meree pahalee rachana munshi premchand ki story
meree pahalee rachana munshi premchand ki story

उस वक्त मेरी उम्र कोई 13 साल को रही होगी । हिन्दी बिलकुल न जानता था । उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था । मौलाना शरर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे । इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था । उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी । उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथों-हाथ बिकते थे । मैं भी उनका आशिक था । स्व. हजरत रियाज ने, जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहान्त हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था । उसी जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व. मौलाना सज्जाद हुसेन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का ‘धोखा’ या तिलिस्मी भरत के नाम से किया था । ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पड़ी और पं. रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति ही न होती थी । उनकी सारी रचनाएँ मैंने पड़ डाली । उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर ही के मिशन स्कूल में आठवें दरजे में पड़ता था, जो तीसरा दर्जा कहलाता था । रेती पर एक बुक-सेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था । मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके खाक से उपन्यास ले-लेकर पढ़ता था; मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ सकता नहीं था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पड़ता था । दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों उपन्यास पड़ डाले होंगे । जब उपन्यासों का स्टाक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पड़े, और ‘तिलिस्मी होशरुबा’ के कई भाग भी पड़े । इस बृहद् तिलस्मी ग्रन्थ के 17 भाग उस वक्त निकल चुके थे और एक-एक भाग बड़े सुपर रॉयल के आकार के दो-दो हजार पृष्ठों से कम न होगा और इन 17 भागों के उपरान्त उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे । इनमें से भी मैंने पढ़े । जिसने इतने बड़े ग्रन्थ की रचना की उसकी कल्पना-शक्ति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान किया जा सकता है । कहते है, ये कथाएँ मौलाना फ़ैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं । इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता; लेकिन इतनी बृहद् कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो । पूरी इन्साइक्लोपीडिया समझ लीजिए । एक आदमी तो अपने 60 वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता । रचना तो दूसरी बात है ।

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहाँ आया करते थे । अधेड़ हो गए थे; लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे । पास में थोड़ी-सी जमीन थी, मकान था, लेकिन घरनी के बिना सब कुछ सूना था । इसलिए घर पर जी नहीं लगता था । नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे, कि कोई उनका ब्याह करा दे । इसके लिए सौ-दो-सौ खर्च करने को भी तैयार थे । क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ? यह आश्चर्य था । अच्छे खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूँछें, औसत कद, साँवला रंग! गाँजा पीते थे इससे आँखें लाल रहती थी । अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे । शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे और मांस-मछली नहीं खाते थे ।

आखिर एक बार उन्होंने भी वहीं किया, जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं । एक चमारिन के नयन-बाणों से घायल हो गये । वह उनके यहाँ गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरी फुटकर कामों के लिए नौकर थी । जवान थी, छबीली थी और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भाँति प्रसन्नमुख और विनोदिनी थी । एक समय सखि सुअरि सुन्दरि’ – वाली बात थी । मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा । बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे । वह इनके मन का भाव ताड़ गई । ऐसी अल्हड़ न थी और नखरे करने लगी । केशों में तेल भी पड़ने लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो । आँखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आई, और काम में ढिलाई भी शुरू हुई । कभी दोपहर को आई और झलक दिखाकर चली गई, कभी साँझ को आई एक तीर चलाकर चली गई । बैलों को सानी-पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्योंकर? वहाँ तो अब प्रेम उदय हो गया था! होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी; मगर अबकी गजी की साड़ी न थी, खूबसूरत-सी सवा दो रुपये की चुँदरी थी । होली की त्योहारी भी मामूली से चौगुनी थी और यह सिलसिला यहाँ तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गई ।

एक दिन संध्या-समय चमारों ने आपस में पंचायत की । बड़े आदमी है तो हुआ करें, क्या किसी की इज्जत लेंगे! इन एक लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर न देखा, (हालाँकि यह सरासर गलत था) और एक यह हैं कि नीच जाति की बहू-बेटियों पर भी डोरे डालते हैं! समझाने-बुझाने का मौका न था । समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उलटे और कोई मामला खड़ा कर देंगे । इनके कलम घुमाने की तो देर है । इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाये । इज्जत का बदला खून ही चुकाता है, लेकिन मरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है ।

दूसरे दिन शाम को जब चम्मा मामू साहब के घर आई तो उन्होंने अन्दर का द्वार बन्द कर दिया । महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था । चाहे कुछ हो जाये, कुल-मरजाद रहे या जाय, बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय!

उधर चमारों का जत्था ताक में था ही । इधर किवाड़ बन्द हुए, उधर उन्होंने द्वार खटखटाना शुरू कर किया । पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बन्द पाकर लौट जायेगा; लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाये । जाकर किवाड़ों की दराज से झींका । कोई बीस-पच्चीस चमार लाठियाँ लिए, द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे । अब करें, तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते । समझ गये कि शामत आ गई । आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलायेगी, यह क्या जानते थे, नहीं तो इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते । उधर चम्पा इन्हीं को कोस रही थी – तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज्जत लुट गई । घरवाले है ही काटकर छोड़ेंगे, कहती थी, कभी किवाड़ बन्द न करो, हाथ-पाँव जोड़ती थी, मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था । लगी मुँह में कालिख कि नहीं ।

मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आये थे । कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता; लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । बरौठे में थर-थर काँपते ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए खड़े थे । कुछ न सूझता था ।

और उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था, यहाँ तक कि सारा गाँव जमा हो गया । बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने के लिए आ पहुँचे । इससे ज्यादा मनोरंजन और स्फूर्ति-वर्द्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द एक औरत के साथ घर में बन्द पाया जाय! फिर वह चाहे कितना ही प्रतिष्ठित और विनम्र क्यों न हो, जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती । बढ़ई बुलाया गया किवाड़ फाड़े गये और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले चम्पा आँगन में खड़ी रो रही थी । द्वार खुलते ही भागी । कोई उससे नहीं बोला । मामू साहब भागकर कहाँ जाते? वह जानते थे, उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है । मार खाने के लिए तैयार बैठे थे । मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी । जिसके हाथ में जो लगा – जूता, छड़ी, छाता, लात, घूँसा – सभी अस्त्र चले । यहाँ तक कि मामू साहब बेहोश हो गये और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझकर छोड़ दिया । अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गये, तो गाँव में नहीं रह सकते और उनकी जमीन पट्टीदारों के हाथ आयेगी ।

इस दुर्घटना की खबर उड़ते-उड़ते हमारे यहाँ भी पहुँची । मैंने भी उसका खूब आनन्द उठाया । पिटते समय उनकी रूप-रेखा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना करके मुझे खूब हँसी आई ।

एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड पीते रहे । ज्योंही चलने-फिरने लायक हुए, हमारे यहाँ आये । यहाँ अपने गाँववालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे ।

अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती, तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती; लेकिन उनका वही दम-खम था । मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा था! अब तो मेरे पास उन्हें नीचा दिखाने के लिए काफी मसाला था!

आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई । सबके सब खूब हंसे । मेरा साहस बढ़ा । मैंने उसे साफ-साफ़ लिखकर वह कॉपी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया । दिल से कुछ डरता भी था, कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था । सबसे बड़ा कुतूहल यह था कि ड्रामा पढ़कर मामू साहब क्या कहते हैं । स्कूल में जी न लगता था । दिल उधर ही टंगा हुआ था । छुट्टी होते ही घर चला गया । मगर द्वार के समीप आकर पाँव रुक गये । भय हुआ, कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठें; लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे, क्योंकि मैं मार खाने वाले लड़कों में न था ।

मगर यह मामला क्या है! मामू साहब चारपाई पर नहीं हैं, जहाँ वह नित्य लेटे हुए मिलते थे । क्या घर चले गये? आकर कमरा देखा, वहाँ भी सन्नाटा । मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता । अन्दर जाकर पूछा । मालूम हुआ, मामू साहब किसी जरूरी काम से घर चले गये । भोजन तक नहीं किया ।

मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा, मगर मेरा ड्रामा – मेरी वह पहली रचना – कहीं न मिली । मालूम नहीं, मामू साहब ने उसे चिरागअली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गये?

**