Parityakta
Parityakta

Hindi Kahani: अपने पड़ोस की सहेली की सगाई में पूजा ने दीपक से कुछ देर बातें क्या कर लीं, सभी की नजरें उसपर टिक गयीं I कुछ लोग उसे आश्चर्य से देख रहे थे, कुछ व्यंग से और कुछ लोग घृणा से भरकर I चंद लोग ही थे, जो अपने होंठों पर मुस्कान बिखेर कर उसे सामान्य भाव से देख रहे थे I जो अजनबी थे, उनकी निगाहें भी उस पर अटक गयीं कि आख़िर इस युवती में ऐसी क्या बात है, जिसे भिन्न-भिन्न भाव लिये लोग देख रहे हैं ! उन्होंने देखा–”इसमें कोई भी ऐसी खास विशेषता नहीं, जिसके कारण यहाँ पर उपस्थित मेहमानों के लिए यह आकर्षण का कारण बने ! पच्चीस-छब्बीस वर्ष की युवती—-गेहुँआ रंग—खूबसूरत तो नहीं, मगर आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी ! हाँ, साज-सिंगार से चेहरा खिल उठा था और परिधान भी ठीक ही था I फिर—ऐसी क्या बात है ?” एक महिला से रहा न गया I पूजा को टकटकी बाँध कर देखती हुई एक अन्य महिला से उसने पूछा—”यह महिला कैन है ?” जवाब में उसने कहा—”क्या बताऊँ ! दो अक्षर पढ़ न लिया कि सारे रिश्ते-नाते का महत्त्व ही धोकर पी डाला I कौन कहेगा कि यह परित्यक्ता है ? छः महीने ही हुए हैं—अपने पति को छोडकर आयी है ! अच्छा घर-वर—सभी की तिलांजलि दे दी I थोड़ी भी शिकन इसके चेहरे पर है ?” उसकी बातों को सुनकर एक अधेड़ महिला आह भरती हुई बोली—”क्या करोगी बहन ! नया जमाना है ! मन का न हुआ–नाता तोड़ लिया I आजकल के लोग सामंजस्य करना जानते ही नहीं I एक हमलोग भी हैं ! जिस घर में डोली से आयी, उसी घर से अरथी पर निकलेगी—-इसी सिद्धांत को लेकर चलते हैं I ”हाँ भाई !”—एक बुजुर्ग महिला बोली—”कलियुग है न ! कलियुगी लीला देखने के लिए ही तो जिंदगी अब शेष बची है ! पाप आसमान छूते और धरम रसातल में !”
अपनी ओर टिकी निगाहों का अभिप्राय पूजा अच्छी तरह समझ रही थी I उसके अंतःकरण की पीड़ा, अधर पर मुस्कान बनकर छा गयी I वह सोचने लगी—”अलग-अलग सोच और मानसिकता वाले व्यक्तित्व से परिचित होने का शायद यही समय है I एक तो अपनी पीड़ा, ऊपर से इन लोग की मानसिकता का बोझ ! अपने-आप से जुझूँ या इन लोग से ? छः महीने पहले, जब पति का घर छोड़ कर माँ के घर आयी थी, तो इन्हीं लोगों ने सहानुभूति दिखायी थी लेकिन आज—! माँ-पिता जी बहुत दुखी हैं I पिता जी जब भी मुझे देखते, अपनी नजरें झुका लेते मानो वे कोई अपराधी हों I हाँ, माँ जरूर कहती—”पवन से तलाक लेकर तूने ठीक न किया I वर्ष-दो वर्ष इंतजार तो करती ! पता है ? पुरुष को कोई कुछ नहीं कहता लेकिन औरत की ओर सभी की उँगलियाँ उठती हैं I” बात तो सही है I इन छः महीनों में पूजा और पवन के जीवन शैली में कितना अंतर दिख रहा था ! परित्यक्त तो वह भी कहलाएगा मगर देखो ! दूसरा ब्याह रचाकर मौज में है और पूजा ? अपने अतीत को भूलने का अभिनय कर, वर्तमान के उन पलों को तलाश रही है, जो उसका अपना हो I विवाह के पहले दिन ही उसे ज्ञात हो गया था कि उसका भविष्य क्या है I रिवाजानुसार मुँहदिखाई का कार्यक्रम हुआ I सबसे अंत में, अपनी एक युवती मित्र को पूजा से परिचय करवाते हुए पवन बोला—”इनसे मिलो नेहा ! ये हैं श्रीमती पूजा मेहता I” पूजा आश्चर्य के साथ पवन को देखने लगी क्योंकि उसकी बोली व्यंग्यात्मक थी I
”काफी दहेज मिला है क्या ?” नेहा के प्रश्न से स्पष्ट हो रहा था कि वह उसकी शक्ल-सूरत की उपेक्षा कर रही थी I


”यह तो माँ-पिता जी ही जानें क्योंकि उन्होंने ही ब्याह करवाया है I” अनमने ढ़ंग से पवन ने कहा I पूजा को ऐसा लगा कि बिन दाव खेले ही वह पराजिता है I मिलन की पहली रात को पवन ने व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ पूछा—”मेरी दोस्त, नेहा कैसी लगी ?” पूजा का अंतःकरण तो पहले ही मुरझा चुका था, अधर पर छायी मुस्कराहट को मुरझाने से बलवत् रोकती हुई बोली—”अच्छी है I”
”केवल अच्छी है ? लोग तो कहते हैं कि बहुत अच्छी है ! लाजवाब !” अपनी उपेक्षा सहती हुई, धीरे-से वह बोली—”लोग सही कहते हैं I” कुछ देर तक दोनों चुप रहे I चुप्पी तोड़ती हुई पूजा बोली—”आपके साथ पढ़ती थी क्या ?”
”पढ़ती भी थी और साथ में नौकरी भी करती है I” पवन के चेहरे पर गंभीरता छा गयी और उसकी आँखें भर आयीं I पूजा को समझते देर न लगी कि धुआँ उठा है—यानी कि आग लगी है I पवन को निरीह दशा में देखकर उसमें दृढ़ता आ गयी I सभ्य तरीके से बोली—”परिचित भी है,— जोड़ी भी अच्छी है, फिर–उससे विवाह क्यों न किया ?”
”भाग्य में लिखा नहीं था I” पूजा का गला भर आया I रूँधी आवाज में बोली—”भाग्य में न होकर भी वह आपके हृदय में तो है ! और मैं—! भाग्य में हूँ, मगर हृदय में तो नहीं हूँ न ! लेकिन–मुझे भी अधूरा पति नहीं चाहिए I”
”मतलब ?” चौंक कर उसने पूछा I पूजा चुप रही I रात बीतने वाली थी किंतु उसकी जिंदगी में कभी भी खतम न होने वाली रात का आगमन शायद हो चुका था जिसके अंधकार में पवन भटक रहा था और पूजा !—आगे बढ़ने का रास्ता ढूँढ़ रही थी I अगले दिन ही नेहा दोबारा आयी और पवन के हाथ एक फाइल थमाती हुई बोली—”समय मिले तो इसे पढ़ लेना, कुछ गलतियाँ हैं I” पूजा खूब समझ रही थी कि फाइल देने के बहाने वह पवन से मिलने आयी थी I उसने देखा–नेहा की आँखों में गहरी उदासी छायी थी और —सभी से छिपते-छिपाते पवन भी मानो उसमें उतर चुका था I पूजा ने अपनी आँखें नीची कर लीं I क्षुब्ध हो पवन पर खीझ उठी—”कायर ! खुद भी डूबा और मुझे भी ले डूबा ! लेकिन—-चुटकी-भर सिंदूर के लिए मैं डूबने वाली नहीं ! उसका आत्मसम्मान उसे ललकार रहा था किंतु नारीत्व मर्यादा की रेखा को टकटकी लगाये देख रहा था I उसी रात उसने दृढ़ होकर पवन से पूछा—”अपनी विवशता से आपने हमारी जिंदगी क्यों बाँधी ? उलझन तो आपके और नेहा के सामने थी लेकिन आप दोनों के साथ मैं क्यों उलझ गयी ?” पवन ने अपना सिर झुका लिया I ना कोई भूमिका, ना कोई प्रसंग–सीधे प्रश्न की गोली ! वह समझ गया था कि पूजा दृढ व्यक्तित्व की स्वामिनी है I कुछ सोचकर वह बोला–
”कोशिश करूँगा कि तुम्हारी जिंदगी न उलझे मगर सच है कि मुझे नेहा से अतीव प्रेम है I अब तुम मेरी पत्नी हो, इसलिए तुमसे झूठ न बोलूँगा I”
”बहुत अच्छा पति धर्म निभा रहे हैं !– लेकिन आपने उसके साथ विवाह क्यों न किया ?”
”क्योंकि न मेरे माता-पिता राजी थे, न उसके I” पूजा ने उसके हृदय की तरलता में अपना प्रतिबिंब देखने की कोशिश की, मगर—सर्वत्र नेहा थी I वह समझ गयी थी कि पवन भावना की चोट से आहत होकर घायल है, किंतु खूँखार नही इसलिए इसे वश में करना आसान नहीं I कुछ सोचकर वह बोली–” लेकिन मैं राजी हूँ I”
”क्या ?” वह चौंक उठा I
”सही कह रही हूँ I अब मैं आपकी पत्नी हूँ, इसलिए आपके सुखद भविष्य के लिए सोचना और कुछ करना मेरा भी कर्तव्य है I इसमें मेरी कोई उदारता नहीं, बल्कि मेरा आत्माभिमान है I अधूरा पति मैं कदापि स्वीकार न करूँगी I तन के साथ आपके हृदय की भी अधिकारिणी हूँ I आपके हृदय में तो नेहा पहले से ही विराजमान है, मैं कहाँ रहूँगी ? केवल घर-संपत्ति की स्वामिनी बनकर मैं अपने नारीत्व का अपमान नहीं करूँगी I इसलिए—-आपको मेरा परित्याग करना होगा I” पूजा की आवाज और व्यवहार में दृढ़ता थी I ऐसी दृढ़ता, जिससे पवन का पुरुषार्थ मानो टकराकर चूर-चूर हो गया था I
”मैं यह कुकर्म नहीं कर सकता I”
”लेकिन मैं यह सुकर्म करूँगी I वैसे भी, कुकर्म हो या सुकर्म—आपके पास मेरे परित्याग के लिए कोई आधार नहीं है I”
”तो तुम्हारे पास कैन-सा आधार है ?”
”नेहा ! नेहा के साथ आपका प्रेम संबंध I”
”लेकिन–वह बदनाम हो जायेगी I”
”बदनाम होने के बाद आप का नाम तो मिलेगा !”
”लेकिन तुम ?” निरीह दृष्टि से पूजा को वह देखने लगा I
”मेरा क्या ! आपकी भीरुता के कारण मेरा तो परिचय ही दाव पर लग गया I खैर ! अपने मन की बातें बताकर आपने तो अपना पति धर्म निभाया, अब आपकी दोस्त बनकर आपको भँवर से निकालकर मैं भी तो अपना पत्नी धर्म निभा लूँ ! फिर कभी समय मिले या न मिले !” एक आह भरते हुए उसने अपनी नजरें फेर लीं I उसकी बातें सुनकर पवन विमूढ़ बना रहा I न उसे सराह सका, न रोक सका और नाहीं उसकी बातों को आत्मसात् कर सका I
पूजा ने तलाक की नोटिस भेजी I माँ ने बहुत समझाया—”समय और परिस्थिति की धारा में प्यार को बहते देर नहीं लगती, इसलिए साल-दो साल धैर्य से इंतजार तो कर लो !” मगर माँ की बातों को अनसुनी कर उसने इतना ही कहा—”दांपत्य जीवन समझौता से नहीं, प्यार से चलता है I सिंदूर मुझे मिला लेकिन प्यार किसी और को I अधूरा पति एक शूल के समान है, जो मेरे व्यक्तित्व में चुभता रहेगा और मेरे नारीत्व का हनन करता रहेगा I”
तलाक के दिन दोनों अजनबी बनने का अभिनय करते हुए कोर्ट में हाजिर थे I तलाक होते ही दोनों ने एक-दूसरे को आँसू पूरित आँखों से देखा I अचानक दोनों का धैर्य टूट गया और एक-दूसरे का हाथ थाम फूट-फूटकर रो पड़े I ”यह कैसा तलाक है !” लोग आश्चर्य से देख रहे थे, लेकिन इस पहेली का स्पष्टिकरण न तो पवन के पास था, न पूजा के पास I और फिर—पवन के निजी जीवन में किसी ने हस्तक्षेप न किया मगर पूजा—? भिन्न-भिन्न भाव लिए सभी की नजरें उस पर टिक जातीं I पति का त्याग भले ही उसने किया, किंतु लोग उसे ही परित्यक्ता समझते हैं I और दीपक–उसके बचपन का दोस्त ! पहले से भी ज्यादा उससे सद्भाव रखने लगा I
एक शाम जब वह दीपक के साथ पार्क में बैठी थी, तभी दीपक ने बिना कोई भूमिका बनाये अपना प्रस्ताव उसके समक्ष रखा—”पूजा, मुझ से विवाह करोगी ?” पहले तो वह हतप्रभ हो गयी, किंतु तुरत ही उसे बचपन की एक घटना याद आयी I—–एक नन्हा बच्चा, जो नर्सरी या एल.के.जी. का छात्र था,–उसे चाकलेट देकर कहता–”लो खा लो, लेकिन मुझसे ही विवाह करना होगा I” सिर हिलाकर वह लेने से मना करती I फिर वह अपना टिफिन उसकी ओर बढ़ाते हुए कहता–तो ये खालो ! देखो, मम्मी ने मूँग की कचौड़ियाँ दी हैं I पूजा खीझकर कहती—”न लूँगी और न तुम्हारे साथ ब्याह करूँगी क्योंकि तुम बिस्तर पर सू-सू करते हो I”
”झूठ–झूठ ! किसने बताया ?”
”गोपाल ने I” फिर क्या था ! उस बच्चे ने गोपाल के साथ-साथ पूजा
की भी पिटाई कर दी I शिक्षिका ने उसे डांटा I जब उसके द्वारा पीटे जाने का कारण शिक्षिका को मालूम हुआ तो वह हँसे बिना न रहीं और बोलीं—-”बेटा, बीस-बाईस साल बाद यह प्रस्ताव किसी के सामने रखना, अभी नहीं I” वह बच्चा दीपक ही था I जब उसकी शादी पवन के साथ तय हुई थी, उसकी आँखों में कितनी उदासी भर आयी थी ! शादी में वह आया था, किंतु भीड़ में भी अकेलापन लिए, कोलाहल में भी सन्नाटा बुनते हुए ! आज स्वयं जब वह इस स्थिति से गुजर रही थी, तब उसे दीपक की वेदना का अहसास हुआ I
पूजा को चुप देखकर दीपक ने कहा—”बोलो पूजा ! मुझसे शादी करोगी ? अब तो मैं बिस्तर पर—–!”
”धत् !” अनायास वह हँस पड़ी और यही हँसी, रुदन में बदल गयी जो उसके प्रेम को न पहचान पाने के पश्चाताप का प्रमाण था I लोग को जो कहना था—कह रहे थे, जो सोचना था–सोच रहे थे, लेकिन दोनों के विवाह के अवसर पर जब नेहा के साथ पवन आया, तो इस अद्भुत दृश्य को देखकर सभी की बोलती बंद हो गयी I
मुस्कराते हुए पवन ने पूजा को एक उपहार थमाते हुए कहा—-”शादी मुबारक हो पूजा I” उसकी आँखें आभार से नम थीं I कुछ गंभीर होकर वह बोला—”तुमने विवाह कर मुझे आत्म ग्लानि के बोझ से उबार दिया I मेरे ऊपर किया गया तुम्हारा यह दूसरा अहसान है—सदा खुश रहना !” नेहा की आँखें छलक उठीं I भावभीन हो पूजा को गले से लगाकर शादी की मुबारकबाद दे रही थी I पूजा ने मुस्कराकर
दीपक से कहा—-”इन्हें पहचाना ? ये मेरे परित्यक्त पति हैं, जबकि परित्यक्ता कहलाती हूँ– ‘मैं’ I खुशी से आगे बढ़कर दीपक ने उसे गले लगा लिया I दोनों एक-दूसरे लिपटे थे, मानो एक-दूसरे का आभार व्यक्त कर रहे थे