Anubhav by munshi premchand
Anubhav by munshi premchand

प्रियतम को एक वर्ष की सजा हो गयी। और अपराध केवल इतना था, कि तीन दिन पहले जेठ की तपती दोपहरी में उन्होंने राष्ट्र के कई सेवकों को शर्बत-पान से सत्कार किया था। मैं उस वक्त अदालत में खड़ी थी। कमरे के बाहर सारे नगर की राजनीतिक चेतना किसी बंदी पशु की भांति खड़ी चीत्कार कर रही थी। मेरे प्राणनाथ हथकड़ियों से जकड़े हुए लाये गये। चारों और सन्नाटा छा गया। मेरे भीतर हाहाकार मचा हुआ था, मानो प्राण पिघले जा रहे हों। आवेश की लहरें-सी उठ- उठकर समस्त शरीर को रोमांचित किये देती थीं। ओह! इतना गर्व मुझे कभी न हुआ था। वह अदालत, कुर्सी पर बैठा हुआ अंग्रेज अफ़सर, लाल जरीदार पगड़ी बांधे हुए पुलिस के कर्मचारी, सब मेरी आंखों से तुच्छ जान पड़ते थे। बार-बार जी में आता था, दौड़कर जीवन-धन के चरणों से लिपट जाऊँ और उसी दशा में प्राण त्याग दूँ। कितनी शांत अविचलित, तेज और स्वाभिमान से प्रदीप्त मूर्ति थी। ग्लानि, विषाद या शोक की छाया भी न थी। नहीं, उन ओठों पर एक स्फूर्ति से भरी हुई, मनोहारिणी, ओजस्वी मुस्कान थी। इस अपराध के लिए एक वर्ष का कठिन कारावास! वाह रे न्याय। तेरी बलिहारी है। मैं ऐसे हजार अपराध करने को तैयार थी। प्राणनाथ ने चलते समय एक बार मेरी ओर देखा, कुछ मुस्कराये, फिर उनकी मुद्रा कठोर हो गयी। अदालत से लौटकर मैंने पाँच रुपये की मिठाई मँगवायी और स्वयंसेवकों को बुलाकर खिलायी और संध्या समय मैं पहली बार कांग्रेस के जलसे में शरीक हुई, -शरीक ही नहीं हुई मंच पर जाकर बोली और सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ले ली। मेरी आत्मा में इतनी शक्ति कहां से आ गयी, नहीं कह सकती। सर्वस्व लुट जाने के बाद फिर किसका डर? विधाता का कठोर-से- कठोर आघात भी अब मेरा क्या अहित कर सकता था?

दूसरे दिन मैंने दो तार दिये-एक पिताजी को, दूसरा ससुरजी को। ससुरजी पेंशन पाते थे। पिताजी जंगल के महकमे में अच्छे पद पर थे।पर सारा दिन गुजर गया, तार का जवाब नदारद। दूसरे दिन भी कोई जवाब नहीं। तीसरे दिन दोनों महाशयों के पत्र आये। दोनों जामे के बाहर थे। ससुरजी ने लिखा-आशा थी, तुम लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे। तुमने उस आशा पर पानी फेर दिया। क्या अब चाहती हो, मैं भिक्षा मांगूं? मैं सरकार से पेंशन पाता हूँ, तुम्हें आश्रय देकर मैं अपनी पेंशन से हाथ नहीं धो सकता। पिताजी के शब्द इतने कठोर न थे, पर भाव लगभग ऐसा ही था। इसी साल उन्हें ग्रेड मिलने वाला था। वह मुझे बुलाएंगे, तो सम्भव है, ग्रेड से वंचित होना पड़े। हां, वह मेरी सहायता मौखिक रूप से करने को तैयार थे। मैंने दोनों पत्र फाड़कर फेंक दिये और फिर उन्हें कोई पत्र न लिखा। हाय स्वार्थ! तेरी माया कितनी प्रबल है। अपना ही पिता, केवल स्वार्थ में बाधा पड़ने के भय से, लड़कों की तरफ से इतना निर्दय हो जाय? अपना ही ससुर, अपनी बहू की ओर से इतना उदासीन हो जाय! मगर अभी मेरी उम्र ही क्या है?अभी तो सारी दुनिया देखने को पड़ी है।

अब तक मैं अपने विषय में निश्चित थी, लेकिन अब यह नयी चिंता सवार हुई। इस निर्जन घर में, निराधार, निराश्रय, कैसे रहूँगी, मगर जाऊंगी कहां! अगर मर्द होती, तो कांग्रेस के आश्रय में चली जाती या कोई मजदूरी कर लेती। मेरे पैरों में नारीतत्त्व की बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। अपनी रक्षा की इतनी चिंता न थी, जितनी अपने नारीतत्त्व की रक्षा की। अपनी जान की फिक्र न थी, पर नारीतत्त्व की ओर किसी की आंख भी न उठनी चाहिए।

किसी की आहट पाकर मैंने नीचे देखा। दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछे, तुम कौन हो! यहाँ क्यों खड़े हो? मगर फिर खयाल आया, मुझे यह पूछने का क्या हक? उनका रास्ता है। जिसका जी चाहे खड़ा हो।

पर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। वह एक चिनगारी की भांति हृदय के अंदर समा गयी थी।

गर्मी से देह फूंकी जाती थी, पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बंद कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शंका सामने बैठी घूरती हुई मालूम होती थी।

किसी ने पुकारा। मेरे रोये खड़े हो गये! मैंने द्वार से कान लगाया। कोई मेरी कुंडी खटखटा रहा था। कलेजा धक-धक करने लगा। यही दोनों बदमाश होंगे। क्यों कुंडी खड़खड़ा रहे हैं? मुझसे क्या काम है? मुझे झुँझलाहट आ गयी। मैंने द्वार न खोला और छज्जे पर खड़ी होकर जोर से बोली- ‘कौन कुण्डी खड़खड़ा रहा है?’

आवाज सुनकर मेरी शंका शांत हो गयी। कितना ढाढस हो गया! यह बाबू ज्ञानचंद्र थे। मेरे पति के मित्रों में इनसे ज्यादा सज्जन दूसरा नहीं है। मैंने नीचे जाकर द्वार खोल दिया। देखा तो एक स्त्री भी थी। वह मिसेज ज्ञानचंद थीं। वह मुझसे बड़ी थीं। पहले-पहल मेरे घर आयी थीं। मैंने उनके चरण-स्पर्श किये! हमारे यहाँ मित्रता मर्दों ही तक रहती है, औरतों तक नहीं जाने पाती।

दोनों जने ऊपर आये। ज्ञान बाबू एक स्कूल में मास्टर हैं। बड़े उदार, विद्वान्, निष्कपट पर आज मुझे मालूम हुआ कि उनकी पथ-प्रदर्शिका उनकी स्त्री हैं। वह दोहरे बदन की, प्रतिभाशाली महिला थीं। चेहरे पर ऐसा रौब था, मानो कोई रानी हों। सिर से पाँव तक गहनों से लदी हुई। मुख सुन्दर न होने पर भी आकर्षक था। शायद मैं उन्हें कहीं और देखती तो मुँह फेर लेती। गर्व की राजीव प्रतिमा थीं, पर बाहर जितनी कठोर, भीतर उतनी ही दयालु।

‘घर कोई पत्र लिखा?’- यह प्रश्न उन्होंने कुछ हिचकते हुए किया।

मैंने कहा-‘हाँ लिखा था।’

‘कोई लेने आ रहा है?’

‘जी नहीं। न पिताजी अपने पास रखना चाहते हैं, न ससुरजी।’

‘तो फिर?’

‘फिर क्या, अभी तो यहीं पड़ी हूँ।’

‘तो मेरे घर क्यों नहीं चलती। अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूँगी।’

‘खुफिया के दो आदमी इस वक्त भी डटे हुए हैं।’

‘मैं पहले ही समझ गयी थी, दोनों खुफिया के आदमी होंगे।’ ज्ञान बाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उसकी आज्ञा से कहा-‘तो मैं जाकर ताँगा लाऊँ?’

देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हों, क्या अभी तुम यही खड़े हो? मास्टर साहब चुपके से द्वार की ओर चले।

‘ठहरो! ‘ देवीजी बोली- ‘कै ताँगे लाओगे?’

‘कै’ मास्टर साहब घबड़ा गए।

‘हां कै, एक ताँगे पर दो-तीन सवारियाँ ही बैठेंगी। संदूक, बिछावन, बर्तन- आदि क्या मेरे सिर पर जाएँगे?’

‘तो दो लेता आऊंगा।’- मास्टर साहब डरते-डरते बोले।

‘एक ताँगे में कितना सामान भर दोगे?’

‘तो तीन लेता आऊँ?’

‘अरे, तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घंटा भर लगा दिया।’

मैं कुछ कहने न पायी थी कि ज्ञान बाबू चल दिये। मैंने सकुचाते हुए कहा- ‘बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और…

देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा- ‘हाँ होगा तो अवश्य। तुम दोनों जून दो- तीन पाव आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में दो- तीन आने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है।’

मैंने झेंपते हुए कहा- ‘आप तो मुझे बना रही हैं।’

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कंधा पकड़कर कहा- ‘जब तुम्हारे बाबूजी लौट आयें, तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेना। मेरा घाटा पूरा हो जायेगा। अब तो राजी हुईं। चलो, असबाब बाँधो। खाट-वाट कल मँगवा लेंगे।’