पापा मुझे फिल्म देखने जाने दो
यह किस्सा उस समय का है जब मैं कक्षा 8वीं का विद्यार्थी हुआ करता था, चूंकि उस समय आठवीं कक्षा बोर्ड हुआ करती थी तो पढ़ाई का दबाव भी अधिक होता था। सुबह 7 से 12.30 तक स्कूल, फिर घर पर ही कुछ देर आराम करके मम्मी के साथ पढ़ने बैठना पड़ता था। उस समय जीटीवी नया-नया शुरू हुआ था। सिनेमा जाने की अनुमति थी नहीं। एक दिन बुआ जी की बेटी रात को घर पर आई, उनको सिनेमा जाने का बहुत शौक था, जहां तक मुझे खयाल है वह उस समय हर फिल्म  देखने जाती थी, बुआ की तीन बेटियां थीं, उस समय उनकी शादी नहीं हुई थी। उन्होंने कहा कि मामी कल मैं वासि$फ को भी फिल्म  दिखाने ले जाऊंगी, पढ़-पढ़ कर बोर हो जाता है। दिन में वह पढ़ भी लेगा, स्कूल और पढ़ाई का नुकसान नहीं होगा। शाम 6 बजे का शो है, मैं घर आकर इसे ले जाऊंगी और वापस घर छोड़ जाऊंगी। पापा तो मान गये, मम्मी नहीं मानी। मैं दुखी हो गया। फिल्म अनिल कपूर और मिथुन चक्रवर्ती की थी, एक्शन वाली, मुझे देखनी थी। सुबह उठकर मैंने स्कूल जाने में आनाकानी की, मम्मी ने डांट कर भेजा, पर मैंने नाश्ता नहीं किया टिफिन बाक्स से और पानी भी नहीं पीया। घर लौटने पर मैं थोड़ी कमज़ोरी महसूस कर रहा था। पापा को जब पता चला कि कचौरी-पोहा वाला नाश्ता मैंने किया नहीं और वाटर बाटल भी पूरी भरी हुई है तो पापा ने कहा, ‘बेटू, क्या बात है, तुझे बुखार है क्या’। मैंने कहा, ‘पापा मुझे फिल्म जाने दो, बस आज। पापा को बात समझ आ गई और पापा, बुआजी के घर गये, जिनका घर, मेरे घर से 15 मिनट के अंतराल पर चलने पर आ जाता था। फोन और मोबाइल थे नहीं, मम्मी चिल्लाने लगी पर पापा ने मुझे लाड़ किया। वह ज़्यादा सख्ती के मूड में नहीं रहते थे। शाम को दीदी आई, मैं तैयार हुआ, नाश्ता कर उनके साथ चला गया। वहां फिल्म देखकर बहुत मज़ा आया, बड़े स्क्रीन पर। इंटरवल में मूंगफली और भजिये का नाश्ता… मज़ा आ गया। उसके बाद मम्मी ने भी मुझे कभी सिनेमा जाने से नहीं रोका। क्या बचपन था वो… जहां रूठने पर मनाने वाले भी थे और हर जि़द पूरी हो जाती थी।
– डॉ. वासिफ काज़ी (इंदौर)
das hajaar rupaye do nahin to
दस हजार रुपये दो नहीं तो
मैं बचपन में बहुत शरारती थी। खूब जमकर शरारत करती थी। लिखने का शौक बचपन से ही था। मेरी मां कहती थीं जब मैं बहुत छोटी थी तब कागज/स्लेट पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी। यह किस्सा तब का है, मुझे याद नहीं कि मैं कौन सी कक्षा में थी लेकिन हां, मैं अच्छी तरह लिख लेती थी। हमारे घर (अलीगढ़) के बराबर वाली गली में एक विधवा प्राइमरी की अध्यापिका रहती थीं, उनका एक ही पुत्र था। मैंनें उन्हें एक चिट्ठी  लिखी, ‘उर्मिला बहन जी (सब उन्हें बहन जी कहते थे) अगर आप अपने बेटे बबलू को प्यार करतीं हैं तो दस हजार रुपये मेरे पते पर पहुंचा दो नहीं तो हम तुम्हारे बेटे को उठाकर ले जायेंगे। यह लिखकर मैं उनके घर पर वह चिट्ठी  डाल आई। बहन जी हमारे घर आईं और वह चिट्ठी  पापा को देते हुए रुआंसे स्वर में बोलीं, ‘भाईसाहब, यह चिट्ठी  मेरे यहां आई है। मेरे पास दस हजार रुपये नहीं हैं, मैं क्या करूं? पापा ने वह चिट्ठी  देखी और कहा, ‘बहनजी, इस पर तो डाकखाने की मुहर ही नहीं है, इसका मतलब कोई आपके यहां यह चिट्ठी  डाल गया है। जैसे ही पापा ने वह चिट्ठी  खोली तो मेरी लिखावट देखकर बोले, ‘अरे, यह लिखावट तो गुड़िया (मेरा घर का नाम) की है, तो इसने की है यह शरारत। पापा-मम्मी ने मुझे बहुत डांटा। बाद में पापा ने समझाया, ‘बेटा, ऐसी शरारत नहीं करते, जिससे किसी का दिल दुखे। सच! ऐसी शरारत मैंने फिर कभी नहीं की लेकिन उस शरारत को याद करके मैं आज भी बहुत हंसती हूं।
– डॉ. अनिता राठौर मंजरी (आगरा)