nairaashy by munshi premchand
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निरुपमा का एक वर्ष फिर चमका, घमंडी लाल अबकी इतने आश्वस्त हुए कि भविष्य ने भूत को भुला दिया। निरुपमा फिर बांदी से रानी हुई, सास फिर उसे पान की भांति पालने लगी, लोग उसका मुँह जोहने लगे।

दिन गुजरने लगे, निरुपमा कभी कहती, अम्मा जी, आज मैंने स्वप्न देखा कि एक वृद्धा स्त्री ने आकर मुझे पुकारा और एक नारियल देकर बोली- यह तुम्हें दिये जाती हूँ। कभी कहती, अम्मा जी अबकी न जाने क्यों, मेरे दिल में बड़ी-बड़ी उमंगें पैदा हो रही हैं, जी चाहता है खूब गाना सुनूं, नदी में खूब स्नान करूँ, हरदम नशा-सा छाया रहता है, सास सुनकर मुस्कुराती और कहती- बहू ये शुभ लक्षण हैं।

निरुपमा चुपके-चुपके माजनू मँगाकर खाती और अपने आलस नेत्रों से ताकते हुए घमंडी लाल से पूछती- मेरी आँखें लाल हैं क्या?

घमंडी लाल खुश होकर कहते- मालूम होता है, नशा चढ़ा हुआ है। ये शुभ लक्षण हैं।

निरुपमा को सुगंधों से कभी इतना प्रेम न था, फूलों के गजरों पर अब वह जान देती थी।

घमंडी लाल अब नित्य सोते समय उसे महाभारत की वीर कथाएँ पढ़कर सुनाते, कभी गुरु गोविन्दसिंह की कीर्ति का वर्णन करते। अभिमन्यु की कथा से निरुपमा को बड़ा प्रेम था। पिता अपने आने वाले पुत्र को वीर-संस्कारों से परिपूर्ण कर देना चाहता था।

एक दिन निरुपमा ने पति से कहा- नाम क्या रखोगे?

घमंडी लाल- यह तो तुमने खूब सोचा। मुझे तो इसका ध्यान ही न रहा था। ऐसा नाम होना चाहिए, जिससे शौर्य और तेज टपके। सोचो कोई नाम।

दोनों प्राणी नामों की व्याख्या करने लगे। जोरावरलाल से लेकर हरिश्चन्द्र तक सभी नाम गिनाए गए, पर उस असामान्य बालक के लिए कोई नाम न मिला। अंत में पति ने कहा-तेज बहादुर कैसा नाम है?

निरुपमा- बस-बस, यही नाम मुझे पसंद है।

घमंडीलाल- नाम तो बढ़िया है। तेगबहादुर की कीर्ति सुन ही चुकी हो। नाम का आदमी पर बड़ा असर होता है।

निरुपमा- नाम ही तो सब-कुछ है। दमड़ी, छकौड़ी, घुरहू, कतवारू जिसके नाम देखे, उसे भी ‘यथा नाम तथा गुण’ ही पाया। हमारे बच्चे का नाम होगा तेगबहादुर।

प्रसव-काल आ पहुँचा। निरुपमा को मालूम था कि क्या होने वाला है, लेकिन बाहर मंगलाचरण का पूरा सामान था। अबकी किसी को लेशमात्र भी सन्देह न था। नाच- गाने का प्रबन्ध किया गया था। एक शामियाना खड़ा किया गया था और मित्रगण उसमें बैठे खुश-गप्पियाँ कर रहे थे। हलवाई कड़ाह से पूरियाँ और मिठाइयाँ निकाल रहा था। कई बोरे अनाज के रखे हुए थे कि शुभ समाचार पाते ही भिक्षुओं को बांटे जाएँ। एक क्षण का भी विलम्ब न हो, इसलिए बोरों के मुँह खोल दिए गए थे।

लेकिन निरुपमा का दिल प्रतिक्षण बैठा जाता था। अब क्या होगा? तीन साल किसी तरह कौशल से कट गए और मजे में कट गए, लेकिन अब विपत्ति सिर पर मँडरा रही है। हाय! कितनी परवशता है! निरपराध होने पर भी यह दंड! अगर भगवान की इच्छा है कि मेरे गर्भ से कोई पुत्र न जन्म ले, तो मेरा क्या दोष! लेकिन कौन सुनता है? मैं ही अभागिनी हूँ, मैं ही त्याज्य हूँ, मैं ही कलमुँही हूँ इसीलिए न कि परवश हूँ! क्या होगा? अभी एक क्षण में यह सारा आनन्दोत्सव शोक में डूब जायेगा, मुख पर बौछारें पड़ने लगेंगी, भीतर से बाहर तक मुझी को कोसेंगे। सास-ससुर का भय नहीं, लेकिन स्वामीजी शायद फिर मेरा मुँह न देखें, शायद निराश होकर घर-बार त्याग दें। चारों तरफ अमंगल-ही-अमंगल है। मैं अपने घर की, अपनी संतान की दुर्दशा देखने के लिए क्यों जीवित हूँ! कौशल बहुत हो चुका, अब उससे कोई आशा नहीं। मेरे दिल में कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी प्यारी बच्चियों का लालन-पालन करती, उन्हें ब्याहती, उनके बच्चों को देखकर सुखी होती। पर आह! यह सब अरमान खाक में मिले जाते हैं। भगवान! तुम्हीं अब इनके पिता हो, तुम्हीं इनके रक्षक हो। मैं तो अब जाती हूँ।

लेडी डॉक्टर ने कहा- हाय! फिर लड़की है।

भीतर-बाहर कुहराम मच गया, पिट्टस पड़ गई। घमंडी लाल ने कहा- जहन्नुम में जाये ऐसी जिंदगी, मौत भी नहीं आ जाती।

उनके पिता भी बोले- अभागिनी है, वज्र अभागिनी।

भिक्षुकों ने कहा- रोओ अपनी तकदीर को, हम कोई दूसरा द्वार हेरते हैं। अभी यह शोकोद्गार शांत न होने पाया था कि लेड़ी डॉक्टर ने कहा- माँ का हाल अच्छा नहीं है। वह अब नहीं बच सकती। उसका दिल बन्द हो गया है।

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