गुरु दक्षिणा-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Guru Dakshina

Hindi Story: शरीर दर्द से टूट रहा था। पट्टी बंधी होने के कारण पेट पर खिंचाव सा प्रतीत हो रहा था। अवचेतन अवस्था, अधखुली-धुंधली आंखें खोली तो सामने सरला के साथ एक अपरिचित चेहरा भी मुस्कुरा रहा था। कराहते हुए मैं अपनी पूर्ण चेतना में आने का प्रयास करके, उस अपरिचिता को देखने की कोशिश कर ही रहा था कि अचानक वो मेरे पास आ कर बोली, ‘अब कैसी तबीयत है सर।
‘ठीक हूं। मैं दर्द से कराहते हुए बोला।
‘आप लोग बिलकुल सही समय पर हॉस्पिटल पहुंच गए थे सर, कुछ लम्हें और बीत जाते तो अपेंडिक्स पेट में ही फट जाता और फिर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती। ये तो आपके अच्छे कर्मों का परिणाम है सर कि अंतत: सब कुशल है।
मुझे उठने की कोशिश करते देख, उसके दोनों हाथ मुझे सहारा देते हुए बोले, ‘आप लेटे रहिए सर, अभी बेहोशी के इंजेक्शन का असर खत्म हो रहा है इसलिए आपको थोड़ा दर्द का एहसास हो रहा है। मैं आपको दर्द का इंजेक्शन दे देती हूं, आपको आराम मिल जाएगा कह कर वो इंजेक्शन भरने लगी।
जैसे-जैसे क्षण बीत रहे थे, चेतना वापिस आ रही थी और दर्द बढ़ रहा था। वो इंजेक्शन देते हुए बोली, ‘सर, मैंने आपको इंजेक्शन दे दिया है, बस कुछ ही क्षणों के पश्चात आपको आराम मिल जाएगा। और हां, अपने आप उठने का प्रयास बिलकुल मत कीजिएगा सर, अभी टांके कच्चे हैं। कुछ भी, किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो बेल बजा कर किसी नर्स को बुलवा लीजिएगा। वैसे मैं भी थोड़ी-थोड़ी देर में आती रहूंगी। कह कर वो सरला की तरफ बढ़ी और उसे कुछ हिदायतें देकर चली गई। उसके जाने तक मेरी चेतना पूर्ण रूप से वापिस आ चुकी थी। उस डॉक्टर का चेहरा भी मुझे कुछ परिचित सा लग रहा था। सरला मुझसे मेरी तबियत और डॉक्टर की हिदायतों के विषय में बोले जा रही थी किंतु मैं…मैं उस डॉक्टर को पहचानने में खोया, अपनी स्मरण शक्ति पर जोर डालने लगा।

Also read: अपमानित सिंदूर-गृहलक्ष्मी की कहानियां

अथक प्रयासों के पश्चात भी मैं कुछ भी स्मरण नहीं कर पाया। सबसे ज्यादा मुझे ये बात आश्चर्यचकित कर रही थी कि वो बार-बार मुझे ‘सर कह कर क्यूं सम्बोधित कर रही थी। उसके ‘सर के संबोधन में अत्यंत आदर भाव था।
‘बहुत ही नेक दिल और मददगार डॉक्टर है। हॉस्पिटल पहुंचते ही आपको देखते ही, बिना एक क्षण गंवाये, तुरंत ऑपरेशन थियेटर ले गई। एक अपने पिता की तरह देखभाल कर रही थी। सरला दवाइयां व्यवस्थित करते हुए बोल रही थी। उसकी आवाज से मैं अपनी सोच के भंवर से बाहर आ गया।
‘हूं…वो तो हर डॉक्टर का कर्तव्य होता है।
‘कर्तव्य तो होता है, किंतु आपको देखते ही उसके भीतर अपनत्व का, आदर का एहसास भी था। वो मेरी बात काटते हुए बोली।
‘हां, मुझे भी उसका चेहरा कुछ परिचित-परिचित सा प्रतीत हो रहा था, किंतु…
‘हां, वो भी कह रही थी की आपने उसे स्कूल में पढ़ाया है और उसके प्रिय शिक्षक थे। और हां, एक बात और कह रही थी कि अगर आप उस समय उसके साथ नहीं होते, उसे नहीं संभालते तो वो कभी भी शहर की सबसे बड़ी डॉक्टर ना बन पाती। उसका ये जीवन आपका ऋणी है।
‘ऋणी! अच्छा, कुछ याद भी तो नहीं आ रहा। पता नहीं कितने वर्ष पुरानी बात हो। वैसे नाम क्या है डॉक्टर साहिबा का।
‘हूं…क्या नाम था- हां, आकांक्षा, डॉक्टर आकांक्षा।
‘आकांक्षा, नाम कुछ सुना-सुना, जाना-पहचाना सा लग रहा था। सुन कर मैं कुछ याद सा करने लगा।
‘अच्छा अब आप अपने मानस पटल पर ज्यादा जोर मत डालिए और आराम कीजिए। डॉक्टर साहिबा कह कर गई हैं कि आप जितना आराम करेंगे, टांके उतनी जल्दी ठीक होंगे। कहते-कहते सरला मुझे चादर ओढ़ाने लगी।
अब तो मेरा सारा ध्यान दर्द से हट कर आकांक्षा की ओर हो गया। आकांक्षा, स्मृति पटल पर पुन: जोर डालने पर मुझे सब स्मरण हो गया। अतीत मेरे इर्द-गिर्द घूमने लगा। मैं वर्षों पीछे चला गया जब मैं हाई स्कूल में पढ़ाता था। आकांक्षा मेरी सबसे होनहार विद्यार्थी थी। कक्षा में प्रथम आने वाली, स्कूल की सभी प्रतियोगिताओं में भाग लेकर जीतने वाली थी। स्वभाव से विनम्र, मिलनसार और सेवाभावी थी। उसके चेहरे पर सदा एक मुस्कुराहट तैरती रहती थी। मेरे साथ-साथ वो अपने सभी शिक्षकों की प्रिय थी। हर विषय में अव्वल आती थी। होशियार होने के साथ-साथ महत्वाकांक्षी भी थी वो।
अपने सपनों पर पंख लगा कर उड़ना चाहती थी, डॉक्टर बनना चाहती थी, एक बहुत बड़ी सर्जन। पर पता नहीं क्यों ग्यारहवीं कक्षा तक आते-आते उसका पढ़ाई से मन हटने लगा। दसवीं से ग्यारहवीं कक्षा में आते-आते सभी बच्चों में एक कुदरती परिवर्तन आता है। शारीरिक परिवर्तन के साथ किशोरावस्था में प्रवेश करते ही सभी बच्चों की रूचियां बदलने लगती है, सोच बदलने लगती है। अपरिपक्व होते हुए भी वे अपने आपको परिपक्व समझने लगते हैं और कभी-कभी गलत दिशा की ओर चलने लगते हैं। यही आकांक्षा के साथ हुआ था, उसमें भी परिवर्तन आने लगा था।
उसके नंबर सभी विषयों में निरंतर गिर रहे थे। हमेशा प्रथम आने वाली लड़की, अब सिर्फ पास होने वाले नंबर लाने लगी थी। अब उसकी रुचि पढ़ाई के स्थान पर घूमना-फिरना, मस्ती मारना हो गया था। सबसे मिलनसार होने वाली अब बात-बात पर गुस्सा करने लगी थी, लड़ाई-झगड़ा करने लगी थी। उसने अपने मुस्कुराहट जैसे अनमोल गहने को त्याग कर चेहरे पर उदासी ओढ़ ली थी। सदा चहकती-महकती आकांक्षा, धीरे-धीरे अब गुमनामी के अंधेरों में डूबने लगी। उसका खिलखिलाता चेहरा, गौर वर्ण स्याह हो गया था। आंखों के नीचे काले गड्ढ पड़ने लगे। उसमें ये परिवर्तन अब मुझे खटकने लगा था। मैंने उसे कई बार समझाने का असफल प्रयास किया, उसकी दशा मुझसे अब देखी नहीं जा रही थी। मैं और उसके परिवारवाले सभी उसके लिए चिंतित थे।
इस बात का अंदेशा तो मुझे हो गया था कि वो किसी गलत राह पर चल चुकी है। एक उज्ज्वल भविष्य विनाश की ओर बढ़ रहा था और मैं विवश, मूक उसे उस राह पर बढ़ते हुए देख रहा था। होनी अत्यंत बलवान होती है और नियति प्रबल। अंतत: वही हुआ जिसका मुझे भय था। उसके भीतर आए परिवर्तन का रहस्य का पता चल गया। आकांक्षा, पता नहीं कैसे वो नशे का, ड्रग्स का शिकार हो चुकी थी। पता नहीं ये आज की पीढ़ी को नशा एक चुम्बक की तरह अपनी ओर खींचता है। नशा तो एक तरह से अभिमन्यु के चक्रव्यूह के समान है, जिसमें प्रवेश करना तो सरल है किंतु उसमें से निकलना अत्यंत कठिन। उससे भी ज्यादा दुखद था की नशीले पदार्थ का सरलता या बेसरलता से उपलब्ध होना।
मनुष्य अपने लालच और स्वार्थ के लिए मासूम पीढ़ी को गुमनामी के अंधेरों में ढकेल देता है। उफ्फ, इंसानियत के स्थान पर हैवानियत। एक दिन आकांक्षा स्कूल में नशीले पदार्थों के साथ नशा करते हुए रंगे हाथों पकड़ी गई थी। कैसे एक होनहार, उज्ज्वल प्रतिभा नशे के लिए तड़प रही थी। मेरे साथ-साथ स्कूल के सभी शिक्षक स्तब्ध और निशब्द थे। उसकी करुणामय हालत देख कर मेरी तो सोचने-समझने की शक्ति शून्य हो गई थी, आंखें नम होने लगी थीं। सभी शिक्षक सजा देने के स्थान पर उसे गुमराही के अंधेरों से उजालों में लाना चाहते थे। उसे उजालों में ले जाने की और उसे सुधारने का दायित्व मैंने लिया।
‘आकांक्षा, मैंने जैसे ही उसके सिर पर हाथ रख कर बोला, वो फूट-फूट कर रोने लगी।
‘मुझे बचा लीजिए सर, मैं इस गंदगी से बाहर निकलना चाहती हूं। मेरे माता-पिता की बहुत उम्मीदे हैं मुझसे। मैं अपने सपने पूरा करना चाहती हूं। सर, मुझे डॉक्टर बनना है। सर, प्लीज मुझे बचा लीजिए, मैं भटक गई थी। मैं ऐसे घुट-घुट कर मरना नहीं चाहती। सर, प्लीज सर, प्लीज। हाथ जोड़ कर, जमीन पर घुटने टेक कर विनती करते हुए वो गिड़गिड़ाने लगी।
‘उठो बेटा, सूरज को अगर कुछ देर बादल ढक दे तो इसका मतलब ये तो नहीं कि वो चमकेगा नहीं, अपितु कुछ देर बाद वो बादलों के स्याह को चीर कर, एक नई ऊर्जा के साथ फिर चमकता है।
आकांक्षा तुम वो सूरज हो बेटा, तुम्हें भी इस नशे के स्याह बादल को चीर कर, उससे बाहर आ कर नई ऊर्जा के साथ फिर से चमकना है। एक नया उजाला फैलाना है। इसके लिए बस तुम्हें अपने आत्मविश्वास और हिम्मत का दामन थामे रखना होगा। तुम्हें अपनी ताकत खुद बनना होगा बेटा। नशे की ये लड़ाई तुम्हें अपनी हिम्मत से लड़ कर जीतनी होगी। फिर सफलता निश्चित ही तुम्हारे कदम चूमेगी और फिर मैं तो तुम्हारे साथ हूं बेटा। तुम आगे बढ़ो, तुम जब भी लड़खड़ाओगी, मैं तुम्हें थाम लूंगा। उठो बेटा, उठो।
‘मुझे क्षमा कर दीजिए सर, मैं भटक गई थी। आपका आशीर्वाद मेरे साथ है तो मैं जरूर अपनी ये लड़ाई जीतूंगी। बस आप मेरा साथ मत छोड़िएगा सर। आप मेरा संबल हैं सर।
‘मैं सदा तुम्हारे साथ हूं बेटा। आकांक्षा, तुम्हें अपने साथ-साथ अपने जैसे भटके हुए औरों को भी रास्ता दिखाना है।
‘आई प्रॉमिस सर, ‘आई विल नेवर लेट यू डाउन थैंक यू सर कह कर उसने मेरे चरण छू लिए।
उस दिन के बाद वो अपने पिता और मेरे साथ स्कूल आने-जाने लगी। यहां तक कि स्कूल में वो मेरी निगरानी में रहती। थोड़े-थोड़े दिन में मैं उसकी काउंसलिंग करता। धीरे-धीरे उसने नशे की अपनी आदत पर विजय पा ली थी। उसने इस रास्ते में आई हर कठिनाई को बड़ी हिम्मत के साथ पार कर लिया था। परिणामस्वरूप वो अपने सपने को फिर से जीने लगी थी। उसका चयन देश के सबसे अच्छे मेडिकल कॉलेज में हो गया था। अब मैं उसकी तरफ से निश्चिंत हो चुका था। मेरे भीतर एक सुखद सुकून था कि मैंने अपने शिक्षक होने के कर्तव्य को निष्ठा और ईमानदारी के साथ निभाया था।
‘सर, अब आपकी तबियत कैसी है? आकांक्षा की आवाज से मैं अतीत से वर्तमान में आ गया।
‘अब तो बेटर है बेटा। तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद बेटा, तुमने मेरे प्राणों की रक्षा की।
‘सर, आपने मुझे पहचाना नहीं, मैं आपकी स्टूडेंट आकांक्षा हूं। अगर उस दिन आप मेरे सिर पर हाथ नहीं रखते, मुझे गुमराह होने से नहीं बचाते और मेरी ताकत ना बनते तो मैं जीवन में डॉक्टर नहीं बन पाती। आज मैं जो कुछ भी हूं, जिस मुकाम पर हूं, आपकी वजह से हूं सर। अगर आप जैसे गुरु सभी को मिल जाए, तो कभी कोई बच्चा अपनी राह से नहीं भटकेगा। आपका बहुत-बहुत आभार है सर।
और धन्यवाद कैसा सर, आपके प्राणों की रक्षा करना तो मेरा कर्तव्य है और-और मेरी गुरु दक्षिणा भी। आपने जो मेरे लिए किया उसके समक्ष इस गुरु दक्षिणा का कोई महत्व नहीं, फिर भी मेरी ये गुरु दक्षिणा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें सर। कह कर वो नम आंखों के साथ मेरे चरण छूने लगी। मैंने उसके सिर पर स्नेह पूर्ण आशीर्वाद भरा हाथ रख दिया।
उसकी बातें मेरे हृदय को छू गई। मैं अपने आपको अत्यंत गर्वित महसूस करने लगा। जीवन में ऐसी, इतनी पावन और सच्ची गुरु दक्षिणा मिलेगी, इसकी तो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैंने सामने खड़ी सरला को देखा तो वो मुस्कुरा रही थी। उसकी भी आंखें गर्व के साथ नम थी।