Hindi kahani : मई महीने की चिलचिलाती धूप में दिनेश बैजनाथपुर रेलवे स्टेशन से अपनी पुरानी जंग लगी हुई साइकिल पर बैठकर कुछ सोचते हुए घर की तरफ़ जा रहा था। धूप से बचने के लिए सिर पर गमछी से पगड़ी बनाकर ढँक लिया, जिसका पिछला हिस्सा मंद हवा के झोंके में धीमी गति से लहर रहा था। उसके दिमाग़ में बहुत सारी बातें चल रही थीं। मैट्रिक की परीक्षा में दो बार फ़ैल हो चुका था। नयी सरकार आ जाने के बाद तो वैसे भी मैट्रिक के इम्तहान में कामयाबी हासिल करना इतना आसान काम नहीं रहा है।
परीक्षा में अब चोरी तो चलती नहीं है। चीटिंग बाज़ी का ज़माना तो कब का ख़त्म हो गया। पिछली बार तो दिनेश 10 अंकों से परीक्षा पास करते-करते अटक गया। लेकिन तीसरी बार तो उसे उम्मीद है कि वह हर हालत में परीक्षा पास कर जायेगा। इन सारी बातों को सोचते-सोचते रेलवे स्टेशन से थोड़ा दूर बढ़ा ही था कि कुछ दूरी से किसी ने पुकारा। “दिनेश, कहाँ से आ रहे हो? मैं तीन दिनों से तुझे खोज रहा था। आ जाओ, बैठकर तारी पीते हैं।“
“अरे शंभू, कैसे हो? सहरसा गया था ममता दीदी को संदेश पहुँचाने के लिए।“
“चल मेरे साथ। आज की शाम तारी के नाम हो जाये। जल्द ही शाम ढलने वाली है। शाम ढलते ही गर्मी से राहत मिल जायेगी।“ ये कहकर शंभू दिनेश के साथ अपना घर पर आया और उसने मचान के सहारे साइकिल खड़ी कर दी। दोनों आंगन में आ गये। माँ आँगन में बैठकर सब्ज़ी काट रही थी। “माँ, हम दोनों शाम के सात बजे तक घर
आ जायेंगे। दिनेश के लिए भी खाना बना लेना। और बाबा को बोल देना कि आज वह ख़ुद से भैंस दुह ले।“
सिर हिलाते हुई माँ ने हाँ में हाँ मिलाया। शंभू एक बाल्टी लेकर दिनेश की साइकिल पर पीछे बैठ गया और दिनेश दोबारा पटरी के किनारे-किनारे साइकिल भगाने लगा। आधा किलोमीटर आगे बढ़ने पर पटरी से कुछ दूर हटकर खेत में तार के आठ नौ गगनचुंबी दरख़्ते दिखायी देने लगे। थोड़ा हटकर आम का एक घना बागान था। पास में एक घास-फूस की झोंपड़ी खड़ी थी। झोंपड़ी में सुखन पासी की पत्नी तारी, मकई, चना और चूरे का भुजा बेच रही थी। पास में गाँव के तीन चार लोग तारी पी रहे थे।
शंभू ने सुखन पासी की पत्नी से पूछा, “सुखन कब तक आयेगा? उसने मेरे गाछ से तारी उतारी?”
महिला ने एक ग्राहक को चने का भुजा देती हुई जवाब दिया, “सपहा गाँव गया है तारी उतारने के लिए। आपके तार से अभी तक तारी नहीं उतारी है। वापस आता ही होगा, अभी रास्ते में होगा। आप दोनों यहाँ बैठकर आराम करो।“
ये कहकर महिला ने उन दोनों की तरफ़ एक चटाई बढ़ा दी। वे दोनों बैठकर सुखन पासी की राह देखने लगे। दस मिनट बाद सुखन ने झोंपड़ी के पास दस्तक दी और साइकिल से एक ड्राम तारी निकालकर पत्नी के पास रख दी। उसके बाद शंभू और दिनेश की तरफ़ मुड़कर बोला, “भैया, क्या आज भी तारी पीयेंगे?” इस पर शंभू ने मुस्कुराकर हाँ में सर हिलाया। सुखन शंभू से एक सिगरेट माँगकर पीने लगा और दस मिनट आराम किया। फिर आलस्य के साथ जंभाई लेते हुए उठा और बोला, “चलिए, शंभू बाबू मेरे साथ। आपको ताज़ी तारी उतारकर देता हूँ।“
दोनों बाल्टी लेकर सुखन पासी के पीछे-पीछे चलने लगे। पश्चिम से सूरज अपना विशाल आकार में तार के पेड़ पर रौशनी की बौछार कर रहा था और धूप हर पल बड़ी तेज़ी से कमज़ोर और धीमी होती जा रही थी। सुखन पांच मिनट के अंदर ही तार पर चढ़ चुका था और हर मटके से तारी निकालकर एक मटका में जमा कर रहा था। 10-15 मिनट के अंदर नीचे उतरा और शंभू की बाल्टी में ताज़ी तारी डाल दी।
अब झोंपड़ी में वापस आकर दोबारा चटाई पर बैठ गये और सुखन से शीशे के दो गिलास और चने का भुजा लेकर तारी पीने लगे। आधा घंटा बाद दिनेश के ऊपर गर्म तारी अपना करिश्मा दिखाने लगी। वह अब नशा के हल्के सुरूर में था। सुबह की तारी तो दूध की तरह निर्मल और लाभदायक होती है, उसमें नशा तो बिलकुल नहीं होता है, लेकिन शाम की तारी पूरा दिन तेज़ धूप में तपती रहती है, उबलती रहती है और उसे पीते ही झट से नशा सर पर सवार होने लगता है। शाम की तारी सुनामी और चक्रवात की तरह पेट में चक्कर लगाने लगती है। नशे में मदहोश होकर दोनों दोस्त इधर उधर की बात करने लगे।
एक गिलास तारी घटकते हुए शंभू बोला, “दिनेश, तुम मेरे ससुराल मानसी चलो मेरे साथ। वहाँ तुझको बकरे और मुर्गे का माँस खिलाऊँगा। साथ में व्हिस्की की बोतल भी रहेगी। जमकर मेहमानी करेंगे। मेहमानों की तो मेरे ससुराल में जमकर ख़ातिरदारी होती है, ये तो तुम भी जानते हो। वे लोग मेहमान नाबाज़ी में हम लोगों से भी काफ़ी आगे हैं। असल गुआर (यादव) तो वही लोग हैं। हम लोग तो सिर्फ़ नाम के जादब हैं, लेकिन वे लोग काम के जादब हैं।“
इसे सुनकर दिनेश की बाछें खिल उठीं। बकरे का गोश्त और व्हिस्की का नाम सुनते ही उसके मुँह से पानी और लार टपक पड़े। शंभू के बाद उसने भी गिलास में बची हुई तारी की आख़िरी बूंद झटके से पीकर गिलास को ज़मीन पर रख दिया। आँखें तिरछा करते हुए बोला, “पिछली बार जब मैं तुम्हारी बारात में गया था तो मज़ा आ गया। एक से एक टंच माल तुम्हारे ससुराल में हैं।
मैंने वहाँ कुरूप लड़कियों के साथ-साथ कई सुंदर लड़कियाँ भी देखीं। तुझे याद है, मानसी स्टेशन पर ट्रेन की बोगी से उतरते ही लड़की के घर तक जमकर हंगामा बड़पाया था। तुम घोड़ा पर दूल्हा बनकर बैठा हुआ था और मैं नशे में मस्त होकर तुम्हारे आगे ढोल और नगाड़े की धुन पर नाच रहा था। फिर महफ़िल सजी और मैंने महफ़िल में बाराती पार्टी की तरफ़ से माइक उठाकर सबका अभिनंदन किया था।
तूने मंडप में अपनी पत्नी के गले में माला डाली और उसने भी तेरे गले में माला डाली। तूने अपनी पत्नी के हाथ में हाथ डालकर मंडप के कई चक्कर लगाया और पूरी ज़िंदगी साथ-साथ जीने मरने के फेरे लिये। मैं देर रात तक दोस्तों के साथ नाचता रहा। तीन बजे रात को सिंदूरदान हुआ था। तुम कितनी सुंदर सालियों से घिरा हुआ था। वाकई मज़ा आ गया, शंभू यार। अगला रोज़ चार बकरे काटे गये थे और दोस्तों के साथ जमकर शराब पीयी थी और पेट भरकर बकरे का मांस खाया था।“
इस पर शंभू हँसते हुए बोला, “तीन साल गुज़र गये। इस बार मेरे साथ चलोगे तो और ज़्यादा मज़ा आ जायेगा। जमकर रईसी करेंगे ससुराल में। जो लडकियाँ तीन साल पहले बच्ची थीं, वे अब जवान हो गयी हैं। ससुराल तो अय्याशी का अड्डा होता है। मेरे ससुराल का तो मज़ा ही कुछ और है। जी भरकर पीयेंगे और मांस खायेंगे। एक हफ़्ता तक मेहमानी करेंगे। ससुराल से बड़ा स्वर्ग तो इस दुनिया में कहीं भी नहीं है।“
इस पर दिनेश और शंभू दोबारा गिलास में तारी भरकर तेज़ी घटक गये। दिनेश गमछी से मुँह पोंछते हुए बोला, इस बार ज़रूर जाऊँगा तेरा ससुराल। लेकिन शंभू एक बात मुझे बता यार। वह जो गौरी लड़की थी, जो तुम्हारी शादी में हमेशा मंडप में तुम्हारे पास खड़ी थी, हमेशा उसके चेहरे पर हलकी मुस्कान रेंगती रहती थी, वह बेहद ख़ूबसूरत लड़की है। उसकी नाक कितनी लंबा थी।
बड़ी-बड़ी काली आँखें थीं। उसका कितना ज़्यादा मखमली और सपाट था। शक्लो सूरत काफ़ी अच्छी थी। मुँह का कट कितना अच्छा था। अब तो वह पूरी तरह से जवान हो गयी होगी। उसकी शादी हो गयी क्या?”
शंभू ने जेब से एक सिगरेट निकलकर सुलगा लिया और एक कश लेते हुए बोला, तुम सरिता की बात कर रहे हो। वह इंटर में अभी पढ़ रही है। उसकी शादी अभी तक नहीं हुई है।“
इसे सुनकर दिनेश के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ने लगी। उम्मीद की निगाह से शंभू की तरफ़ देखने लगा। इस बार दिनेश कुछ सोचते हुए गिलास में तारी उलेड़ने लगा। गाँव में घनघोर अँधेरा छा गया था। सहरसा से मधेपुरा की तरफ़ जाने वाली रेलगाड़ी की हॉर्न की आवाज़ नीरस अंदाज़ में दूर से सुनायी दे रही थी।
झोंपड़ी में लालटेन टिमटिमा रही थी। झोपड़ी के दूसरे कोने में गाँव के तीन चार नौजवान तारी के नशे में ज़ोर-ज़ोर से ठहाके मारते हुए बात कर रहे थे और बीच-बीच में चिलम में गांजा भरकर कश लगा रहे थे। दिनेश तारी घटकते हुए बोला, “यार, मैं आज तक सरिता की ख़ूबसूरत शक्ल को नहीं भूल पाया।
दोबारा उसको देखने की चाहत हो रही है। अब तो वह और ज़्यादा निखरकर सुंदर हो गयी होगी और गुलाब की तरह खिल रही होगी। दिल तो करता है कि अभी तुम्हारे ससुराल जाकर उसके होंठ चूमने लगूँ। उसे जी भरकर सहलाऊँ। जब मैं तुम्हारी बारात में गया था तो हर वक़्त मैं उससे ही बात करता रहता था। किसी न किसी बहाने से आँगन चला जाता था। शंभू, भगवान ने तुझे निहायत ही ख़ूबसूरत साली दी है। तुम बहुत ख़ुशनसीब हो।“
शंभू चिलम में गांजा भरते हुए बोला, “ऐसा लगता है कि तुम एक बार फिर सचमुच में सरिता पर फ़िदा हो गये हो। ऐसी बात है तो मैं सरिता से दोबारा मुलाक़ात करवा दूँगा। 25 जुलाई को मैं ससुराल जा रहा हूँ। चलोगे मेरे साथ।“
दिनेश ने साँस अंदर खींचते हुए गांजा का लंबा कश लिया और शंभू की तरफ़ धुआँ को धीरे-धीरे छोड़ते हुए बोला, “इस बार तो ज़रूर जाऊँगा। धीमे स्वर में बोलो। उस कोने वे तीनों गाँव के नारद मुनि बैठे हुए हैं। सुन लिया तो मेरे पिता जी को बतला देगा और मैं तेरा ससुराल इस बार भी नहीं जा पाऊँगा।“
इस पर शंभू और दिनेश धीमे स्वर में बात करने लगे। रात के आठ बज गये थे। जब तारी और गांजा के नशे का सुहावना संगम होने लगा तो दोनों काफ़ी फ़िक्रमंद होने लगे। किसी महान मुफ्फ़किर (विचारक) की तरह दुनियादारी की बातें सोचने लगे। फ़िज़ा में सन्नाटा और ख़ामोशी पहले ही दस्तक दे चुकी थी। इतना ज़्यादा अँधेरा था कि सामने की रेलवे पटरी बिलकुल दिखायी नहीं दे रही थी। शबनम की कोमल बूंदें घास को भिंगाने लगी थीं।
दोनों बाहर नम घास पर लड़खड़ाते हुए लेट गये। और दोबारा से गांजा पीने लगे। बात करते-करते दोनों अब इस तरह से ख़ामोश हो गये, मानो कि नशे की आग़ोश में किसी तवील ख़यालात में गर्क़ हो गये हों। दिनेश की आत्मा नशे के ज़द में आकर शंभू के ससुराल के इर्दगिर्द मंडराने लगी। सोचने लगा कि मेरी आँखों के सामने तीन साल के अंदर ही सभी सुंदर लड़कियों की शादी हो चुकी है और बच्चों को जन्म दे चुकी हैं।
दूर से किसी की डाँटने की आवाज़ आयी, “शंभू, साले, आज फिर से तू गांजा पीने के लिए यहाँ आ गया। गांजा से कब तुझे मुक्ति मिलेगी? बेटा, इतना बार समझाया कि गांजा पीना छोड़ दो, लेकिन इस हरामी के भेजा में मेरी बात घुसती ही नहीं है। मेरे घर में ये नशेरी पैदा लिया है। कुल-खानदान को कलंक का टीका लगा रहा है। साला, तारी पीने के बहाने यहाँ गांजा पीने आ जाता है।
मैंने मन में ठान लिया है कि तारी का गाछ कटवा दूँगा। ना रहेगा बाँस, ना बाजेगी बांसुरी। गांजा पीने का कोई ना कोई बहाना ढूंढ़ ही लेता है। माँ ने कब का खाना बनाकर रख दिया है। खाना कब का ठंडा पड़ चुका है।“
हर बार शंभू के पिताजी तारी के इस लंबे पेड़ को कटवा देना चाहता है, किंतु जब उसे अपने दादा जी की याद आ जाती है तो वो अपने इरादे से पीछे हट जाते हैं। उसे इस तार के पेड़ से बेहद लगाव है, क्योंकि उसके दादा जी ने यह पेड़ रोपा था, आज से लगभग सौ साल पहले। दादा जी कब का स्वर्ग सिधार गये और अपने पीछे एक निशानी छोड़कर चले गये। इसी मोह की वजह से शंभू के पिता जी इस बूढ़े तार को काटने में सक्षम नहीं है।
यह आवाज़ सुनकर दोनों झट से सतर्क हो गये। शंभू ने अंदर जेब में चिलम छुपा लिया। तब तक उसका बाप नज़दीक आ गया था। शंभू भयभीत होकर बोला, “बाबा जी, अंदर कोई गांजा पी रहा है। गांजा की बदबू यहाँ तक आ रही है। मैंने तो थोड़ी सी तारी पी ली और दिनेश से इधर उधर के गप्पें हांकने लगा।“
सही में अंदर से गांजा की ख़ुशबू आ रही थी। इसे देखकर पिता जी ने विश्वास कर लिया। वे दोनों पिता जी के साथ घर की तरफ़ निकाल पड़े। घर पर पहुँचकर उन्होंने साथ में खाना खाया और दिनेश भी शंभू के मचान पर ही बात करते-करते सो गया।
अभी मई का आख़िरी हफ़्ता चल रहा है। दिनेश बेसब्री से 25 जुलाई का इंतज़ार कर रहा है। उसके ज़ेहन में सरिता की सुंदर शक्ल, दिन के उजाले में ही चलते फिरते ख़्वाबों में उसकी लंबी-लंबी काली घुंघराली ज़ुल्फ़, बड़ी-बड़ी काली आँखों, उसके सफ़ेद रुख़सार को देखता रहता था। सरिता को एक बार चूमने की ख्व़ाहिश उसके दिल में अंगराई लेने लगती थी। इन सब बातों को सोचकर उसकी बेताबी और ज़्यादा बढ़ने लगती थी।