आशा का सारा रोग हवा हो गया। वह महीनों से बिस्तर न छोड़ सकी थी। पर इस समय उसके शिथिल अंगों में विचित्र स्फूर्ति दौड़ गई। उसने तेजी से उठकर विपिन को अच्छी तरह लिटा दिया और उसके मुख पर पानी के छींट देने लगी। महरी भी दौड़ी आयी और पंखा झलने लगी। बाहर खबर हुई, मित्रों ने दौड़कर डॉक्टर को बुलाया। बहुत यत्न करने पर भी विपिन ने आँखें न खोलीं। संध्या होते-होते उनका मुँह टेढ़ा हो गया और बायां अंग शून्य पड़ गया। हिलना तो दूर रहा, मुँह से बात निकलना भी मुश्किल हो गयी। यह मूर्छा न थी, फालिज था।
फालिज के भयंकर रोग में रोगी की सेवा करना आसान काम नहीं। उस पर आशा महीनों से बीमार थी। लेकिन इस रोग के सामने यह अपना रोग भूल गई। पन्द्रह दिनों तक विपिन की हालत बहुत नाजुक रही। आशा दिन-के-दिन और रात-की- रात उनके पास बैठी रहती। उनके लिए पथ्य बनाना, उन्हें गोद में सँभालकर दवा पिलाना, उनके जरा-जरा से इशारे को समझना उसी-जैसी धैर्यशाली स्त्री का काम था। अपना सिर दर्द से फटा करता, ज्वर से देह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी परवाह न थी।
पन्द्रह दिनों के बाद विपिन की हालत कुछ सँभली। उनका दाहिना पैर तो लुंज हो गया था, पर तोतली भाषा में कुछ बोलने लगे थे। सबसे बुरी गति उनके सुंदर मुख की हुई थी। वह इतना टेढ़ा हो गया था, जैसे कोई रबर के खिलौने को खींचकर बढ़ा दे। बटरी की मदद से जरा देर के लिए बैठ या खड़े तो हो जाते थे, लेकिन चलने-फिरने की ताकत न थी।
एक दिन लेटे-लेटे उन्हें क्या जाने, क्या खयाल आया। आइना उठाकर अपना मुँह देखने लगे। ऐसा कुरूप आदमी उन्होंने कभी न देखा था। आहिस्ता से बोले- ‘आशा, ईश्वर ने मुझे गुरूर की सजा दे दी। वास्तव में यह उसी बुराई का बदला है, जो मैंने तुम्हारे साथ की। अब तुम अगर मेरा मुँह देखकर घृणा से मुँह फेर लो, तो मुझे तुमसे जरा भी शिकायत न होगी। मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे उस दुर्व्यवहार का बदला लो, जो मैंने तुम्हारे साथ किया है।’
आशा ने पति की ओर कोमल भाव से देखकर कहा- ‘मैं तो आपको अब भी उसी निगाह से देखती हूँ। मुझे तो आप में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता।’
विपिन- ‘वाह, बंदर का-सा मुँह हो गया है, तुम कहती हो कोई अंतर ही नहीं। मैं तो अब कभी बाहर न निकलूंगा। ईश्वर ने मुझे सचमुच दंड दिया।’
बहुत यत्न किए गए पर विपिन का मुँह न सीधा हुआ। मुख का बायाँ भाग इतना टेढ़ा हो गया था कि चेहरा देखकर डर लगता था। हां, पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि अब वह चलने-फिरने लगे।
आशा ने पति की बीमारी में देवी की मनौती की थी। आज उसी पूजा का उत्सव था। मुहल्ले की स्त्रियाँ बनाव-श्रृंगार किए जमा थीं गाना-बजाना हो रहा था।
एक सहेली ने पूछा- ‘क्यों आशा, अब तो तुम्हें उनका मुँह जरा भी अच्छा न लगता होगा।’
आशा ने गंभीर होकर कहा- ‘मुझे तो पहले से कहीं अच्छा मालूम होता है।’
‘चलो, बातें बनाती हो। ‘
‘नहीं बहन, सच कहती हूँ रूप के बदले मुझे उनकी आत्मा मिल आई, जो रूप से कहीं बढ़कर है।’
विपिन कमरे में बैठे हुए थे। कई मित्र जमा थे। ताश हो रहा था।
कमरे में एक खिड़की थी, जो आँगन में खुलती थी। इस वक्त वह बंद थी। एक मित्र ने चुपके से उसे खोल दिया। और शीशे में झाँककर विपिन से कहा- ‘आज तो तुम्हारे यहाँ परियों का अच्छा जमघट है।’
विपिन- ‘बंद कर दो।’
अजी, जरा देखो तो, कैसी-कैसी सूरतें हैं! तुम्हें इन सबों में कौन-सी सबसे अच्छी मालूम होती है?’
विपिन ने उड़ती हुई नजरों से देखकर कहा- ‘मुझे तो वही स्त्री सबसे अच्छी मालूम होती है, जो थाल में फूल रख रही है।’
‘वाह री आपकी निगाह! क्या सूरत के साथ तुम्हारी निगाह भी बिगड़ गई? मुझे तो वह सबसे बदसूरत मालूम होती है।’’
‘इसलिए कि उनकी सूरत देखते हो और मैं उसकी आत्मा देखता हूँ।’
‘अच्छा, यही मिसिज विपिन है।’,
‘जी हां, यह वही देवी हैं।’
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