हमेशा राजकुमार जी अपने कक्ष में ही होते थे इसलिए चादर आदि बदलते हुए वो कंपकंपाती घबराती रहती थी। रोज सुबह सोचती काश! राजकुमार जी अपना सुबह का अध्ययन अपने कक्ष से बाहर कहीं और किया करें तो उसे पूरे मन से इस कक्ष को देखने का भी मौका मिलेगा। साथ ही वो सहज होकर इस शाही कमरे में जरा मजे से काम कर पायेगी।

करीब चार महीने में वो इस महल में सफाई झाड़ पौंछ के काम में लगायी गयी थी। अब तो वो राजवंश और शाही अन्दाज थे नहीं, मगर इन राजकुमार जी के दादाजी राजा थे ना इसलिए शाही अन्दाज के छींटे अब भी इस महल में छिटकते रहते थे। उन नौकरों की मैनेजर जो थी उसने भी बाकायदा एक सप्ताह की ट्रेनिंग देकर फिर परीक्षा लेकर, उसके बाद ही उसे ये कहा कि अब वो नियमित रूप् से काम के लिए महल में आ सकती थी। वैसे तो महल के बाहर भी उसके लिए काम की कोई कमी थी नहीं पर उसके चौबीस वर्षीय युवा मन में तरंगें उठती थीं कि अरे यार दसवीं तक पढ़ाई की है। फिर घरों में साफ सफाई करके मजे से आठ हजार कमाती है। क्यों ना जरा सी झलक महल की भी देख लें।

उसकी मां तो साफ-सफाई के काम के पक्ष में थी नहीं, चाहती थी कि बेटी और पढ़ कर कोई मजेदार नौकरी करे जैसे काॅल सेंटर या फिर होटल की रिसेप्शनिस्ट वगैरह वगैरह… पर माया को पता था कि मां के सपने पूरे नहीं हो सकते। तीन पीढ़ियों से लोगों के घर का कचरा साफ करने, घर-घर जाने के जो संस्कार उसके खून में थे वो ऐसे कहां मिटते फिर किस्मत से उसे सभी बंगले ऐसे बढ़िया मिले थे कि पिछले चार सालों में न कहीं वेतन की झिकझिक न कभी कोई बुरी नजर वाली दिक्कत। साल से उसे महल को देखने, वहां के तौर- तरीके समझने, बिना वहां के बारे में जाने और मां को बताये बगैर ही उसने महल की मैनेजर को अपना प्रार्थना पत्र सौंप दिया था।

उसे पहले तो थोड़ा डर लगा था कि शाही अन्दाज में सफाई का काम जाने कैसे होता होगा? कैसे काम करते होंगे? बहुत ही ज्यादा नफासत तो नहीं सीखनी पड़ेगी वगैरह वगैरह। खैर ! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, थोड़ी कागजी कार्यवाही एक हफ्ते का सूक्ष्म निरीक्षक उसके बाद सब वैसा ही था जैसा और बंगलों का हाल था। वही रोज की दिनचर्या तकरीबन वैसा ही खान-पान। बस थोड़ा फर्क यह था कि महल में आवत-जावत का सिलसिला बहुत ज्यादा था। इतने लोग आया-जाया करते थे कि कभी- कभी माया को घबराहट होती। राजकुमार जी के पास एक संग्रहायल था। उसी को देखने समझने वाले महल में खूब आया जाया करते थे। दूसरी बात यह थी कि पूजा-पाठ अनुष्ठान वगैरह भी चलते रहते थे जाने कितने पंडित साधु, संत, फकीर पाले हुए थे राजकुमार जी ने।

आज उनके कक्ष में अकेली माया हर चीज को गौर से देख रही थी। राजकुमार जी करीब चालीस पार तो होंगे ही, पर थे अविवाहित। उनका कक्ष कोई सोने के पलंग और चांदी के पायदान वाला भी नहीं था। अच्छा था। रईसी ठाठ, बाट वाला करना था। हफ्ते में एक दिन होती थी उस अजायबरघर की सफाई। बड़ी दुर्लभ मूर्तियां कला संग्रह, शानदार हस्तनिर्मित सामान, बेहतरीन साबुन और इत्र भी थे। एक बड़ा भारी हारमोनियम था। दो मेजें थीं, एकदम सफेद, पता नहीं किस चीज की थीं। फूलदान तो ऐसे थे जैसे माया ने किसी बंगले में क्या फिल्मों तक में नहीं देखे थे।

खैर! संग्रहालय की साफ-सफाई बहुत कायदे और करीने से करने के बाद माया को चाय नाश्ते की आवाज लगा दी गयी। बड़ा अच्छा जलपान मिलता था महल में। रोज अलग अलग, कभी परांठे, कभी समोसे -कचौरी एक बार तो मेवे वाले मोहे पोहे, उफ! माया ने उस दिन शाम तक खाना नहीं खाया था। इतना स्वादिष्ट नाश्ता, माया नाश्ता लेती उससे पहले ही एक आवाज और आयी। उसको आदेश दिया गया कि राजकुमार जी के कक्ष में योगा की कक्षा चल रही होगी, तुम्हें बस वहां जाकर बाहर दरवाजे से कुंडी को बजा कर आना है। राजकुमार जी संकेत समझ जायेंगे और फिर थोड़ी देर में खुद ही बैठक में पधारेंगे। बैठक में कुछ पत्रकार उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल राजकुमार जी पर कुछ समाज सेवकों ने शक किया था कि वो हाथी दांत, शेर के बाल, नाखून आदि का धन्धा अपने संग्रहालय की आड़ में कर रहे थे। खैर, यह खबर तो माया ने भी समाचार पत्रों में पढ़ी थी। सच थी या झूठ भगवान ही जाने।

माया धीमे धीमे सीढ़ियां चढ़ती राजकुमार जी के कक्ष की तरफ चली। आज बहुत थक सी गयी थी। कदम बड़े हौले हौले से उठ रहे थे। भूख भी थी आंतें कुलबुला रहीं थी। सीढ़िया चढ़ते हुए ही उसके कान से कछ आवाजें टकराने लगीं। उसकी उम्र कुछ ऐसी थी कि उसे ये आवाज क्या है? कौन सी है? समझ आ रहा था। फिर भी ऐन कमरे से लगी सीढ़ी से टिक गयी और कुण्डी खटखटाना भूल-भाल कर उन निरन्तर आती आवाजों को साक्षात देखने की जुर्रत कर बैठी। दरवाजे की झिरी से माया ने अपनी पुतलियां घुमा कर धड़कते सीने को थाम कर मात्र दस पन्द्रह सेकण्ड में ही नजरें हटा लीं। ओहो! राजकुमार जी तो आला दर्जे के रंगीन तबीयत निकले।

माया को फिल्में देखकर इतना तो खूब अच्छी तरह से पता था कि उस फिल्म में शाहरूख और सैफ अली खान को इतना खास और पास-पास देखकर घर संभालने वाली क्यों कंपकंपा कर घबरा गयी थी? दरवाजे की कुण्डी हिलाये बगैर माया तेज कदमों से वापस आयी। सहज होने की कोशिश में वो सीधी मुख्य द्वार तक पहुंच गई, यहां तक कि आज वापसी के हस्ताक्षर तक नहीं किये। रसोई से कुंजा मां जोरों की आवाज दे रहीं थीं साथ में मैनेजर की पुकार भी शामिल हो गयी थी। ‘‘अरी माया, नाश्ता ले ले। कहां घबरा के भाग रही है। रूक जा रूक… रूक तो सही….’

पर माया ने चैन की सांस ली तब जब वो महल से बाहर आ गयी। उससे टकराते टकराते दो चार अतिथि महल के भीतर जाते हुए कुछ बुदबुदा भी रहे थे पर आज माया की बला से। हालांकि उसका किसी ने क्या बिगाड़ा पर उसे बहुत खराब लगा। बहुत ही रद्दी लगा। ऐसे बनकर जीना जो आप हो ही नहीं बाहर से ये कला प्रेमी और भीतर से एकदम असामान्य… उफ! अजीब सा मुंह बनाकर माया उस जानी पहचानी गली की तरफ मुड़ गयी। इस गली में तीन बंगले थे। आज की माया को मालकिनों से मिलकर वहां काम शुरू करना था। अगर वो नहीं देंगी तो उनसे विनय करनी थी कि उसे दो-चार काम दिलवा दें। चार दिन का काम श्रमदान हुआ। चलो जाने दो, पर चार दिन का वेतन मांगने अब अब वो महल में नहीं जायेगी। तो उसे खुद पर ही शर्म आ रही थी। केैसे उत्साहित होकर वो जिसकी पलंग की चादरें बदलती, गिलाफ उतारती, लगाती। उफ! अब महल में काम करने का सोचेगी भी नहीं, कभी नहीं।

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