Kamna-Taru by Munshi Premchand
Kamna-Taru by Munshi Premchand

कुंवर ने शय्या से उठते ही एक झाडू बनाई और झोंपड़े को साफ करने लगे। उनके जीते-जी इसकी यह भग्न दशा नहीं रह सकती। वह इसकी दीवारें उठाएंगे, इस पर छप्पर डालेंगे, इसे लीपेंगे। इसमें उनकी चंदा की स्मृति वास करती है। झोंपड़े के एक कोने में वह कांवर रखी हुई थी, जिसमें पानी ला-लाकर वह इस वृक्ष को सींचते थे। उन्होंने कांवर उठा ली और पानी लाने चले। दो दिन से कुछ भोजन न किया। रात को भूख लगी हुई थी पर इस समय भोजन की बिलकुल इच्छा न थी। देह में एक अद्भुत स्फूर्ति का अनुभव होता था। उन्होंने नदी से पानी ला-लाकर मिट्टी भिगोना शुरू किया। दौड़े जाते थे और दौड़े आते थे। इतनी शक्ति उनमें कभी न थी।

एक ही दिन में इतनी दीवार उठ गई, जितनी चार मजदूर भी न उठा सकते थे। और कितनी सीधी, चिकनी दीवार थी कि कारीगर भी देखकर लज्जित हो जाते। प्रेम की शक्ति अपार है।

संध्या हो गई। चिड़ियों ने बसेरा लिया। वृक्षों ने भी आंखें बंद की, मगर कुंवर को आराम कहां। तारों के मलिन प्रकाश में मिट्टी के रद्दे रखे जा रहे थे। हाय रे कामना! क्या तू इस बेचारे के प्राण ही लेकर छोड़ेगी?

वृक्ष पर पक्षी का मधुर स्वर सुनाई दिया। कुंवर के हाथों से घड़ा टूट पड़ा। हाथ और पैरों में मिट्टी लपेटकर वह वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए। उस स्वर में कितना लालित्य था, कितना उल्लास, कितनी ज्योति! मानव संगीत इसके सामने बेसुरा आलाप था। उसमें यह जागृति, यह अमृत, यह जीवन कहां? संगीत के आनन्द में विस्मृति है, पर वह विस्मृति कितनी स्मृतिमय होती है? अतीत को जीवन और प्रकाश से रंजित करके प्रत्यक्ष कर देने की शक्ति संगीत के सिवा और कहां है? कुंवर के हृदय-नेत्रों के सामने वह दृश्य खड़ा हुआ, जब चंदा इसी पौधे को नदी से जल ला-लाकर सींचती थी। हाय, क्या वे दिन फिर आ सकते हैं।

सहसा एक बटोही आकर खड़ा हो गया और कुंवर को देखकर वह प्रश्न करने लगा, जो साधारणतः दो अपरिचित प्राणियों में हुआ करते हैं – कौन हो, कहां से आते हो, कहां जाओगे? पहले वह भी इसी गांव में रहता था, पर जब गांव उजड़ गया, तो समीप के एक दूसरे गांव में जा बसा था। अब भी उसके खेत यहां थे। रात को जंगली पशुओं से अपने खेतों की रक्षा करने के लिए वह यही आकर सोता था।

कुंवर ने पूछा – तुम्हें मालूम है, इस गांव में कुबेर सिंह ठाकुर रहते थे?

किसान ने बड़ी उत्सुकता से कहा – हां-हां, भाई, जानता क्यों नहीं! बेचारे यही तो मारे गए। तुमसे भी क्या जान-पहचान थी?

कुंवर – हां, उन दिनों कभी-कभी आया करता था। मैं भी राजा की सेवा में नौकर था। उनके घर में और कोई न था?

किसान – अरे भाई, कुछ न पूछो, बड़ी करुणा-कथा है। उसकी स्त्री तो पहले ही मर चुकी थी। केवल लड़की बच रही थी। आह! कैसी सुशीला, कैसी सुघड़ वह लड़की थी। उसे देखकर आंखों में ज्योति आ जाती थी। बिलकुल स्वर्ग की देवी जान पड़ती थी। जब कुबेर सिंह जीता था, तभी कुंवर राजनाथ यहां भागकर आये थे और उसके यहां रहे थे। उस लड़की की कुंवर से कहीं बातचीत हो गई। जब कुंवर को शत्रुओं ने पकड़ लिया, तो चंदा घर में अकेली रह गई। गांव वालों ने बहुत चाहा कि उसका विवाह हो जाये। उसके लिए वरों का जोड़ न था भाई! ऐसा कौन था, जो उसे पाकर अपने को धन्य न मानता, पर वह किसी से विवाह करने पर राजी न हुई? यह पेड़, तो तुम देख रहे हो, तब छोटा-सा पौधा था। इसके आस-पास फूलों की कई क्यारियां थी। इन्हीं को गोड़ने, सींचने में उसका दिन कटता था। बस, यही कहती थी कि हमारे कुंवर साहब आते होंगे।

कुंवर की आंखों से आंसू की वर्षा होने लगी। मुसाफिर ने जरा दम लेकर कहा – दिन-दिन घुलती जाती थी। तुम्हें विश्वास न आएगा भाई, उसने दस साल इसी तरह काट दिए। इतनी दुर्बल हो गई थी कि पहचानी न जाती थी, पर अब भी उसे कुंवर साहब के आने की आशा बनी हुई थी। आखिर एक दिन इसी वृक्ष के नीचे उसकी लाश मिली। ऐसा प्रेम कौन करेगा, भाई! कुंवर न जाने मरे कि जिए, कभी उन्हें इस विरहिणी की याद भी आती है कि नहीं, पर इसने तो प्रेम को ऐसा निभाया – जैसा चाहिए।

कुंवर को ऐसा जान पड़ा, मानो हृदय फटा जा रहा है। वह कलेजा थाम कर बैठ गया। मुसाफिर के हाथ में एक सुलगता हुआ उपला था। उसने चिलम भरी और दो-चार दम लगाकर बोला – उसके मरने के बाद यह घर गिर गया। गांव पहले ही उजाड़ था। अब तो और भी सुनसान हो गया। दो-चार आदमी यहां आ बैठते थे। अब तो चिड़िया-पूत भी यहां नहीं आता। उसके मरने के कई महीने के बाद यही चिड़िया इस पेड़ पर बोलती हुई सुनाई दी। तब से बराबर इसे यहां बोलते सुनता हूं। रात को सभी चिड़िया सो जाती हैं, पर यह रात भर बोलती रहती है। इसका जोड़ा कभी नहीं दिखाई दिया। बस, फुट्टैल है। दिनभर उसी झोंपड़े में पड़ी रहती है। रात को इस पेड़ पर आकर बैठती है। मगर-इस समय इसके गाने में कुछ और ही बात है, नहीं तो सुनकर रोना आता है। ऐसा जान पड़ता है, मानो कोई कलेजे को मसोस रहा है। मैं तो कभी-कभी पड़े-पड़े रो दिया करता हूं। सब लोग कहते हैं कि यह वहीं चंदा है। अब भी कुंवर के वियोग में विलाप कर रही है। मुझे भी ऐसा ही जान पड़ता है। आज जाने क्यों मगन है।

किसान तम्बाकू पीकर सो गया। कुंवर कुछ देर तक खोए हुए से खड़े रहे। फिर धीरे से बोले – चंदा, क्या सचमुच तुम्हीं हो, मेरे पास क्यों नहीं आती?

एक क्षण में चिड़िया आकर उनके हाथ पर बैठ गई। चन्द्रमा के प्रकाश में कुंवर ने चिड़िया को देखा। ऐसा जान पड़ा, मानों उसकी आंखें खुल गई हो, मानों आंखों के सामने से कोई आवरण हट गया हो। पक्षी के रूप में भी चंदा की मुखाकृति अंकित थी।

दूसरे दिन किसान सोकर उठा तो कुंवर की लाश पड़ी हुई थी।

कुंवर अब नहीं हैं, किंतु उनके झोंपड़े की दीवारें बन गई हैं, ऊपर फूस का नया छप्पर पड़ गया है, और झोंपड़े के द्वार पर फूलों की कई क्यारियां लगी हुई हैं। गांव के किसान इससे अधिक और क्या कर सकते थे?

उस झोंपड़े में अब पक्षियों के एक जोड़े ने अपना घोंसला बनाया है। दोनों साथ-साथ दाने-चारे की खोज में जाते हैं, साथ-साथ आते हैं, रात को दोनों उसी वृक्ष की डाल पर बैठे दिखाई देते हैं। उनका सुरम्य संगीत रात की नीरवता में दूर तक सुनाई देता है। वन के जीवन-जन्तु वह स्वर्गीय गान सुनकर मुग्ध हो जाते हैं।

यह पक्षियों का जोड़ा कुंवर और चंदा का जोड़ा है, इसमें किसी को भी संदेह नहीं है। एक बार एक व्याध ने इन पक्षियों को फंसाना चाहा, पर गांव वालों ने उसे मारकर भगा दिया।