर कहीं मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी है! घर की रोयें; बन की खायें! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी ख़ुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर ख़रीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और दादे का फ़तिहा पढ़ने बैठ गये।

वह चली, तो दोनों बच्चे कुनमुनाये; मगर जब मालूम हुआ कि अम्माँ बड़ी दूर कौवा को मारने जा रही हैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठंडा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन में सोचा-मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, क्या मैंने ही इनका ठेका लिया है! वह तो वहाँ जाकर चैन करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ, लेकिन चलते समय माता का हृदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घंटे-भर में लौट आने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बालक मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ। मोटर जितने वेग से जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूूहों के साथ पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी रत्ती भर परवाह नहीं है तो मैं ही क्यों उनकी फ़िक्र में प्राण दूँ? जी चाहें आयें, या न आयें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थककर चूर-चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था; पर वह संकल्प से सारी बाधाओं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी! यहाँ तक कि जब वह दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बँगले में पहुँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न थी, ज़ोर का ज्वर चढ़ा हुआ था।