nairaashy by munshi premchand
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भाभी- तो क्या! कुछ दिन तो शान्ति और सुख से जीवन कटेगा। यह दिन तो कोई लौटा न लेगा। पुत्र हुआ तो कहना ही क्या, पुत्री हुई तो फिर कोई नई युक्ति निकाली जायेगी। तुम्हारे घर के जैसे अक्ल के दुश्मनों के साथ ऐसी ही चालें चलने में गुजारा है।

निरुपमा- मुझे तो संकोच मालूम होता है।

भाभी- त्रिपाठी जी को दो-चार दिन में पत्र लिख देना कि महात्माजी के दर्शन हुए और उन्होंने मुझे वरदान दिया है। ईश्वर ने चाहा, तो उसी दिन से तुम्हारी मान-प्रतिष्ठा होने लगेगी। घमंडी लाल दौड़े हुए आएँगे और तुम्हारे ऊपर प्राण निछावर करेंगे। कम-से-कम साल-भर तो चैन की वंशी बजाना। इसके बाद देखी जायेगी। निरुपमा-पति से कपट करूँ, तो पाप न लगेगा?

भाभी- ऐसे स्वार्थियों से कपट करना पुण्य है।

तीन-चार महीने के बाद निरुपमा अपने घर आयी। घमंडी लाल उसे विदा कराने गये थे। सलहज ने महात्माजी का रंग और भी चोखा कर दिया। बोली- ऐसा तो किसी को देखा ही नहीं कि इन महात्माजी ने वरदान दिया हो और वह पूरा न हो गया हो। हां, जिसका भाग्य ही फूट जाये, उसे कोई क्या कर सकता है?

घमंडी लाल प्रत्यक्ष तो वरदान और आशीर्वाद की उपेक्षा ही करते रहे, इन बातों पर विश्वास करना आजकल संतोषजनक मालूम होता है, पर उनके दिल पर असर जरूर हुआ।

निरुपमा की खातिरदारियाँ होनी शुरू हुई। जब वह गर्भवती हुई, तो सबके दिलों में नई-नई आशाएँ हिलोरें लेने लगीं। सास, जो उठते गाली और बैठते व्यंग्य से बातें करती थी, अब उसे पान की तरह पालती-बेटी, तुम रहने दो, मैं ही रसोई बना लूँगी, तुम्हारा सिर दुखने लगेगा। कभी निरुपमा कलसे का पानी या कोई चारपाई उठाने लगती, तो सास दौड़ती- बहू रहने दो, मैं आती हूँ। तुम कोई भारी चीज मत उठाया करो। लड़कियों की बात और होती है, उन पर किसी बात का असर नहीं होता। लड़के तो गर्भ ही में मान करने लगते हैं। अब निरुपमा के लिए दूध का उठौना किया गया, जिसमें बालक पुष्ट और गोरा हो। घमंडी लाल वस्त्राभूषण पर उतारू हो गए। हर महीने में एक न एक नई चीज लाते। निरुपमा का जीवन इतना सुखमय कभी न था। उस समय भी नहीं, जब यह नयी-नवेली वधू थी।

महीने गुजरने लगे। निरुपमा को अनुभूत लक्षणों से विदित होने लगा कि यह भी कन्या ही है, पर वह इस भेद को गुप्त रखती थी। सोचती, सावन की धूप है, इसका क्या भरोसा! जितनी चीज धूप में सुखानी हो सुखा लो, फिर तो घटा छाएगी ही। बात-बात पर बिगड़ती। वह कभी इतनी मानशीला न थी। पर घर में कोई चूं तक न करता कि कहीं बहू का दिल न दुखे, नहीं बालक को कष्ट होगा। कभी-कभी निरुपमा केवल घरवालों को जलाने के लिए अनुष्ठान करती, उसे उन्हें जलाने में मजा आता था। वह सोचती, तुम स्वार्थियों को जितना जलाओ, उतना अच्छा, तुम मेरा आदर इसलिए करते हो न कि मैं बच्चा जनूंगी, जो तुम्हारे कुल का नाम चलाएगा। मैं कुछ नहीं हूँ बालक ही सब-कुछ है। मेरा अपना कोई महत्त्व नहीं, जो कुछ है, वह बालक के नाते। यह मेरे पति हैं। पहले इन्हें मुझसे कितना प्रेम था, तब इतने संसार-लोलुप न हुए थे। अब क्या प्रेम केवल स्वार्थ का स्वाँग है। मैं भी पशु हूँ जिसे दूध के लिए चारा-पानी दिया जाता है। खैर यही सही, इस वक्त तो तुम मेरे काबू में आये हो। जितने गहने बन सके, बनवा लूँ। इन्हें तो छीन न लोगे।

इस तरह दस महीने पूरे हो गए। निरुपमा की दोनों ननदें ससुराल से बुलायी गईं। बच्चे के लिए पहले ही से सोने के गहने बनवा लिए गए, दूध के लिए एक सुंदर दुधारू गाय मोल ले ली गई। घमंडी लाल उसे हवा खिलाने को एक छोटी- सी सेजगाड़ी लाये। जिस दिन निरुपमा को प्रसव-वेदना होने लगी, द्वार पर पंडितजी मुहूर्त देखने के लिए बुलाए गए। एक मीर-शिकार बन्दूक छोड़ने को बुलाया गया, गायने मंगल-गान के लिए बटोर ली गईं। घर में से तिल-तिल पर खबर मँगाई जाती थी, क्या हुआ? लेडी डॉक्टर भी बुलायी गई। बाजे वाले हुक्म के इन्तजार में बैठे थे। पामर भी अपनी सारंगी लिये ‘जच्चा मान करे नंदलाल सो’ का तान सुनाने को तैयार बैठा था।

सारी तैयारियाँ, सारी आशाएँ, सारा उत्साह, सारा समारोह एक शब्द पर अवलम्बित। ज्यों-ज्यों देर होती थी, लोगों में उत्सुकता बढ़ती जाती थी। घमंडी लाल अपने मनोभावों को छिपाने के लिए एक समाचार पत्र देख रहे थे, मानो उन्हें लड़का या लड़की, दोनों ही बराबर हैं। मगर उनके बूढ़े पिताजी इतने सावधान न थे। उनकी बाँछें खिली जाती थी, हँस-हँसकर सबसे बात कर रहे थे और पैसों की एक थैली को बार-बार उछालते थे।

मीर-शिकार ने कहा- मालिक से अबकी पगड़ी-दुपट्टा लूँगा।

पिताजी ने खिलकर कहा- अबे कितनी पगड़ियाँ लेगा? इतनी बेभाव की दूँगा कि सर के बाल गंजे हो जायेंगे।

पामर बोला- सरकार से अब की कुछ जीविका लूँगा।

पिताजी खिलकर बोले- अबे कितना खाएगा, खिला-खिलाकर पेट फाड़ दूँगा।

सहसा महरी घर में से निकली। कुछ घबराई-सी थी। वह अभी कुछ बोलने भी न पाई थी कि मीर-शिकार ने बंदूक फायर कर ही तो दी। बंदूक छूटने की देर थी कि रोशन चौकी की तान भी छिड़ गई, पामर भी कमर कसकर नाचने को खड़ा हो गया।

महरी- अरे, तुम सब-के-सब भंग या गए हो क्या?

मीर-शिकार- क्या हुआ, क्या?

महरी- हुआ क्या, लड़की ही तो फिर हुई है।

पिताजी- लड़की हुई है?

यह कहते-कहते वह कमर थाम कर बैठ गए, मानो वज्र गिर पड़ा। घमंडी लाल कमरे से निकल आये और बोले- जाकर लेडी डॉक्टर से तो पूछ। अच्छी तरह देख ले। देखा न सुना, चल खड़ी हुई।

महरी- बाबूजी, मैंने तो आँखों देखा है।

घमंडी लाल- कन्या ही है?

पिता- हमारी तकदीर ही ऐसी है बेटा! जाओ रे, सबके सब! तुम सभी के भाग्य में कुछ पाना न लिखा था, तो कहां से पाते? भाग जाओ। सैकड़ों रुपये पर पानी फिर गया, सारी तैयारी मिट्टी में मिल गई।

घमंडी लाल- उस महात्मा से पूछना चाहिए। मैं आज डाक से जरा बच्चू की खबर लेता हूँ।

पिता- धूर्त है, धूर्त?

घमंडी लाल- मैं उनकी सारी धूर्तता निकाल दूँगा। मारे डंडों के खोपड़ी न तोड़ दूँ तो कहिएगा, चांडाल कहीं का। उसके कारण मेरे सैकड़ों रुपये पर पानी फिर गया। यह सेजगाड़ी, यह गाय, यह पालना, सोने के गहने किसके सिर पटकूं? ऐसे ही उसने कितनों को ठगा होगा। एक दफा बच्चू की मरम्मत हो जाती, तो ठीक हो जाते।

पिताजी- बेटा, उसका दोष नहीं, अपने भाग्य का दोष है।

घमंडी लाल- उसने क्यों कहा कि ऐसा नहीं होगा। औरतों से इस पाखंड के लिए कितने ही रुपये ऐंठे होंगे। यह सब उन्हें उगलना पड़ेगा, नहीं तो पुलिस में मुकदमा दर्ज करा दूंगा। कानून में पाखंड का भी तो दण्ड है। मैं पहले ही चौंका था कि हो-न-हो पाखंडी है, लेकिन मेरी सलहज ने धोखा दिया, नहीं तो मैं ऐसे पाखंडियों के पंजे में कब आने वाला था? एक ही सुअर है।

पिताजी- बेटा, सब्र करो। ईश्वर को जो कुछ मंजूर था, वह हुआ। लड़का- लड़की दोनों ही ईश्वर की देन हैं। जहाँ तीन हैं, यहाँ एक और सही।

पिता और पुत्र में तो यह बातें होती रहीं। पामर, मीर-शिकार आदि ने अपने- अपने डंडे सँभाले और अपनी राह चले। घर में मातम-सा छा गया। लेडी डॉक्टर भी विदा कर दी गई। सौर में जच्चा और दाई के सिवा कोई न रहा। वृद्धा माता तो इतनी हताश हुईं कि उसी वक्त अटवास-खटवास लेकर पड़ रहीं ।

जब बच्चे की बरही हो गई, तो घमंडी लाल स्त्री के पास गये और संतोष भाव से बोले-फिर लड़की हो गई

निरुपमा- क्या करूँ, मेरा क्या बस?

घमंडी लाल- उस पापी धूर्त ने बड़ा चकमा दिया।

निरुपमा- अब क्या कहूं, मेरे भाग्य ही में न होगा, नहीं तो वहाँ कितनी औरतें बाबाजी को रात-दिन घेरे रहती थी। वह किसी से कुछ लेते तो कहती कि धूर्त हैं, कसम ले लो, जो मैंने एक कौड़ी भी उन्हें दी हो।

घमंडी लाल- उसने लिया, या न लिया, यहाँ तो दिवाला निकल गया, मालूम हो गया, तक़दीर में पुत्र नहीं लिखा है। कुल का नाम डूबना ही है तो क्या आज डूबा, क्या दस साल बाद डूबा। अब कहीं चला जाऊंगा, गृहस्थी में कौन-सा सुख रखा है।

वह बहुत देर तक खड़े-खड़े अपने भाग्य को रोते रहे, पर निरुपमा ने सिर तक न उठाया।

निरुपमा के सिर फिर वही विपत्ति आ पड़ी, फिर वही ताने, वही अपमान, वही अनादर, वही छीछालेदर। किसी को चिन्ता न रहती कि खाती-पीती है या नहीं, अच्छी है या बीमार, दुखी है या सुखी। घमंडी लाल यद्यपि कहीं न गये, पर निरुपमा को यह धमकी प्रायः मिलती ही रहती थी। कई महीने यों ही गुजर गये, तो निरुपमा ने फिर भाभी को लिखा कि तुमने और भी मुझे विपत्ति में डाल दिया। इससे तो पहले ही भली थी। अब तो कोई बात भी नहीं पूछता कि मरती है या जीती है। अगर यही दशा रही, तो स्वामी जी चाहे संन्यास लें या न लें, लेकिन मैं संसार को अवश्य त्याग दूंगी।

भाभी यह पत्र पाकर परिस्थिति समझ गई। अबकी उसने निरुपमा को बुलाया नहीं। जानती थी कि लोग विदा ही न करेंगे। पति को लेकर स्वयं आ पहुँची। उसका नाम सुकेशी था। बड़ी मिलनसार, चतुर, विनोद शील स्त्री थी। आते ही आते निरुपमा की गोद में कन्या देखी तो बोली- अरे यह क्या?

सास- भाग्य है और क्या!

सुकेशी- भाग्य कैसा? इसने महात्माजी की बात भुला दी होगी। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि यह मुँह से जो कुछ कह दें, यह न हो। क्योंजी, तुमने मंगल का व्रत रखा?

निरुपमा- बराबर, एक व्रत भी न छोड़ा ।

सुकेशी- पाँच ब्राह्मणों को मंगल के दिन भोजन कराती रही?

निरुपमा- यह तो उन्होंने नहीं कहा था।

सुकेशी- तुम्हारा सिर! मुझे खूब याद है, मेरे सामने उन्होंने बहुत जोर देकर कहा था। तुमने सोचा होगा, ब्राह्मणों को भोजन कराने से क्या होता है। यह न समझा कि कोई अनुष्ठान सफल नहीं होता, जब तक विधिवत् उसका पालन न किया जाये।

सास- इसने कभी इसकी चर्चा ही नहीं की, नहीं, तो पाँच क्या, दस ब्राह्मणों को जिमा देती। तुम्हारे धर्म से कमी नहीं है।

सुकेशी- कुछ नहीं, भूल गई और क्या। रानी, बेटे का मुँह यों देखना नसीब नहीं होता। बड़े-बड़े जप-तप करने पड़ते हैं, तुम मंगल के एक व्रत ही से घबरा गई?

सास- अभागिनी है और क्या!

घमंडी लाल- ऐसी कौन-सी बड़ी बातें थीं, जो याद न रहीं? यह खुद हम लोगों को जलाना चाहती है।

सास- वही तो कहूँ कि महात्मा की बात कैसे निष्फल हुई। यहाँ सात बरसों तक ‘तुलसी माई’ को जोत चढ़ाया, जब जाके बच्चे का जन्म हुआ।

घमंडीलाल- इन्होंने समझा था, दाल-भात का खाना है।

सुकेशी- खैर, अब जो हुआ, सो हुआ। कल मंगलवार है, फिर व्रत रखो और अबकी सात ब्राह्मणों को जिमाओ। देखें, कैसे महात्माजी की बात नहीं पूरी होती।

घमंडी लाल- व्यर्थ है, इनके किए कुछ न होगा।

सुकेशी- बाबूजी, आप विद्वान्, समझदार होकर इतना दिल छोटा करते हैं। अभी आप की उम्र ही क्या है। कितने पुत्र लीजिएगा? नाकों दम न हो जाये तो कहिएगा।

सास- बेटी, दूध-पूत से भी किसी का मन भरा है।

सुकेशी- ईश्वर ने चाहा तो आप लोगों का मन भर जायेगा। मेरा तो भर गाया।

घमंडी लाल- सुनती हो महारानी, अबकी कोई गोलमाल मत करना। अपनी भाभी से सब ब्योरा अच्छी तरह पूछ लेना।

सुकेशी- आप निश्चिंत रहें, मैं याद करा दूँगी, क्या भोजन करना होगा, कैसे रहना होगा, कैसे स्नान करना होगा, यह सब सिखा दूँगी और अम्मा जी आज के अठारह मास बाद आपसे कोई भारी इनाम लूंगी।

सुकेशी एक सप्ताह यहाँ रही और निरुपमा को खूब सिखा-पढ़ाकर चली गयी।