युधिष्ठिर को अपने बंधु-बांधवों के मरने का बड़ा दुःख था। जब उन्हें हस्तिनापुर का राज्य सौंपा गया तो उन्होंने राजा बनने से इनकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण, व्यासजी और अन्य महर्षि उन्हें अनेक प्रकार से समझाने लगे।
इस पर युधिष्ठिर मोहवश बोले-“प्रभु ! मैंने अपने स्वार्थ के लिए अनेक लोगों के प्राण ले लिए। मैंने मित्र, चाचा, भाई, ब्राह्मण और गुरुजन‒सभी के साथ द्रोह किया। हज़ारों वर्ष नरक भोगने के बाद भी मेरे पापों का प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। यद्यपि शास्त्रों में कहा गया कि प्रजा पर संकट आने पर राजा धर्मयुद्ध द्वारा शत्रुओं का संहार कर सकता है और इससे उसे कोई पाप नहीं लगता, किंतु मैंने राज्य प्राप्त करने के लिए अपने बंधु-बांधवों और अनेक निर्दोषों का वध किया है। अतः मेरे मन को कभी भी शांति प्राप्त नहीं हो सकती। भला बंधु-बांधवों के शवों पर मैं अपना राज्य कैसे खड़ा कर सकता हूं? जैसे कीचड़-से-कीचड़ और मदिरा-से-मदिरा की अपवित्रता नहीं मिटाई जा सकती, उसी प्रकार यज्ञ करके एक भी प्राणी की हत्या का प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता।”
इस प्रकार युधिष्ठिर को शोकमग्न देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भीष्म पितामह की शरण में जाने का परामर्श दिया। तब युधिष्ठिर अपने भाइयों, माता कुंती, द्रौपदी और श्रीकृष्ण के साथ भीष्म पितामह के पास गए। उसी समय देवर्षि नारद, पर्वत मुनि, धौम्य, वशिष्ठ, भारद्वाज, व्यास, विश्वामित्र, गौतम, शुकदेव, अत्रि और परशुराम सहित अनेक ऋषि-मुनि वहां पधारे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की पूजा-उपासना की और उनके निकट ही विराजमान हो गए।
युधिष्ठिर ने शर-शय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह को प्रणाम किया और धर्म के संबंध में उनके रहस्य पूछे। भीष्म पितामह ने धर्म-संबंधी ज्ञान देकर उनकी सभी शंकाएं दूर कर दीं। उनके संतुष्ट हो जाने के बाद भीष्म ने श्रीकृष्ण के चरणों का ध्यान कर प्राण त्याग दिए। इस प्रकार भीष्म पितामह श्रीकृष्ण में विलीन हो गए। तत्पश्चात् अन्य सभी हस्तिनापुर लौट आए।
धृतराष्ट्र की आज्ञा और श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर का राज्य स्वीकार कर लिया और धर्मपूर्वक शासन करने लगे। चारों ओर धर्म का राज्य स्थापित हो गया।
