नम्मो यानी मंझली दीदी की बिटिया यानी मेरी चौथे नम्बर की भांजी। एक बेटे की चाह में लगातार चार बेटियों की मां बन गई थी दीदी अब उन्हें और जीजा जी को कौन समझाता कि उस मायावी नटवर नागर के आगे किसी की चाह कभी पूरी हुई है क्या। जीजा जी तहसील कोर्ट में नाजिर की नौकरी में खट रहे थे सीधेसादे सज्जन की उपाधि देने योग्य व्यक्तित्व था उनका। कोर्ट में वकीलों से प्यार मोहब्बत का सम्बन्ध था। सुनवाई की तारीख इधर उधर करके रोज पच्चीस -पचास की ऊपरी कमाई फटकार कर खुश रहते थे। बड़ी तीनों लड़कियों के विवाह सम्पन्न कराने के रास्ते में उन्हें कोई ज्यादा कठिनाई नहीं हुई थी। लड़कियां सभी रूपवती और गौरांग थीं। हालांकि जीजा जी सांवले थे परन्तु लड़कियां मेरी सुन्दरी दीदी पर गई थीं। ऊपर से सब ग्रेजुयेट। सोने पर सुहागा यह कि सब नौकरीपेशा। तीनों पुत्रियों की शादियां कैसे बिना दहेज़ के हो गईं, न दीदी को पता चला न जीजा जी को।

दीदी और जीजा जी इधर चिंतित चल रहे थे। बुढ़ापा शरीर को छोड़ने लगा था। नम्रता का विवाह उनके लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी। तीन लड़कियों के विवाह में प्रोवीडेंट फंड का रूपया थोड़ा-थोड़ा करके खुले पिंजरे की मैना की तरह फुर्र हो चुका था। इस कनिष्ठा को देने के लिए अब कोष में कुछ बचा ही नहीं था। यह तो अच्छा हुआ कि जीजा जी के रिटायरमेंट के कुछ महीने बाद ही उनकी जगह पर जज साहब ने नम्मो की नौकरी लगवा दी। तब तक चौबीस-पच्चीस की हो चुकी थी नम्रता। जात कमल सा गुलाबी खिला-खिला रूप, नपातुला नाक-नक्श। कोई देखे तो विवाह के लिए न नहीं कह सके परन्तु उस विधना का क्या जो दुनिया के रंगमंच पर नये-नये ऊटपटांग खेल रचाता है। रूप दिया, गुण दिया परन्तु विवाह के लेख में विलम्बित शब्द जोड़ दिया। वर पक्ष को वधु पसंद आती लेकिन बात लेनदेन पर अटक जाती। इस बिकाऊ जमाने में जीजा जी अपनी हैसियत से डाक्टर, इंजीनियर तो खरीद नहीं सकते थे सो शिक्षक बाबू जैसों से संतोष के मूड में थे।

विवाह के इस खेल में, हिंदुस्तानी समाज में लड़की की उम्र बढ़ने के साथ एक ऐसी स्थिति आती है कि कन्या और कन्या के मां-बाप दोनों ऊब के शिकार हो जाते हैं। वे चाहते हैं कि कैसे भी करके यह विवाह नामी रस्म पूरा तो हो, बला तो टले। आड़ा- टेढ़ा दूल्हा कैसा भी हो, चलेगा। वैसे भी अधिकतर लड़कियाँ समझौतावादी होती हैं। होते-होते भिलाई के एक रिटायर्ड डाक्टर के लड़के के साथ नम्मो की शादी लग ही गई। लड़का कुछ करता नहीं था। बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। बाप के पास डाक्टरी के धंधे में कमाया अच्छा-खासा कोष था। पुश्तैनी जमीन-जायदाद ,खेत-खलिहान भी थे। यानी कि खुद चंचला लक्ष्मी उनके घर में स्थायी रूप से आसन जमा झंडा-पताका गाड़कर विराजमान थीं। जीजा-दीदी, तीनों  बहनों, दामादों और रिश्तेदारों ने इसे नम्मो पर ऊपरवाले का ख़ास करम समझा, बैंड बाजे बजे, बारात आई, सात फेरे हुए और बन गई नम्मो दुल्हनिया। बिदाई हुई तो अपने अम्मा, बाबूजी से लिपटकर खूब रोई। बहनों के काँधे भी भिंगोये। दूल्हा राजा जैसा था, वैसा था। किसी ने ज्यादा मीनमेख नहीं निकाले। मीनमेख और इन्कार-अस्वीकार का मौका ही नहीं था कन्या पक्ष के हाथ ! हां, इतना जरूर था कि नम्मो के संग दूल्हे को जब लोगों ने देखा तो दबी जुबान यह तंज कसना न भूले “ब्यटी एंड द बीस्ट !”

कहां नए लड़कियों का यह ख़ास गुण है कि वे खराब से खराब परिस्थितियों में भी सामंजस्य बैठा लेती हैं। नम्मो ने भी दुल्हन बनकर बैठाया। अपने अरमानों की महमहाती मोंगरे-रातरानी की पोटली लिए वह पी घर पहुंची। ससुराल में दो दिन खूब नेग-दस्तूर हुए। रिश्तेदार जुड़े, नाच-गाना हुआ, हंसी-ठिठोली चली फिर आई सुहाग की रात। परले सिरे के एकांत बड़े कमरे में नया डबल बेड डाला गया। फोम के गद्दे और दूधिया सफेद चादर बिछे। ननद, देवरानियों और जेठानियों ने पूरे कमरे को रंग-बिरंगे महमहाते फूलों से ऐसा सजाया कि लगा कमरे में वसंत उतर आया हो।

रात हुई, नम्मो को ले जाकर ननद-देवरानियों ने कमरे के अंदर गमगमाते पलंग पर बैठा दिया। बाजू में छोटे मेज पर दूध, बादाम, केसर का दो गिलास रखा हुआ था। वह धड़कते हृदय से नैनों में अरमानो का काजल आंजे दूल्हे का रास्ता देखती रही। मुम्बईया फिल्मों के दृश्य की तरह, दस बजा, ग्यारह बजा, बारह बजे। उसकी आंखें नीद में बोझिल हुई जा रही थीं। चाहत के काजल कुछ कडुआने लगे थे कि तभी जोर की आवाज के साथ दरवाजा खुला और उसके साथ ही कमरे के मद्धिम प्रकाश में दिखा एक लड़खड़ाते पुरूष का शरीर। वह सम्हलने के लिए कुर्सी-टेबल का सहारा मांग रहा था । नम्मो स्तब्ध ! न पलंग से उठ सके न बोल सके। कमरा अंग्रेजी शराब की गंध से खदबदा गया। लड़खड़ाती आकृति पास आई और एक दुष्ट-निर्मम आवाज गूंजी “देख, मैं मानता हूं कि तू…… बहुत खूबसूरत है । पर…… मैं तेरे……किसी काम का नहीं । सच बता रहा हूं ……ऊपर से……. मैं मर्द दिखता तो हूँ पर…… हूं नहीं ….. तुझे, मेरे छोड़…… हर सुख मिलेगा समझी ………मेरे दोस्त साले…….मुझे चिढ़ाकर कहते थे न…..कि छक्के को कौन लड़की देगा? कौन करेगी शादी….. मुझसे कल बताऊंगा सालों को……. कि देखो हरामियों,……मेरी भी हो गई शादी, और ये रही मेरी…..खूबसूरत दुल्हन…….. तुम…… हरामजादों को मेरा….. जवाब हो…….तुझे…पता नहीं…. उन बदकारों ने…..मेरे स्वाभिमान….. और आत्मा के…. शरीर में…… ईसा की तरह….कितनी कील ठोकी…..क्रूस…… पर चढ़ाया। …..कल दूंगा जवाब सालों को……… हां, तूने इस राज को खोला……..और मुझे छोड़कर गई तो देख……मेरे हाथों में ये छूरा……। नर्म, मुलायम फूलों जैसे जिस्म को गोद-गोदकर……टुकड़े.टुकड़े कर दूंगा हरामजादी….अब मेरी है तो…..मेरी ही होकर…..रहना पड़ेगा…….। चल उधर हट…….और अब सोजा……। वह नम्मो को बिस्तर में जोर से परे ढकेलते चेताया ।          

उसकी भेड़िये सी जलती-घूरती आंखों से नजर मिलते ही नम्मो का शरीर डर से कंपकपा उठा। उसके मुंह से निकली शराब के भभके ने अंदर ही अंदर नम्मो के जिस्म में घृणा का सैलाब पैदा कर दिया। वह पलंग के दूसरे सिरे पर सरककर सन्न हुई बैठ गई। काफी देर तक उसे कुछ सूझा ही नहीं। कमरे में एक भयानक सन्नाटा तारी था। शरीर सुन्न पड़ गया था। लगा, खोपड़ी में अचानक कोई घन चला रहा हो। बाहर बगीचे से झींगुरों के बोलने की आवाज के साथ अचानक चमगादढ़ की चीख गूंजी। कमरे के साथ नम्मो का हृदय भी एक अजाने भुतहा डर से भर गया। लगा जैसे कोई काली-कलूटी घनीभूत आकृति ठठाकर हंसते हुए पूछ रही हो “मजा आ रहा है सुहागरात में दुल्हनिया?” एकाएक वह आकृति झपटी और उसके अरमानों की पोटली के रंग-बिरंगे फूल, छीनती-बिखेरती गायब हो गई। उसके हाथ गीले गालों पर फिरे, अंगुलियाँ आँखों तक पहुँचीं। कजरा धुल गया था। कनखियों से देखा तो उसके सपनों के राजकुमार, सात जन्मों के हमसफर की घोड़े की तरह नाक बज रही थी। वह स्तब्ध बैठी रही। नीद तो भाग ही चुकी थी । 

दूसरे दिन सुबह नहाने-धोने, खाने-पीने के बाद देवर-देवरानियों, ननदों की हंसी -ठिठोली का दौर चला। सब मजाक करके खिलखिलाते रहे। नम्मो का चित्त कहीं और था। वह बनावटी हंसी भी हंस नहीं पा रही थी। क्या करे, क्या कदम उठाये ? उसकी समझ के बाहर हो चुका था। तभी ड्राईंगरूम में दूल्हे राजा का प्रवेश हुआ। शराब की खुमारी शायद पूरी तरह उतरी नहीं थी। लाल-लाल आंखें, रूखा-रूखा खलनायकों सा चेहरा। आते ही अड़ियल दुष्ट आवाज में बोला- “माम, मैं आपकी बहू को जरा अपने दोस्त शरद के यहां से घुमा लाऊं……? माम  मुस्कुराती बोली- जा रहा है तो अपने मामा का घर भी दिखाते लाना। जा बहू। “नम्मो निषेध में कुछ बोलना चाहती थी परन्तु एक अनागत भय ने जैसे उसका मुंह जबरदस्ती बंद कर दिया। दरवाजे के पास से खलनायकी आवाज गूंजी ” चलो……जेठानी हंसती हुई बोली” -ऐसे ही ले जाएगा क्या ? उसे तैयार तो हो लेने दे, नम्मो खड़ी होती हुई पल भर ठिठकी। उधर से दूल्हे राजा की रूखी आवाज आई” अरे ठीक तो है  क्या सजेगी।” वह कमरे से बाहर निकला। पीछे-पीछे बलि के बकरे की तरह नम्मो निकली। उसने स्कूटर स्टार्ट किया और आदेश दिया “बैठो……….”वह चुपचाप पीछे बैठ गई। उसके अवचेतन में कहीं रात की धमकी गूंज रही थी “तेरे मुलायम, फूल जैसे जिस्म को गोद. गोदकर,टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा…….।” और चमक रहा था धारदार नुकीला छूरा ! 

गाड़ी झटके के साथ आगे बढ़ी। नम्मो उस पति नामी दुष्ट के बदन को छूना नहीं चाहती थी परन्तु गाड़ी के झटके से खुद को गिरने से बचाने के लिए उसने, उसका कन्धा जोर से पकड़ा। वह गरजा” ठीक से बैठ साली, बैठना भी नहीं आता तुझे…….उसका मन हुआ कि चलते स्कूटर से कूद जाए, लेकिन यह संभव नहीं था। जैसे ही स्कूटर चौराहे पर पहुंचा, वहां पीपल पेड़ के नीचे बने मंच पर दस -बारह आवारा किस्म के युवा प्रौढ़ बावन परियों में रमे, ठहाका लगाते दिखे। दूल्हे ने पहले गाड़ी की गति कम की फिर स्कूटर को उनके एकदम पास ले जाकर चीखा “देखो सालों, तुम लोग कहते थे न कौन देगा तुझे लड़की …..मुझे शिखंडी कहते थे हरामियों……देख लो ये रही मेरी बीवी…….एकाएक उसने गाड़ी की स्पीड बढ़ाई और चिल्लाया “देखो हरामजादों, देखो इस शिखंडी का कमाल……! है ऐसी खूबसूरत बीवी तुम्हारी। “

 नम्मो को कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक उसने साड़ी का पल्लू खींचा और चेहरे को घूंघट के आवरण में ढाप लिया। वह, उसका दूल्हा नामी जीव उसे शहर की गली-कूचों में विद्रूप चेहरे से चीखता घुमाता रहा “देखो सालों, मुझे शिखंडी पुकारते थे न ……..कहते थे, कौन करेगा मुझसे शादी ? देख लो, ये रही मेरी बीवी …….”नम्मो घूंघट के अवगुंठन में भी शर्म से पानी-पानी हो रही थी।  वह क्या करे? उसकी समझ से परे था। करीब पौन घंटे शहर की गली-कूचों और सड़कों में घुमाने के बाद वह पति नामी जीव घर लौटा। गाड़ी से उतरते-उतरते नम्मो की नजर दूल्हे राजा से टकराई। लाल-लाल खूनी आंखें और कसाई चेहरा ! जुगुप्सा से उसने नजरें नीची कीं और चुपचाप अपने कमरे में घुस गई ।

ससुराल के दो-तीन दिन मानसिक रूप से नर्क की घोर यातनाओं में बीते। अश्लील गालियों और कत्ल की धमकियों से नम्मो का गुलाबी चेहरा और देह शाख से टूटे फूल की तरह मुरझाकर रह गये थे। चौथे दिन उसके पिता उसे बिदा कर ले जाने आये। खलनायक दूल्हा तो भेजने को तैयार ही नहीं होता था। परम्पराओं और रीति-रिवाजों का नाम लेकर ले- दे विदाई हो पाई। जाते-जाते कमरे के अंदर अकेले में धमकी मिली “सात फेरे लिये हैं साली, चुपचाप लौट आना। किसी से मेरा भेद बताया और नहीं लौटी तो वहीं तेरे घर आकर गोली मारूंगा समझी। ऐसा वैसा मत समझना हां………।” 

नम्मो, पिता के साथ अपने विवाहित जीवन के अरमानों के बिखरे फूलों वाली चिंदी-चिंदी पोटली लेकर लौट आई । घर पहुंची तो हफ्तों से घनीभूत पीड़ा मां को देखकर ऐसी उमड़ी कि घंटों उसकी छाती से लगकर रोती रही। पिता से साफ़-साफ़ कह दिया कि वह अब कभी ससुराल नहीं लौटेगी। साल भर तलाक का मुकदमा चला। नम्मो को तलाक मिल गया। अरमानों की पूजा वाली फटी थिगड़ेल, चिंदी-चिंदी, सूखे फूलों की पोटली के टुकड़ों को उसने अपने आंसुओं की गंगा-जमुनी नदी में कब विसर्जित किया, उसे खुद ही पता न चला।   

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