shikaar by munshi premchand
shikaar by munshi premchand

शिकारों का वृत्तांत सुनने की वसुधा को चाट-सी पड़ गयी। कुँवर साहब को कई-कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ही न भरता था। अब तक कुँवर साहब का संसार अलग था, जिसके दु:ख-सु:ख, हानि-लाभ, आशा-निराशा से वसुधा को कोई सरोकार न था। वसुधा को इस संसार के व्यापार से कोई रुचि न थी, बल्कि अरुचि थी। कुँवर साहब इस पृथक् संसार की बातें उससे छिपाते थे; पर अब वसुधा उनके इस संसार में एक उज्ज्वल प्रकाश, एक वरदानोंवाली देवी के समान हो गयी थी।

एक दिन वसुधा ने आग्रह किया-मुझे बंदूक चलाना सिखा दो।

डॉक्टर साहब की अनुमति मिलने में विलम्ब न हुआ। वसुधा स्वस्थ हो गयी थी। कुँवर साहब ने शुभ मुहुर्त में उसे दीक्षा दी। उस दिन से जब देखो, वृक्षों की छाँह में खड़ी निशाने का अभ्यास कर रही है और कुँवर साहब खड़े उसकी परीक्षा ले रहे हैं।

जिस दिन उसने पहली चिड़िया मारी, कुँवर साहब हर्ष से उछल पड़े। नौकरों को इनाम दिये गये, ब्राह्मणों को दान दिया गया। इस आनंद की शुभ स्मृति में उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी।

वसुधा के जीवन में अब एक नया उत्साह, एक नया उल्लास, एक नयी आशा थी। पहले की भाँति उसका वंचित हृदय अशुभ कल्पनाओं से त्रस्त न था। अब उसमें विश्वास था, बल था, अनुराग था।

कई दिनों के बाद वसुधा की साध पूरी हुई। कुँवर साहब उसे साथ लेकर शिकार खेलने पर राज़ी हुए और शिकार था शेर का और शेर भी वह, जिसने इधर एक महीने से आसपास के गाँवों में तहलका मचा दिया था।

चारों तरफ़ अंधकार था, ऐसा सघन कि पृथ्वी उसके भार से कराहती हुई जान पड़ती थी। कुँवर साहब और वसुधा एक ऊँचे मचान पर बंदूकें लिए मद साधे बैठे हुए थे। यह भयंकर जंतु था। अभी पिछली रात को वह एक सोते हुए आदमी को खेत में मचान पर से खींचकर ले भागा था। उसकी चालाकी पर लोग दाँतों तले अँगुली दबाते थे। मचान इतना ऊँचा था कि शेर उछलकर न पहुँच सकता था। हाँ, उसने यह देख लिया कि वह आदमी मचान पर बाहर की तरफ़ सिर किये सो रहा था। दुष्ट को एक चाल सूझी। वह पास के गाँव में गया और वहाँ से एक लम्बा बाँस उठा लाया। बाँस के एक सिरे को उसने दाँतों से कुचला और जब उसकी कूँची-सी बन गयी, तो उसे न जाने अगले पंजों या दाँतों से उठाकर सोनेवाले आदमी के बालों में फिराने लगा। वह जानता था, बाल बाँस के रेशों में फँस जाएँगे। एक झटके में वह अभागा आदमी नीचे आ रहा। इसी मानुसभक्षी शेर की घात में दोनों शिकारी बैठे हुए थे। नीचे कुछ, दूर पर भैंसा बाँध दिया गया था और शेर के आने की राह देखी जा रही थी। कुँवर साहब शांत थे; पर वसुधा की छाती धड़क रही थी। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता तो वह चौंक पड़ती और बंदूक सीधी करने के बदले चौंककर कुँवर साहब से चिमट जाती। कुँवर साहब बीच-बीच में उसको हिम्मत बँधाते जाते थे।

‘ज्यों ही भैंसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूँगा। तुम्हारी गोली की नौबत ही न आने पायेगी।’

वसुधा ने सिहरकर कहा-और जो कहीं निशाना चूक गया तो उछलेगा?

‘तो फिर दूसरी गोली चलेगी। तीनों बन्दूकें तो भरी तैयार रखी हैं। तुम्हारा जी घबड़ाता तो नहीं?’

‘बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ, पहला मेरा निशाना होता।’

पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंककर पति के कंधों से लिपट गयी। कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा-दिल मज़बूत करो प्रिये! वसुधा ने लज्जित होकर कहा-नहीं-नहीं, मैं डरती नहीं, ज़रा चौंक पड़ी थी?

सहसा भैंसे के पास दो चिनगारियाँ-सी चमक उठीं। कुँवर साहब ने धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतर्क हो गये। जब शेर भैंसे पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। खाली गया। दूसरा फैर किया, शेर जख़्मी तो हुआ, पर गिरा नहीं। क्रोध से पागल होकर इतने ज़ोर से गरजा कि वसुधा का कलेजा दहल उठा। कुँवर साहब तीसरा फैर करने जा रहे थे कि शेर ने मचान पर जस्त मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला कि कुँवर साहब हाथ में बंदूक लिए झोंके से नीचे गिर पड़े। कितना भीषण अवसर था! अगर एक पल का भी विलम्ब होता, तो कुँवर साहब की खैरियत न थी। शेर की जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थीं। उसकी दुर्गन्धमय साँस देह में लग रही थी। हाथ-पाँव फूले हुए थे। आंखें भीतर को सिकुड़ी जा रही थीं; पर इस ख़तरे ने जैसे उसकी नाड़ियों में बिजली भर दी। उसने अपनी बंदूक सँभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज़्यादा अंतर न था। वह उचककर आना ही चाहता था वसुधा ने बंदूक की नली उसकी आँखों में डालकर बंदूक छोड़ी। धायँ! शेर के पंजे ढीले पड़े। नीचे गिर पड़ा। अब समस्या और भीषण थी। शेर से तीन ही चार कदम पर कुँवर साहब गिरे थे। शायद चोट ज़्यादा आयी हो। शेर में अगर अभी दम है, तो वह उन पर ज़रूर वार करेगा। वसुधा के प्राण आँखों में थे और बल कलाइयों में। इस वक्त कोई उसकी देह में भाला भी चुभा देता, तो उसे ख़बर न होती। वह अपने होश में न थी। उसकी मूर्च्छा ही चेतना का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलायी। देखा, शेर उठने की चेष्टा कर रहा है। दूसरी गोली सिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शेर ज़ोर से गुर्राया, वसुधा ने उसके मुँह के सामने रिवाल्वर खाली कर दिया। कुँवर साहब सँभलकर खड़े हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया। अरे! यह क्या! वसुधा बेहोश थी। भय उसके प्राणों को मुट्ठी में लिये उसकी आत्म-रक्षा कर रहा था। भय के शांत होते ही मूर्च्छा आ गयी।

तीन घंटे के बाद वसुधा की मूर्च्छा टूटी। उसकी चेतना अब भी उसी भयप्रद परिस्थितियों में विचर कर रही थी। उसने धीरे से डरते-डरते आँखें खोलीं। कुँवर साहब ने पूछा-‘कैसा जी है प्रिये?’

वसुधा ने उनकी रक्षा के लिए दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए कहा-वहाँ से हट जाओ। ऐसा न हो, झपट पड़े।

कुँवर साहब ने हँसकर कहा-शेर कब का ठंडा हो गया। वह बरामदे में पड़ा है। ऐसे डील-डौल का, और इतना भयंकर शेर मैंने नहीं देखा।

वसुधा-तुम्हें चोट तो नहीं आयी?

कुँवर-बिलकुल नहीं। तुम कूद क्यों पड़ीं? पैरों में बड़ी चोट आयीं होगी। तुम कैसे बचीं, यह आश्चर्य है। मैं तो इतनी ऊँचाई से कभी न कूद सकता।

वसुधा ने चकित होकर कहा-मैं! मैं कहाँ कूदी? शेर मचान पर आया, इतना याद है। इसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं।

कुँवर को भी विस्मय हुआ-वाह! तुमने उस पर दो गोलियाँ चलायीं। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ीं और उसके मुँह में रिवाल्वर की नली, ठूँस दी, बस, वहीं ठंडा हो गया। बड़ा बेहया जानवर था। अगर तुम चूक जातीं, तो वह नीचे आते ही मुझ पर ज़रूर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भी न थी। बंदूक हाथ से छूटकर दूसरी तरफ़ गिर गयी थी। अँधेरे में कुछ सुझाई न देता था। तुम्हारे ही प्रसाद से इस वक्त मैं यहाँ खड़ा हूँ। तुमने मुझे प्राणदान दिया।

दूसरे दिन प्रात:काल यहाँ से कूच हुआ।

जो घर वसुधा को फाड़े खाता था, उसमें आज जाकर ऐसा आनंद आया, जैसे किसी बिछुड़े मित्र से मिली हो। हरेक वस्तु उसका स्वागत करती हुई मालूम होती थी। जिन नौकरों और लौंड़ियों से वह महीनों से सीधे मुँह न बोली थी, उनसे वह आज हँस-हँसकर कुशल पूछती और गले मिलती थी, जैसे अपनी पिछली रुखाइयों की पटौती कर रही हो।

संध्या का सूर्य, आकाश के स्वर्ण-सागर में अपनी नौका खेता हुआ चला जा रहा था। वसुधा खिड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य देखने लगी। उस दृश्य में आज जीवन था, विकास था, उन्माद था। केवट का वह सूना झोंपड़ा भी आज कितना सुहावना लग रहा था। प्रकृति में मोहनी भरी हुई थी।

मन्दिर के सामने मुनिया राजकुमारों को खिला रही थी। वसुधा के मन में आज कुलदेव के प्रति श्रद्धा जागृत हुई, जो बरसों से पड़ी सो रही थी। उसने पूजा के सामान मँगवाये और पूजा करने चली। आनंद से भरे भंडार से अब वह दान भी कर सकती थी। जलते हुए हृदय से ज्वाला के सिवा और क्या निकलती!

उसी वक्त कुँवर साहब आकर बोले-अच्छा, पूजा करने जा रही हो। मैं भी वहीं जा रहा था। मैंने एक मनौती मान रखी है।

वसुधा ने मुस्कराती हुई आँखों से पूछा-कैसी मनौती है?

कुँवर साहब ने हँसकर कहा-यह न बताऊँगा।