विपिन बाबू के लिए स्त्री ही संसार की सबसे सुंदर वस्तु थी। वह कवि थे और उनकी कविता के लिए स्त्रियों के रूप और यौवन की प्रशंसा ही सबसे चित्ताकर्षक विषय था। उनकी दृष्टि में स्त्री, जगत् में व्याप्त कोमलता, और अलंकार की सजीव प्रतिमा थी। जबान पर स्त्री का नाम आते ही आँखें जगमगा उठती थीं, कान खड़े हो जाते थे, मानों किसी रसिक ने गान की आवाज सुन ली हो। जब से होश सँभाला, तभी से उन्होंने उस सुन्दरी की कल्पना करनी शुरू की, जो उनके हृदय की रानी होगी, इसमें उषा की प्रफुल्लता होगी, पुष्प की कोमलता, कुन्दन की चमक, वसन्त की छवि, कोयल की ध्वनि- वह कवि वर्णित सभी उपमाओं से विभूषित होगी। यह उस कल्पित मूर्ति के उपासक थे, कविताओं में उसका गुण गाते, मित्रों से उनकी चर्चा करते, नित्य उसी के खयाल में मस्त रहते थे। वह दिन भी समीप आ गया था, अब उनकी आशाएँ हरे-हरे पत्तों से लहराएगी, उनकी मुरादें, पूरी होंगी। कॉलेज की अन्तिम परीक्षा समाप्त हो गई थी और विवाह के संदेशे आने लगे थे।
विवाह तय हो गया। विपिन बाबू ने कन्या को देखने का बहुत आग्रह किया, लेकिन जब उनके मामू ने विश्वास दिलाया कि लड़की बहुत ही रूपवती है, मैंने उसे अपनी आँखों से देखा है, तब वह राजी हो गए। धूमधाम से बारात निकली और विवाह का मुहूर्त आया। वधू आभूषणों से सजी हुई मण्डप में आयी, तो विपिन को उसके हाथ-पाँव नजर आए। कितनी सुंदर उँगलियाँ थीं, मानो दीप शिखाएँ हों, अंगों की शोभा कितनी मनोहारिणी थी। विपिन फूले न समाए। दूसरे दिन वधू विदा हुई, तो वह उसके दर्शनों के लिए इतने अधीर हुए कि ज्यों ही रास्ते में कहारों ने पालकी रखकर मुँह-हाथ धोना शुरू किया, आप चुपके से वधू के पास जा पहुँचे। वह घूंघट हटाए, पालकी से सिर निकाले बाहर झाँक रही थी। विपिन की निगाह उस पर पड़ गई। घृणा, क्रोध, और निराशा की एक लहर-सी उन पर दौड़ गई। यह वह परम सुंदरी रमणी न थी, जिसकी उन्होंने कल्पना की थी, जिसकी वह बरसों से कल्पना कर रहे थे- यह एक चौड़े मुँह, चिपटी नाक और फूले हुए गालों वाली कुरूपा स्त्री थी। रंग गोरा था, पर उसमें लाली के बदले सफेदी थी, और फिर रंग कैसा ही सुन्दर हो, रूप की कमी नहीं पूरी कर सकता। विपिन का सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया- हां, इसे मेरे ही गले पड़ना था। क्या इसके लिए समस्त संसार में और कोई न मिलता था? उन्हें अपने मामू पर क्रोध आया, जिसने वधू की तारीफ के पुल बाँध दिए थे। अगर इस वक्त वह मिल जाते, तो विपिन उनकी ऐसी खबर लेता कि वह भी याद करते।
जब कहारों ने पालकी उठायी, तो विपिन मन में सोचने लगा, इस स्त्री के साथ मैं कैसे बोलूंगा, कैसे इसके साथ जीवन काटूंगा। इसकी ओर तो ताकने ही से घृणा होती है। ऐसी कुरूपा स्त्रियाँ भी संसार में हैं, इसका मुझे अब तक पता न था। क्या मुंह ईश्वर ने बनाया है, क्या आँखें हैं। मैं और सारे ऐबों की ओर से आँखें बन्द कर लेता, लेकिन यह चौड़ा-सा मुँह! भगवान्! क्या तुम्हें मुझ पर यह वज्रपात करना था?
विपिन को अपना जीवन नरक-सा जान पड़ता था। वह अपने मामू से लड़ा, ससुर को एक लम्बा फर्रा लिखकर फटकारा, माँ-जाप से हुज्जत की और जब इसमें शान्ति न हुई, तो कहीं भाग जाने की बात सोचने लगा। आशा पर उसे दया अवश्य आती थी, वह अपने को समझाता कि इसमें उस बेचारी का क्या दोष है, उसने जबरदस्ती तो मुझसे विवाह किया नहीं। लेकिन यह दया और यह विचार उस घृणा को न जीते सकता था, जो आशा को देखते ही उसके रोम-रोम में व्याप्त हो जाती थी। आशा अपने अच्छे-से-अच्छे कपड़े पहनती, तरह-तरह से बाल सँवारती, घंटों आइने के सामने खड़ी होकर अपना श्रृंगार करती, लेकिन विपिन को यह शुतुरगमजे से मालूम होते। वह दिल से चाहती थी कि इन्हें प्रसन्न करूँ, उनकी सेवा करने के लिए अवसर खोजा करती थी, लेकिन विपिन उससे भागा-भागा फिरता था। अगर कभी भेंट हो भी जाती, तो कुछ ऐसी जली-कटी बातें कहने लगता कि आशा रोती हुई वहाँ से चली जाती।
सबसे बुरी बात यह थी कि उसका चरित्र भ्रष्ट होने लगा। वह यह भूल जाने की चेष्टा करने लगा कि मेरा विवाह हो गया है। कई-कई दिनों तक आशा को उसके दर्शन भी न होते। वह उसके कहकहों की आवाजें बाहर से आती हुई सुनती, झरोखे से देखती कि वह दोस्तों के गले में हाथ डाले सैर करने जा रहे हैं, और तड़प कर रह जाती।
एक दिन खाना खाते समय उसने कहा- ‘अब तो आपके दर्शन ही नहीं होते। क्या मेरे कारण घर छोड़ दीजिएगा?’
विपिन ने मुँह फेरकर कहा- ‘घर ही पर तो रहता हूँ। आजकल जरा नौकरी की तलाश है, इसलिए दौड़-धूप ज्यादा करता हूँ।’
आशा- ‘किसी डॉक्टर से मेरी सूरत क्यों नहीं बनवा देते! सुनती हूँ आजकल सूरत बनानेवाला डॉक्टर पैदा हुए हैं।’
विपिन- ‘क्यों नाहक में चिढ़ाती हो, यहाँ तुम्हें किसने बुलाया था?’
आशा- ‘आखिर इस मर्ज की दवा कौन करेगा?’
विपिन- ‘इस मर्ज की दवा नहीं है। जो काम ईश्वर से न करते बना, उसे आदमी क्या बना सकता है?’
आशा- ‘यह तो तुम्हीं सोचो कि ईश्वर की भूल के लिए मुझे दण्ड दे रहे हो। संसार में कौन ऐसा आदमी है, जिसे अच्छी सूरत बुरी लगती हो, लेकिन तुमने किसी मर्द को केवल रूपहीन होने के कारण कुंवारा रहते देखा है? रूपहीन लड़कियाँ भी माँ-बाप के घर नहीं बैठी रहतीं। किसी-न-किसी तरह उनका निर्वाह हो ही जाता है, उनका पति उन पर प्राण न देता हो, लेकिन दूध की मक्खी नहीं समझता।
विपिन ने झुंझलाकर कहा- ‘क्यों नाहक सिर खाती हो, मैं तुमसे बहस तो नहीं कर रहा हूँ। दिल पर जज्ब नहीं किया जा सकता, और न दलीलों का उस पर कोई असर पड़ सकता है। मैं तुम्हें कुछ कहता नहीं हूँ फिर तुम क्यों मुझसे हुज्जत करती हो?
आशा यह झिड़की सुनकर चली गई। उसे मालूम हो गया कि इन्होंने मेरी ओर से सदा के लिए हृदय कठोर कर लिया है।
विपिन तो रोज सैर-सपाटे करते, कभी-कभी रात-रात गायब रहते। इधर आशा चिन्ता और नैराश्य से घुलते-घुलते बीमार पड़ गई। लेकिन विपिन भूलकर भी उसे देखने न आता, सेवा करना तो दूर रहा। इतना ही नहीं, वह दिल में मानता था कि यह मर जाती तो गला छूटता, अबकी खूब देखभाल कर अपनी पसंद का विवाह करता।
अब वह और भी खेल खेला। पहले आशा से कुछ दबता था, कम-से-कम उसे यह डर लगा रहता था कि कोई मेरी चाल-ढाल पर निगाह रखने वाला भी है। अब वह डर छूट गया। कुवासनाओं में ऐसा लिप्त हो गया कि मर्दाने कमरे में ही जमघट होने लगे। लेकिन विषय-भोग में धन ही का सर्वनाश नहीं होता, इससे कहीं अधिक बुद्धि और बल का सर्वनाश होता है। विपिन का चेहरा पीला पड़ने लगा, देह भी क्षीण होने लगी, पसलियों की हड्डियां निकल आयीं, आंखों के इर्द-गिर्द गढ़े पड़ गए। अब वह पहले से कहीं ज्यादा शौक करता, नित्य तेल लगता, बाल बनाता, कपड़े बदलता, किन्तु मुख पर कांति न थी, रंग-रोगन से क्या हो सकता।
एक दिन आशा बरामदे में चारपाई पर लेटी हुई थी। इधर हफ्तों से उसने विपिन को न देखा था। उन्हें देखने की इच्छा हुई। उसे भय था कि वह न आएँगे, फिर भी मन को न रोक सकी। विपिन को बुला भेजा। विपिन को भी उस पर कुछ दया आ गई। आकर सामने खड़े हो गए। आशा ने उनके मुँह की ओर देखा, तो चौंक पड़ी। वह इतने दुर्बल हो गए थे कि पहचानना मुश्किल था। बोली- ‘तुम भी बीमार हो क्या? तुम तो मुझसे भी ज्यादा घुल गए हो?’
विपिन- ‘ उँह, जिन्दगी में रखा ही क्या है, जिसके लिए जीने की फिक्र करूँ!
आशा- ‘जीने की फिक्र न करने से कोई इतना दुबला नहीं हो जाता। तुम अपनी कोई दवा क्यों नहीं करते?’
यह कहकर उसने विपिन का दाहिना हाथ पकड़कर अपनी चारपाई पर बैठा लिया। विपिन ने भी हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। उसके स्वभाव में इस समय एक विचित्र नम्रता थी, जो आशा ने कभी न देखी थी। बातों से भी निराशा टपकती थी। अक्खड़पन या क्रोध की गंध भी न थी। आशा को ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आँखों में आँसू भरे हुए हैं।
विपिन चारपाई पर बैठते हुए बोले- ‘मेरी दवा अब मौत करेगी। मैं तुम्हें जलाने के लिए नहीं कहता। ईश्वर जानता है, मैं तुम्हें चोट नहीं पहुँचाना चाहता। मैं अब ज्यादा दिनों तक न जिंदा रहूंगा। मुझे किसी भयंकर रोग के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। डॉक्टरों ने भी यही कहा है। मुझे इसका खेद है कि मेरे हाथों तुम्हें कष्ट पहुंचा, पर क्षमा करना। कभी-कभी बैठे-बैठे मेरा दिल डूब जाता है, मूर्च्छा-सी आ जाती है।
यह कहते-कहते एकाएक वह काँप उठे। सारी देह में सनसनी-सी दौड़ गयी। मूर्छित होकर चारपाई पर गिर पड़े और हाथ-पैर पटकने लगे। मुँह से फिचकुर निकलने लगा। सारी देह पसीने से तर हो गई।