nairaashy by munshi premchand
nairaashy by munshi premchand

बाज आदमी अपनी स्त्री से इसलिए नाराज रहते हैं कि उसके लड़कियाँ ही क्यों होती हैं, लड़के क्यों नहीं होते। वह जानते हैं कि इसमें स्त्री का दोष नहीं है, या है तो उतना ही जितना मेरा, फिर भी जब देखिए, स्त्री से रूठे रहते हैं, उसे अभागिनी कहते हैं और सदैव उसका दिल दुखाया करते हैं। निरुपमा उन्हीं अभागिनी स्त्रियों में थीं और घमण्डी लाल त्रिपाठी उन्हीं अत्याचारी पुरुषों में। निरुपमा के तीन बेटियाँ लगातार हुई थी और वह सारे घर की निगाहों से गिर गई थी। सास-ससुर की अप्रसन्नता की तो उसे विशेष चिन्ता न थी, वे पुराने जमाने के लोग थे, जब लड़कियाँ गर्दन का बोझ और पूर्वजन्मों का पाप समझी जाती थीं। हां, उसे दुःख अपने पतिदेव की अप्रसन्नता का था, जो पढ़े-लिखे आदमी होकर भी उसे जली-कटी सुनाते रहते थे। प्यार करना तो दूर रहा, निरुपमा से सीधे मुँह बात न करते, -कई दिनों तक घर ही में न आते और आते भी तो कुछ इस तरह खिंचे-तने हुए रहते कि निरुपमा थर-थर काँपती रहती थी, कहीं गरज न उठें। घर में धन का अभाव न था, पर निरुपमा को कभी यह साहस न होता था कि किसी सामान्य वस्तु की इच्छा भी प्रकट कर सके। वह समझती थी, मैं यथार्थ में अभागिनी हूँ नहीं तो क्या भगवान मेरी कोख में लड़कियाँ ही रचते। पति की एक मृदु मुस्कान के लिए, एक मीठी बात रहे लिए उसका हृदय तड़प कर रह जाता था। यहाँ तक कि वह अपनी लड़कियों को प्यार करते हुए सकुचाती थी कि लोग कहेंगे, पीतल की नथ पर इतना गुमान करती है। जब त्रिपाठी जी के घर में अपने आने का समय होता, तो किसी-न-किसी बहाने से वह लड़कियों को उनकी आँखों से दूर कर देती थी। सबसे बड़ी विपत्ति यह थी कि त्रिपाठी जी ने धमकी दी थी कि अब अगर कन्या हुई तो मैं घर छोड़कर निकल जाऊंगा, इस नरक में क्षण-भर भी न ठहरूंगा। निरुपमा को वह चिंता और भी खाए जाती थी।

वह मंगल का व्रत रखती थी, रविवार, निर्जला एकादशी और न जाने कितने व्रत करती थी। स्नान-पूजा तो नित्य का नियम था, पर किसी अनुष्ठान से मनोकामना न पूरी होती थी। नित्य अवहेलना, तिरस्कार, उपेक्षा, अपमान सहते-सहते उसका चित्त संसार से विरक्त होता जाता था। जहाँ कान एक मीठी बात के लिए, आँखें एक प्रेम-दृष्टि के लिए, हृदय एक आलिंगन के लिए तरस-कर रह जाए, घर में अपनी कोई बात न पूछे, वहाँ जीवन से क्यों न अरुचि हो जाए?

एक दिन घोर निराशा की दशा में उसने अपनी बड़ी भाभी को एक पत्र लिखा। उसके एक-एक अक्षर से असह्य-वेदना टपक रही थी। भाभी ये उत्तर दिया- तुम्हारे भैया जल्द तुम्हें विदा कराने जायेंगे। यहाँ आजकल एक सच्चे महात्मा आये हुए हैं, जिनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं जाता। यहाँ कई संतानहीन स्त्रियाँ उनके आशीर्वाद से पुत्रवती हो गईं। पूर्ण आशा है कि तुम्हें भी उनका आशीर्वाद कल्याणकारी होगा।

निरुपमा ने यह पत्र पति को दिखाया। त्रिपाठी जी उदासीन भाव से बोले- सृष्टि-रचना महात्माओं के हाथ का काम नहीं, ईश्वर का काम है।

निरुपमा – हाँ, लेकिन महात्माओं में भी तो कुछ सिद्धि होती है।

घमंडी लाल- हां, होती है, पर ऐसे महात्माओं के दर्शन दुर्लभ हैं।

निरुपमा- मैं तो इस महात्मा के दर्शन करूंगी।

घमंडी लाल- चली जाना।

निरुपमा -जब बांझिनी के लड़के हुए, तो मैं क्या उनसे भी गयी-गुजरी हूँ?

घमंडी लाल- कह तो दिया भाई, चली जाना। यह करके भी देख लो। मुझे तो ऐसा मालूम होता है, पुत्र का मुख देखना हमारे भाग्य में ही नहीं है।

कई दिन बाद निरुपमा अपने भाई के साथ मैके गयी। तीनों पुत्रियाँ भी साथ थीं। भाभी ने उन्हें प्रेम से गले लगाकर कहा- तुम्हारे घर के आदमी बड़े निर्दयी हैं। ऐसे गुलाब के फूलों की-सी लड़कियाँ पाकर भी तकदीर को रोते हैं। तुम्हें भारी हों, तो मुझे दे दो। जब ननद और भाभी भोजन करने बैठी, तो निरुपमा ने कहा- वह महात्मा कहां रहते हैं?

भाभी – ऐसी जल्दी क्या है, बता दूँगी।

निरुपमा- है नगीच ही न?

भाभी- बहुत नगीच। जब कहोगी, उन्हें बुला दूँगी।

निरुपमा- तो क्या तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हैं?

भाभी- दोनों वक्त यही भोजन करते हैं। यहीं रहते हैं।

निरुपमा- जब घर ही वैद्य, तो मरिये क्यों? आज मुझे उनके दर्शन करा देना।

भाभी- भेंट क्या दोगी?

निरुपमा- मैं किस लायक हूँ?

भाभी- अपनी सबसे छोटी लड़की दे देना।

निरुपमा- चलो, गाली देती हो।

भाभी- अच्छा यह न सही, एक बार उन्हें प्रेमालिंगन करने देना।

निरुपमा- भाभी, मुझसे ऐसी हँसी करोगी, तो मैं चली जाऊंगी।

भाभी- वह महात्मा बड़े रसिया हैं।

निरुपमा -तो चूल्हे में जाएं। कोई दुष्ट होगा।

भाभी- उनका आशीर्वाद तो इसी शर्त पर मिलेगा। वह और कोई भेंट स्वीकार ही नहीं करते।

निरुपमा- तुम तो यों बातें कर रही हो, मानो उनकी प्रतिनिधि हो।

भाभी- हां, वह यह सब विषय मेरे ही द्वारा तय किया करते हैं। मैं ही भेंट लेती हूँ, मैं ही आशीर्वाद देती हूँ, मैं ही उनके हितार्थ भोजन कर लेती हूँ।

निरुपमा- तो यह कहो कि तुमने मुझे बुलाने के लिए यह हीला निकाला है।

भाभी- नहीं, उनके साथ ही तुम्हें कुछ ऐसे गुर बता दूँगी, जिससे तुम अपने घर आराम से रहो।

इसके बाद दोनों सखियों में कानाफूसी होने लगी। जब भाभी चुप हुई तो निरुपमा बोली- और जो कहीं कहीं कन्या ही हुई तो?