बचपन के हमारे संगी-साथी जो जीवन की आपाधापी में कहीं पीछे छूट चुके थे, अब उनकी कमी अखरने लगती है। लेकिन जब भी उनकी बातें याद आती हैं मन पुन: जी-सा उठता है और ऐसा लगता है कि बचपन लौट आया है।मेरे बचपन की एक सहेली, मंजू! उस स्कूल में मेरी पढ़ाई की शुरुआत नौवीं कक्षा से हुई थी, क्योंकि उसके पहले मेरे पिताजी की पोस्टिंग दूसरे शहर में थी। जब मैं अपने नए स्कूल में पहले दिन पहुंची तो किसी को भी जानती नहीं थी। पूछते-पाछते मैंने अपना क्लासरूम खोजा और एक सीट पर अपना स्कूल-बैग रख दिया। क्लासरूम उस समय खाली था।
सुबह की असेंबली की तैयारी चल रही थी और घंटी बजते ही सभी छात्र स्कूल के प्लेग्राउंड में अपनी-अपनी कक्षाओं के अनुसार पंक्तिबद्ध होकर एकत्र हो गए। प्रार्थना और असेंबली के बाद सभी अपनी-अपनी निर्धारित कक्षाओं की ओर बढ़ लिए। मैं भी अपनी कक्षा के छात्रों के साथ क्लासरूम में आ गई। जहां मैं अपना बैग रखकर गई थी, उस जगह पर एक सांवली-सी, लाल रिबन से दो चोटी बांधे, एक दुबली-पतली लड़की खड़ी हुई थी। वो अपनी सीट पर रखे मेरे बैग को देख उत्सुकता से इधर-उधर देख रही थी कि आखिकर वह बैग वहां कौन रख गया है? जब मैं उसके पास पहुंची तो उसने बहुत ही स्नेह से मुझसे पूछा कि क्या वो बैग मेरा था? मैंने ‘हांÓ में सिर हिला दिया पर मुंह से कुछ नहीं बोला। नए स्कूल में वो पहला दिन, सभी अनजान बच्चे, नए अध्यापक- मन पहले ही बहुत उत्कंठित था और शायद मेरी उत्कंठा को मेरे चेहरे पर मंजू ने पढ़ लिया था। उसने बहुत प्यार से मेरा हाथ थामा और मुझे अपनी ही सीट पर बैठा लिया। उस एक पल ने मेरे और मंजू के बीच कभी न टूटनेवाली एक डोर बांध दी थी। लेकिन मैं बहुत अच्छे से जानती हूं कि उस डोर से बंधे रिश्ते को मुझसे ज़्यादा मंजू ने निभाया है।
बात उन दिनों की है जब हम दोनों दसवीं कक्षा में आ चुके थे। मंजू फिजिक्स, केमिट्री और बायोलॉजी का ट्यूशन पढ़ने जाती थी। ट्यूशन हमारे स्कूल के अध्यापक ही पढ़ाते थे। छोटा शहर था और अच्छे अध्यापक गिनती के ही थे। हमारे स्कूल के अध्यापकों का काफी नाम भी था और इसलिए अन्य स्कूलों में पढ़नेवाले छात्र भी उन सबके पास ट्यूशन पढ़ने आया करते थे। कई बार परीक्षाओं के पहले, अध्यापक अपने ट्यूशन के छात्रों को कुछ इम्पॉर्टन्ट प्रश्न बता दिया करते थे और अकसर वो ही इम्पॉर्टन्ट प्रश्न अगले दिन प्रशनपत्र में होते।
मैं पढ़ाई में अच्छी थी और अपनी कक्षा में प्रथम या फिर द्विवतीय स्थान पर रहती थी। मुझे स्वयं ही पढ़ना पसंद था, इसलिए किसी भी विषय के लिए मैं ट्यूशन नहीं जाती थी। यदि आवश्यकता होती तो मेरे पापा और मेरी मां दोनों ही पढ़ाई में मेरी सहायता करते थे। गणित और विज्ञान मेरे पापा मुझे पढ़ाते और हिंदी समाज-शास्त्र, अंग्रेज़ी जैसे विषय मेरी मां की जि़म्मेदारी थे। कुल मिलाकर मेरी पढ़ाई बढ़ियां चल रही थी।
ट्यूशन से लौटते समय मंजू अकसर मेरे घर आ जाती थी। उस समय तक मैं भी अपने स्कूल का काम पूरा कर चुकी होती थी और उसके आने पर हम दोनों सहेलियां साईकल पर घूमने निकल जाते। यह हम दोनों का नियम-सा बन गया था। साईकल चलाने में जो आनंद उन दिनों आया वो सारी उम्र याद रहा और सदा उसकी यादें ताज़ा रहीं।
एक दिन मंजू जब ट्यूशन से लौटकर मेरे घर पहुंची तो कुछ परेशान-सी थी। जब मैंने उससे कारण पूछा तो वो बोली, ‘कल फिजिक्स का इग्ज़ैम है और मेरे तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा। ट्यूशन पर सर ने भी समझाया, लेकिन कुछ पाठ तो मुझे समझ ही नहीं आ रहे। थककर सर ने मुझे कुछ इम्पॉर्टन्ट प्रश्न बता दिए और बोले कि तुम कम से कम इन्हीं को तैयार कर लो। लेकिन मुझे तो वो प्रश्न भी समझ नहीं आए हैं। ऐसा करो ये प्रश्न तुम तो तैयार कर ही लो, मुझे तो वैसे भी समझ नहीं आनेवाले!Ó
हालांकि मुझे उन प्रश्नों की आवश्यकता नहीं थी, किन्तु मंजू की मासूमियत और उसका मेरे प्रति स्नेह मैं कभी नहीं भुला सकी। आज उस घटना को करीब 32 वर्ष गुज़र चुके हैं, फिर भी जब याद आती है तो वो लाल रिबन से दो चोटी बांधे दुबली-पतली मंजू उतनी ही मासूम और स्नेहिल प्रतीत होती है।
मंजू और मैं आज भी संपर्क में हैं। इस संपर्क को बनाकर रखने का श्रेय मंजू को ही जाता है। मंजू आज भी उतनी ही स्नेहिल है। उसके प्यार में कोई परिवर्तन नहीं आया है। उसकी सादगी उसका आत्मविश्वास उसका मेरे प्रति प्रेम, की कहानियां तो मेरे पास और भी हैं। फिलहाल तो यह कहानी उसकी मासूमियत को बयान करने के लिए है।
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