नीला- ‘तुमने उसे क्यों पत्र लिखा?
मीना- ‘किसको?’
‘उसी को!’
‘मैं नहीं समझी।’
‘खूब समझती हो। जिस आदमी ने मेरा अपमान किया गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा उसे तुम मुँह लगाती हो, क्या यह उचित है?’
‘तुम गलत कहती हो।’
‘तुमने उसे खत नहीं लिखा?’
‘कभी नहीं।’
‘तो मेरी गलती थी, क्षमा करो। तुम मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती।’
‘मैंने किसी को खत नहीं लिखा।’
‘मुझे यह सुनकर खुशी हुई।’
‘तुम मुस्कुराती क्यों हो?’
‘मैं?’
‘जी हां आप।’
‘मैं तो नहीं मुस्कुराईं।’
‘क्या मैं अंधी हूँ?’
‘यह तो तुम अपने मुँह से ही कहती हो।’
‘तुम क्यों मुस्कुराईं?’
‘मैं सच कहती हूँ मैं जरा भी नहीं मुस्कुराईं।’
‘मैंने अपनी आंखों से देखा।’
‘अब मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊं?’
‘तुम आंखों में धूल झोंकती हो।’
‘अच्छा मुस्कुराईं। बस, या जान लोगी।’
‘तुम्हें किसी के ऊपर मुस्कराने का क्या अधिकार है?’
‘में तेरे पैरों पड़ती हूँ नीला, मेरा गला छोड़ दे। मैं बिलकुल नहीं मुस्कुराईं।’
‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूं।’
‘यह मैं जानती हूं।’
‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा है।’
‘तू आज किसका मुँह देखकर उठी है?’
‘तुम्हारा।’
‘तू मुझे थोड़ा संखिया क्यों नहीं दे देती?’
‘हां, मैं तो हत्यारिन हूँ ही।’
‘मैं तो नहीं कहती।’
‘अब और कैसे कहोगी? क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारिन हूं, मदमाती हूँ, दीदा-दिलेर हूँ, तुम सर्वगुणकारी हो, सीता हो, सावित्री हो। अब खुश हुई?’
‘लो कहती हूँ, मैंने उन्हें पत्र लिखा, फिर तुमसे मतलब? तुम कौन होती हो, मुझसे जवाब तलब करने वाली?’
‘अच्छा किया लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफी थी कि मैंने तुमसे पूछा।’
‘हमारी खुशी, हम जिसको चाहेंगे, खत लिखेंगे। जिससे चाहेंगे, बोलेंगे। तुम कौन होती हो रोकने वाली? तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती हालांकि रोज तुम्हें पुलिंदों पत्र लिखते देखती हूँ।’
‘जब तुमने शर्म ही भून खायी, तो जो चाहो करो, अख्तियार है।’
‘और तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गाई? सोचती होगी, अम्मा से कह दूँगी, यहाँ इसकी परवाह नहीं है। मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी, बातचीत भी की। जाकर अम्मा से, दादा से और सारे मुहल्ले से कह दो।’
‘जो जैसा करेगा, अपने आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊं?’
‘ ओ हो, बड़ी धैर्यवान, यह क्यों नहीं कहती, अँगूर खट्टे हैं?’
‘जो तुम कहो, वही ठीक है।’
‘दिल में जली जाती हो।’
‘मेरी बला जले।’
‘रो दो जरा।’
‘तुम खुद रोओ, मेरा अंगूठा रोए।’
‘मुझे उन्होंने एक रिस्टवाच भेंट दी है, दिखाऊँ?’
‘मुबारक हो, मेरी आँखों का शनीचर न दूर होगा?’
‘मैं कहती हूँ, तुम इतनी जलती क्यों हो?’
‘अगर मैं तुझसे जलती हूँ तो मेरी आये पट्टम हो जाएँ।’
‘तुम जितना ही जलोगी, मैं उतना ही जलाऊंगी।’
‘मैं जलूंगी ही नहीं।’
‘जल रही हो, साफ!’
‘कब संदेशा आएगा।’
‘जल मरो।’
‘पहले तेरी भाँवरें देख लूँ।’
‘भाँवरों की चाट तुम्हीं को रहती है।’
‘अच्छा। तो क्या बिना भाँवरों का ब्याह होगा।’
‘यह ढकोसले तुम्हें ही मुबारक रहें, मेरी लिए प्रेम काफी है।’
‘तो क्या तू सचमुच.!’
‘मैं किसी से नहीं डरती।’
‘यहाँ तक नौबत पहुँच गई। और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नहीं लिखा और कसमें खा रही थी?’
‘क्यों अपने दिल का हाल बताऊं?’
‘मैं तो तुमसे पूछती न थी, मगर तू अपने-आप ही बक रही है।’
‘तुम मुस्कुराईं क्यों।’
‘इसलिए कि वह शैतान तुम्हारे साथ भी यही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा। और फिर तुम मेरी तरह उसके नाम को रोओगी।’
‘तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था।’
‘मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता था, और कहता था कि मैं मर जाऊंगा और जहर खा लूंगा।’
‘सच कहती हो?’
‘बिलकुल सच।’
‘यही तो मुझसे भी कहते हैं।’
‘सच?’
‘तुम्हारे सिर की कसम।’
‘और मैं समझ रही थी, अभी यह दाने बिखेर रहा है।’
‘क्या वह सचमुच…?’
‘पक्का शिकारी है।’
‘मीना सिर पर हाथ रखकर चिंता में डूब जाती है।’