नवरात्रों के आने की आहट हो और देवी-दुर्गा की बात न हो, या फिर दुर्गा-पूजा की बात चले और बंगाल का नाम न आये, ये भला कैसे संभव है ! अतः जैसे ही शारदीय नवरात्रों पर कुछ लिख्नने का विचार मन में उत्पन्न हुआ तो सीधे बंगाल से जाकर जुड़ गया I यों तो सम्पूर्ण भारत में दुर्गा-पूजा निरंतर की जाती है, जो वर्ष में दो बार आने वाले चैत्र तथा शारदीय नवरात्रों में एक उत्सव का रूप ले लेती है, परन्तु बंगाल में शारदीय नवरात्र का स्वागत विशेष धूम-धाम से किया जाता है I जैसे ही यह समय आता है, क्या बूढ़े, क्या बच्चे और क्या जवान, क्या स्त्री और क्या पुरुष, क्या अमीर और क्या गरीब, सभी उमंग से भरे, बड़े मनोयोग से दुर्गा पूजा के आयोजन में लग जाते हैं I इसे देखकर ऐसा लगता है मानो केवल बंगाल वासियों को ही दुर्गा में विशेष आस्था नहीं बल्कि स्वयं देवी-दुर्गा को भी बंग-भूमि से विशेष स्नेह है, तभी तो यहाँ हर घर, हर गली, हर नुक्कड़ से गुजरने वाला व्यक्ति उनकी जागृत उपस्थिति की अनूभूति करता चलता है I संक्षेप में कहें तो शारदीय नवरात्र के नौं दिनों में पूरे बंगाल का वातावरण ही दुर्गामय हो जाता है I  

दुर्गा पूजा के प्रकार

बंगाल में दुर्गा-पूजा दो प्रकार से की जाती है, एक तो व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने घरों में और दूसरे सामुदायिक रूप में अपनी गली, मौहल्लों, क्लबों आदि में बड़े-बड़े पंडालों की स्थापना करके I

 

व्यक्तिगत पूजा

व्यक्तिगत पूजा शारदीय नवरात्र के पहले दिन से, जिसे ‘प्रथमा’ कहा जाता है, से प्रारम्भ होकर नवें दिन अर्थात नवमी तक चलती है I प्रथमा को सुबह-सवेरे परिवार के लोग घर के आँगन में लगे बेल व केले के वृक्ष के पास पूजा का पंडाल लगाते हैं I जिस घर में इनमें से कोई एक या दोनों ही वृक्ष नहीं होते, वहां बेल के पेड़ की एक डाली व केले के पेड़ का तना लाकर लगाया जाता है I फिर प्रथमा से चतुर्थी के चार दिनों तक यहाँ दुर्गा के अव्यक्त रूप की पूजा होती है I पांचवें दिन अर्थात पंचमी को धूम-धाम से देवी दुर्गा की मूर्ति की स्थापना की जाती है, जिसकी अगले पांच दिन अर्थात नवमी तक दिन के चार प्रहरों यथा उषा-काल, प्रातःकाल, अपरान्ह-काल तथा संध्या-काल में विधिवत पूजा की जाती है I इसमें चंडी-पाठ (संस्कृत भाषा में दुर्गा सप्तशती के 13 अध्यायों का पाठ) भी किया जाता है I छठें अथवा षष्ठी वाले दिन, स्वयं नए वस्त्र पहनना और अपने परिजनों को भेंट में देना शुभ माना जाता है I आठवें अर्थात अष्टमी वाले दिन पद्म-पूजा संपन्न की जाती है, जिसमें देवी दुर्गा को कमल के 108  फूलों के अर्पण के साथ हलवा-पूरी का भोग लगाया जाता है I अधिकतर लोग इस दिन व्रत भी रखते हैं I नवमी के दिन मंदिर में जाकर फल-बलि देने की प्रथा है, जिसमें एक ताज़ा फल जैसे नारियल, अनन्नास, काशीफल आदि को देवी के चरणों में रखकर एक ही वार से दो भागों में काटकर अर्पण किया जाता है I

सामुदायिक पूजा

इस प्रकार जहाँ एक ओर लोग अपने-अपने घरों में व्यक्तिगत पूजा कर रहे होते हैं, वहीं अपने गली, मौहल्लों, क्लबों आदि के सदस्य भी आपस में मिलकर बड़े-बड़े पंडालों में सामुदायिक पूजा का आयोजन करते हैं I इन पंडालों में भी मूर्ति स्थापना से पहले बेल के पेड़ की डाली व केले के पेड़ का तना लगाया जाता है और दिन में दो बार देवी दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है I इन आयोजनों के लिए नवरात्र प्रारंभ होने से महीनों पहले तैयारियां होनी प्रारम्भ हो जाती हैं, जिसके लिए सम्बंधित आयोजन समिति के सदस्यों द्वारा अंशदान तथा चंदे के माध्यम से पैसा इकट्ठा किया जाता है I इस प्रकार एकत्र हुए धन के अनुसार पूजा-पंडालों पर खर्च किया जाता है, जिसमें अपने पंडाल को दूसरे से अधिक आकर्षक दिखाने की होड़ मची रहती है और लोग एक से बढ़ कर एक नया आईडिया लाकर एक थीम से संबधित झांकियां अपने पंडालों में स्थापित करने के प्रयास में लग जाते हैं I ये पंडाल सप्तमी से लेकर नवमी तक चलते हैं I

दुर्गा-पूजा के दिनों में पूजा-पंडालों के कारण शहरों में खूब भीड़-भाड़ रहती है और जाम की समस्या से भी दो चार होना पड़ जाता है I फिर भी लोग इन भव्य पंडालों के दर्शन करने का अवसर चूकना नहीं चाहते और बड़ी संख्या में अपने शहरों और यहाँ तक कि दूसरे नगरों व राज्यों से भी इनका आनंद लेने आते हैं I

पूजा का समापन

इस प्रकार घरों व पंडालों में स्थापित की गयी दुर्गा की मूर्तियों को दसवें अर्थात दशमी वाले दिन समीप के किसी जल-कुंड जैसे सरोवर, नदी या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है I विसर्जन के पश्चात परिवार व आयोजन समिति के सभी सदस्य एक दूसरे से गले मिलते हैं I फिर घर लौटकर केले के पत्ते पर बिल्व-वृक्ष-दंडिका (बेल के पेड़ की डंडी) की कलम बनाकर, आलते की सहायता से 13 बार ‘श्री दुर्गा सहाय’ (अर्थात देवी-दुर्गा हमारी सहायता करें), लिखकर उसे पुनः समीप स्थित किसी सरोवर, नदी या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है I इसके साथ ही वर्तमान नवरात्र उत्सव का समापन हो जाता है और अगले आने वाले नवरात्रों की उत्सुकता से प्रतीक्षा पुनः आरम्भ हो जाती है I

बंगाल में दुर्गा-पूजा से जुड़े विशिष्ट स्थान

यों तो पूरे बंगाल में ही दुर्गा-पूजा में खूब रौनक रहती है परन्तु विशेष रूप से राजधानी कोलकाता में तो पूजा पंडालों की शोभा देखते ही बनती है I यहाँ स्थित ‘काली घाट’ पर, जहां महाकाली का शक्तिपीठ विद्यमान है, इतनी भीड़ होती है कि तिल रखने को भी जगह नहीं बचती I धक्का-मुक्की के बीच लोग किसी तरह अपनी आराध्य देवी के दर्शन पाने के लिए घंटों लाइन में खड़े होकर अपनी बारी आने की धैर्य-पूर्वक प्रतीक्षा करते हैं और उनकी एक झलक पाकर धन्य हो जाते हैं I इसके अतिरिक्त देवी दुर्गा के 51 शक्तिपीठों में शामिल बंगाल स्थित 10 अन्य शक्तिपीठों (कोलकाता के कालीघाट को मिलाकर इनकी कुल संख्या 11 है) अर्थात मुर्शिदाबाद स्थित किरीट शक्तिपीठ, केतुग्राम स्थित बाहुल शक्तिपीठ,क्षीरग्राम में स्थित युगाद्या शक्तिपीठ, वीरभूम जिले में स्थित नलहाटी,वक्त्रेश्वरतथा नंदीपुर शक्तिपीठ,जिला पूर्वीमेदिनीपुर स्थित विभाष शक्तिपीठ, लामपुर स्थित अट्टाहास शक्तिपीठ, हुगली जिले में स्थित रत्नावली शक्तिपीठ तथा जलपाइगुड़ी स्थित त्रिस्तोता शक्तिपीठ में भी नवरात्र के दिनों में जाकर लोग श्रद्धा-पूर्वक दुर्गा की आराधना करते हैं I

बंगाली संस्कृति में दुर्गा-पूजा का इतना महत्व है कि भारत स्थित पश्चिम बंगाल ही नहीं, बंगलादेश में भी यह उत्सव पूरे धूमधाम से मनाया जाता है I यहाँ बसे हुए बंगाली हिन्दू परिवार शारदीय नवरात्रों के अवसर पर स्थानीय दुर्गा मंदिरों के साथ-साथ वहां स्थित चार शक्तिपीठों, यथा खुलना स्थित  सुगंधाशक्तिपीठ, भवानीपुर स्थित करतोयाशक्तिपीठ, ईश्वरीपुर स्थित यशोर शक्तिपीठ तथा चटगांव स्थित चट्टल शक्तिपीठमें जाकर देवी दुर्गा की उपासना करने का प्रयास भी करते हैं I

कुल मिलाकर दुर्गा-पूजा के अवसर पर बंगाल में वही उत्साह और उमंग का माहौल देखने को मिलता है, जो उत्तर भारत में दीपावली के अवसर पर नज़र आता है I यदि आपको इन दिनों बंगाल के किसी शहर में जाने का अवसर मिले तो आप पायेंगें कि सभी कार्यालय बंद हैं, बाज़ार दुल्हन की तरह सजे हैं और सारे नागरिक उमंग से भरे पूजा कार्यों में व्यस्त हैं I अर्थात चहुंमुखी गतिविधियों का केंद्र बंगाल, नौ दिनों में एकमुखी हो जाता है, जहां दुर्गा-पूजा के अतिरक्त अन्य किसी कार्य में संलिप्त होना तो दूर, कोई उसपर बात करना भी पसंद नहीं करता I अतः हम बेझिझक कह सकते हैं कि समृद्ध विरासत से संपन्न बंगाली संस्कृति में दुर्गा-पूजा का वही स्थान है जो गायिकी में सुर का, वादन में लय का और नृत्य में ताल का है I