ललक—गृहलक्ष्मी की कहानियां
Lalak

Hindi Kahani: बात उन दिनों की है जब मैं बनारस में पढ़ाई कर रही थी। सच कहूं तो ज्ञान,विज्ञान और शिक्षा का केंद्र बनारस मेरे पसंददीदा शहरों में से एक है। वहां की आबोहवा में ही जैसे पवित्रता घुली हुई है और माहौल में भी एक खुलापन। वहां रहते हुए कभी किसी किस्म का बंधन महसूस ही नहीं हुआ। वॉलीबॉल खिलाड़ी होने के कारण शुरु से ही पहनावे में भी खुलापन ही था लेकिन खेल में होने के कारण व्यक्तित्व में ही एक किस्म का बिंदासपन था तो आधुनिक कपड़े भी जंचते थे। कुछ भी अटपटा नहीं लगता था। जींस पहनने की बात हो या शॉर्ट्स,हमलोग सब कुछ पहनते थे मगर हर बैच में जो नई लड़कियां आतीं उनमें साल का अंत आते- आते गजब का बदलाव देखने में आता। ऐसी ही एक प्यारी सी लड़की थी रेशमा जिसके बदलने ने सबके आंखों की नींद उड़ा दी थी।
रेशमा जिसे देख कर ही महसूस होता था जैसे वह सचमुच रेशम की बनी हो। जाने क्यों उससे एक किस्म का लगाव सा हो गया था। उसे भी कुछ पूछना होता वह मेरे पास ही आती। पढ़ाई- लिखाई की बात हो या फैशन की वह हमेशा ही मुझसे पूछती। मुझे उसके भोलेपन पर हँसी भी आती। बहुत जल्दी वह थैंक यू,सॉरी, टच वुड करना सीख गई थी। बिहार के गया से आई हुई उस लड़की पर सबकी नज़रें टिकी थीं। कारण उसका अलग पहनावा था। चुस्त चूड़ीदार, एड़ी तक का कुर्ता, लंबे-लंबे बाल का टॉप नॉट जुड़ा और कानों में पड़ी बड़ी – बड़ी बालियां उसे सबसे अलग दिखाती लेकिन इनके अलावा और एक खासियत थी जिसे मैंने समझ लिया था। उसके अंदर तेज़ गति से आगे बढ़ने की इच्छा थी। तेज़ तो थी ही क्योंकि बगैर प्रवेश परीक्षा के वहां दाखिला ही नहीं मिलता था।

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मेरे साथ ही अक्सर बाहर निकलती तो उसने वह चाइनीज पार्लर देख लिया था। हॉस्टल की न्यू ईयर पार्टी में उस पर नज़र पड़ते ही मेरा दिमाग ठनक गया। उस रोज़ वह सीता से गीता बन चुकी थी। सबसे पहले उसने अपने रेशमी बालों की आहुति दी। मैंने उसे एक किनारे ले जाकर टोका भी…

“इतने सुंदर बाल कटाने से पहले तुमने पूछा तो होता…”
“बालों का क्या है दीदी,अपनी खेती है फिर बढ़ जाएगी..”

ख़ैर वह जिस तेज़ी में बदलने लगी थी कोई रिवर्स गियर था ही नहीं। उसका पहला साल था और मेरा आख़िरी तो मैं तो वहां से पढ़कर निकल गई थी बाद में जो कुछ सुना उसपर यकीन करने का दिल ही नहीं किया मगर जिसके द्वारा सुना था उसपर विश्वास न करने की कोई वज़ह भी नहीं थी।

जींस तो उसने मेरे सलाह पर ही पहनना शुरू किया था क्योंकि लंबे कपड़ों में सबसे अलग दिखने से ज्यादा नज़र आती थी मगर शायद उसे अलग रहना ही पसंद था तभी तो देखते ही देखते कब वह शॉर्ट ड्रेसेज पहनने लगी,फिर शॉर्ट से मिनी और उसके बाद कब माइक्रो मिनी पर आ गई पता ही नहीं लगा. इतनी तेज़ी से बदलना वह भी नब्बे के दशक में जब घर में तीन – चार बच्चों का परिवार होता था आसान नहीं था। फैशन की होड़ में आगे बढ़ने पर पीछे मुड़कर देखना भी कहां भाता है। घर से आने- जाने वाले बच्चों पर नियंत्रण बना रहता है मगर गांव या छोटे शहर के लोगों को सहसा मिली आज़ादी पचती भी तो नहीं। उसने यूनिवर्सिटी की राजनीति में में हिस्सा लेना शुरु कर दिया. कब पवित्रता की सीमा लांघ गई उसका ठीक- ठीक पता तो उसको भी नहीं होगा।

ख़ैर मैंने जब उसे अपने सामने वाले फ्लैट में देखा तो कुछ- कुछ देखी हुई सी लगी। कहां देखा है वही याद नहीं आ रहा था,तभी निशा का फ़ोन आया।

“अरे ! रेशमा मुंबई में है…किसी दिन भी मिल सकती है…”
“अच्छा तुझे कैसे पता?”

“क्या बोलूं.. जिन लड़कों से मिलती जुलती थी उनके बीच मेरे गांव का एक लड़का विष्णु था जो उसे उसके पुराने समय से चाहता था। सब उसे आउटडेटेड समझते थे वैसे ही वह विष्णु को समझती रही..पढ़ाई तो फर्स्ट ईयर में ही पीछे हो गया..फैशन के चक्कर में पढा नहीं तो फेल हो गई। घर वाले लेने आए तो जाने से इंकार कर दिया। इस बीच नेताओं के चंगुल में आ चुकी थी। हॉस्टल में कमरा आरक्षित रहा। चुनाव के बाद में उन लोगों ने उसे दूध की मक्खी के समान निकाल कर फेंक दिया। उसकी आदतें खराब हो चुकी थीं। परिवार वालों ने भी उसके लक्षण देख कर उससे किनारा कर लिया तब जाकर उसने संजय नामक एक अमीर लड़के को पटाया और उससे शादी कर मुंबई चली गई। विष्णु उसकी सारी हरकतों का चश्मदीद है। उसने ही बताया कि बनारस छोड़ते वक्त उसने तुम्हारा पता लिया है। इसलिए सोचा तुम्हें बता दूं! ” निशा ने उसका सारा कच्चा चिट्ठा खोला। हम उसके बारे में बात कर ही रहे थे कि व्हाट्स एप मेसेज आया. नया नंबर था तो बस इतना ही लिखा ,

“दीदी मैं रेशमा! आपके फ्लैट के सामने रहने आई हूं!” लगता है हमारे मन के तार जुड़े थे। वही तरंगे उसे भी देर रात तक जगाए रखीं थीं।

“कैसी हो रेशमा?”
“बहुत अकेली हूं…आपसे बात हो सकती है…?”
“कल सुबह घर आ जाओ!” फिर जो कुछ उसने बताया वह वाकई उसके अंदर के दुख को बयां करता था,

“आपके जाने के बाद विष्णु से मिली। वह अच्छा लड़का था मगर गरीब था। मेरी जरूरतें संजय पूरी कर सकता था। चुनाव के दौरान उसके पिता फाइनैंसर थे। उसके बहकावे में आकर मैंने प्यार से किनारा कर लिया..मुझे गलत राह पर देख कर घरवालों ने भी मुझे छोड़ दिया मगर मैं सुधरी नहीं। मुझे कम समय में बहुत कुछ चाहिए था।”

“पर संजय के साथ तुमने शादी कर ली न तो वह कहां है और क्या करता है?”

“पता नहीं मुझे.. मैंने विष्णु को धोखा दिया तो बदले में धोखा खाया। मैं क्या करती दीदी..तेज़ गति से आगे बढ़ने के ललक ने मुझे कहीं का न छोड़ा। जब संजय किसी विदेशी लड़की के साथ अमेरिका शिफ्ट हो गया तब समझ में आया कि जरूरत से ज्यादा की इच्छा दर्द और अकेलापन देते है..”

“आगे क्या सोचा है?”
“आगे कोई राह नहीं सूझ रहा..”

“अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मेरी मानो तो माता- पिता के पास लौट जाओ। जिन्होंने जन्म दिया अगर वे नाराज़ हैं तो उन्हें नाराज़ होने का हक़ भी है और हमें उनसे क्षमा मांगने का..हम दुनिया में चाहे जहां भी जाएं मगर उसी वृक्ष का हिस्सा कहलाएंगे..! फिर विष्णु से बात करना। जो प्यार करता है वह माफ़ भी कर सकता है। गलती तभी तक गलती है जब तक पछतावा न हो।पश्चाताप बड़े से बड़ा पाप धोने में समर्थ है। अब भी कोई देर नहीं हुई। अपने जीवन को सही रूप में ढालो! मत भूलो कि जब जागो तब सवेरा!”