सुबह का गुलाबी जाड़ा। दोपहर में हवा कुछ गर्म हो उठी और दक्षिण से बहने लगी।
यतीन जिस बरामदे में बैठा था‒वहाँ से बग़ीचे के एक कोने में एक ओर एक कटहल और दूसरी और शिरीष वृक्ष के बीच के अवकाश से बाहर का मैदान नज़र आता है। वह सुनसान मैदान फागुन की धूप में धू-धू जल रहा था। उसी के एक किनारे से एक कच्चा रास्ता निकल गया है। उसी रास्ते से लदी-खाली बैलगाड़ियाँ धीमी गति से गाँव की ओर लौट रही थीं, गाड़ीवान सिर पर अँगोछा डाले मन की मौज़ में बेमतलब ही गाना गाते जा रहे थे।
ठीक इसी समय पीछे से एक नारी का सहास्य कंठ स्वर सुनाई पड़ा। क्यों यतीन, पूर्वजन्म की किसी की बात तो नहीं सोच रहे हो?
यतीन बोला, क्यों री पटल, क्या मैं ऐसा ही अभागा हूँ कि कुछ सोचे के लिए पूर्वजन्म को लेकर घसीटना पड़ेगा।
आत्मीय स्वजनों में पटल नाम से परिचित वह लड़की बोल उठी, ज्यादा झूठी तारीफ़ न करो। तुम्हारे इस जन्म की तो सारी ख़बर मैं रखती हूँ महाशय! छीः-छीः! इतनी उमर हो गई फिर भी एक साधारण-सी बहू घर में न ला सके। हम लोगों का वह जो धना माली है , उसके भी एक बीवी है‒उसके साथ दोनों वेला झगड़ते हुए वह सारे मोहल्ले को बता देता है, उसके भी एक अदद बीवी है। और तुम मैदान की ओर ताकते हुए ऐसा भाव दिखा रहे हो, जैसे किसी चंद्रमुखी का ध्यान करने बैठे हो, तुम्हारी यह सब चालाकी क्या मैं नहीं समझती‒यह केवल लोगों को दिखाने का ढोंग भर है। देखो यतीन, जाने-पहचाने ब्राह्मण को जनेऊ की ज़रूरत नहीं पड़ती। हम लोगों का वह धना तो किसी दिन विरह का बहाना करके मैदान की ओर ऐसे तकता नहीं रहता, लंबी जुदाई के दिनों में भी पेड़ तले खुरपी हाथ में ले उसे दिन बिताते देखा है, लेकिन उसकी आँखों में तो कभी वैसी ख़ुमारी नहीं देखी। और एक तुम हो कि जिस महाशय ने कभी सात जनम में औरत का मुँह तक नहीं देखा‒केवल अस्पताल में मुर्दे की चीरफाड़ और पुस्तकें रट-रटाकर उमर गुज़ार दी। तुम ऐसी दुपहरी में इस तरह आकाश की ओर भरी आँखों से क्यों तकते रहते हो। नहीं, यह सब फिजूल की चालाकी मुझे अच्छी नहीं लगती। मेरी देह में आग लग जाती है।
यतीन हाथ जोड़कर बोला, बस, बस रहने दो। मुझे अधिक शर्मिंदा न करो। तुम लोगों का धना ही धन्य है। उसी के आदर्श पर मैं चलने की चेष्टा करूँगा। और अब कुछ न बोलो, कल सवेरे उठते ही जिस लकड़ी बीननेवाली लड़की का मुँह देखूँगा, उसी के गले में माला डाल दूँगा‒तुम्हारा यह धिक्कार मुझसे अब सहा नहीं जाता।
पटल‒तो बात तय रही न?
यतीन‒हाँ रही।
पटल‒तो चलो।
यतीन‒कहाँ चलूँ?
पटल‒चलो तो सही।
यतीन‒नहीं, नहीं, ज़रूर कोई शरारत तुम्हें सूझी है। मैं यहाँ से इस वक़्त हिलने का नहीं।
पटल‒अच्छा, तब यहीं बैठे रहो।
कहकर वह तेज़ी से चल गईं।
अब इनका परिचय किया जाए। यतीन और पटल की उम्र में बस एक ही दिन का अंतर है। पटल यतीन से एक दिन बड़ी है, लेकिन यतीन उसके प्रति किसी प्रकार का सामाजिक सम्मान देने-दिखाने को राज़ी नहीं। दोनों चचेरे भाई-बहन हैं। बचपन से एक साथ खेलते आए हैं। उसे दीदी कहकर नहीं पुकारता, इस बात पर पटल ने यतीन के नाम से बचपन में पिता-चाचा से कई-कई बार शिकायतें कीं, लेकिन किसी भी शासन-विधि द्वारा कोई फल नहीं हुआ‒एकमात्र छोटे भाई के लिए भी उसका पटल नाम छूटा नहीं।
पटल अच्छी-खासी, मोटी-ताज़ी, गोल-मटोल और हँसमुख लड़की है‒विनोद-रस से परिपूर्ण। उसके कौतुक और हास्य का दमन कर सके, समाज में ऐसी कोई शक्ति नहीं। अपनी सास के सामने भी वह किसी दिन गंभीर बनी न रह सकी। पहले-पहल इस बात को लेकर बड़ी हाय-तौबा मची, लेकिन अंत में सभी को हार मानकर कहना पड़ा‒उसके यही ढंग हैं। इसके बाद तो ऐसा हुआ कि पटल की बेधड़क प्रफुल्लता के आघात से गुरुजनों का गांभीर्य भी धूलिसात् हो गया। पटल अपने आसपास कहीं किसी के भी मन पर भार, चेहरे पर उदासी या दुश्चिन्ता नहीं सह पाती‒ढेरों गपशप, हँसी और मज़ाक़ से उसके चारों ओर की आबोहवा जैसे किसी विद्युत शक्ति से बोझिल हुई रहती।
पटल के पति हरकुमार बाबू डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। वह कलकत्ते से बदली होकर बिहार-अंचल आए थे। आबकारी के मामले में उन्हें अकसर ही दौरे पर देहात का चक्कर लगाना होगा, इससे गाँव से माँ और दो-एक स्वजनों को लाने की सोच रहे थे। इसी बीच डॉक्टरी में अभी-अभी उत्तीर्ण, ख्याति और संपत्ति से हीन यतीन बहन के निमंत्रण पर हफ़्ते भर के लिए वहाँ आ पहुँचा।
कलकत्ते की गली से होकर पहली बार पेड़-पौधों के बीच आकर यतीन छायामय निर्जन बरामदे में फागुन की अलस दुपहरिया में अलसाया बैठा था। तभी पूर्वकथित यह उपद्रव आरंभ हुआ। पटल के चले जाने पर फिर कुछ देर के लिए निश्चिन्त हो वह हाथ-पाँव फैलाकर ख़ूब आराम से बैठा‒लकड़ी बीननेवाली लड़की के प्रसंग से बचपन में सुनी काल्पनिक कहानियों के गली-कूचे में उसका मन चक्कर काटने लगा।
इसी समय पटल की हारूमिश्रित कंठकाकली से वह चौंक पड़ा।
पटल ने किसी एक लड़की का हाथ पकड़े वेग से खींचते हुए यतीन के सामने ला खड़ा किया, कहा, ओ बिन्नी!1
लड़की बोली, क्या है, दीदी?
पटल ने कहा, मेरा यह भाई कैसा है, देख तो भला।
लड़की निःसंकोच यतीन को देखने लगी। पटल बोली, क्यों, अच्छा है न देखने में?
लड़की गंभीर भाव से विचार करती सिर हिलाकर बोली, हाँ, अच्छा है।
यतीन लाज से लाल हो चौकी छोड़ते हुए उठकर बोला, ओह पटल, यह क्या बचपना है!
पटल बोली, मैं बचपना कर रही हूँ या तुम सयानापना कर रहे हो। लगता है, तुम्हारी उम्र का कोई अता-पता ही नहीं।
यतीन वहाँ से भागा। पटल उसके पीछे भागते-भागते बोली, ओ यतीन, तुम्हें डर नहीं, कोई डर नहीं। अभी गले में माला डालने का वक़्त नहीं आया। फागुन-चैत में वैसे भी कोई लगन नहीं‒अभी हाथ में समय है।
पटल जिसे बिन्नी कहकर बुलाती है, वह लड़की तो हैरान रह गई। उसकी उम्र सोलह होगी, छरहरी देह, चेहरे की सुंदरता के बारे में अधिक कुछ कहने को नहीं, हाँ, इतना ज़रूर है कि उसके चेहरे पर एक तरह की असामान्यता है, जिसे देखने पर वन की हरिणी का स्मरण हो आता है। पंडिताऊ भाषा में उसे निर्बुद्धि कह सकते हैं, लेकिन वह बुद्धूपना नहीं है, वह बुद्धिवृत्ति का अपरिस्फुरण मात्र है, इसने बिन्नी के चेहरे की सुंदरता को…बहुत न चाहते हुए भी एक विशिष्टता प्रदान की है।
शाम को हरकुमार बाबू कलकत्ते से लौटे तो यतीन को देखकर बोले, अरे! यतीन, तुम आए हो, बड़ा अच्छा हुआ। तुम्हें थोड़ी डॉक्टरी करनी होगी। पश्चिम में रहते हुए, अकाल के दौरान हमें एक लड़की मिली, जिसे हम पाल रहे हैं‒पटल उसे बिन्नी कहकर बुलाती है। अपने माँ-बाप के साथ यह लड़की हमारे बंगले के पास पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी। ख़बर पाकर जब वहाँ गया तो पाया उसके माँ-बाप मर गए हैं, लड़की में प्राणमात्र शेष है। पटल ने बड़ी सेवा-जतन से उसे बचाया है। इसकी जाति के विषय में कोई कुछ जानता नहीं‒उसे लेकर किसी की आपत्ति पर ही पटल कहती है, वह तो द्विज है; एक बार मरकर अबकी हमारे घर में जन्म लिया है, उसकी पुरानी जाति कहाँ धुल-पुँछ गई है। पहले-पहल लड़की ने पटल को माँ कहकर बुलाना शुरू किया था; पटल ने उसे धमकाकर कहा, ख़बरदार, मुझे माँ मत कहना, मुझे दीदी कहना।
पटल का कहना है, इतनी बड़ी लड़की के माँ कहने पर अपने आपको वह बूढ़ी समझने लगेगी। शायद अकाल के लगातार उपवासों या अन्य किसी कारण से रह-रहकर उसके शूल-पीड़ा-सी उठती रही है। असल में बात क्या है, तुम्हें अच्छी तरह परीक्षा कर देखनी होगी। अरे ओ तुलसी! बिन्नी को ज़रा बुला तो ला।
बिन्नी चोटी गूँथते-गूँथते अधसँवरी चोटी पीठ पर लटकाए हरकुमार बाबू के कमरे में आ पहुँची और अपनी हिरणी जैसी दृष्टि दोनों पर डाले, ताकती खड़ी रही।
यतीन को हिचकिचाते देख हरकुमार ने उससे कहा, तुम तो व्यर्थ का संकोच कर रहे हो यतीन। यह देखने-भर को बड़ी दीखती है, पर है कच्चे नारियल-सी, उसके भीतर केवल तरल पानी छलक रहा है‒अभी तक सख़्त गिरी का लेशमात्र नहीं। वह कुछ भी नहीं समझती‒तुम इसे नारी समझने का भ्रम नहीं करना, यह तो वन की हिरणी है।
यतीन अपना डॉक्टरी कर्त्तव्य पूरा करने में लग गया‒बिन्नी ने ज़रा भी संकोच प्रकट नहीं किया। यतीन बोला शरीर यंत्र में तो कोई विकार दिखाई नहीं दिया।
पटल चट से कमरे में घुसी और बोली, हृदय यंत्र में भी कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ है। इसकी परीक्षा करना चाहोगे क्या?
यह कहकर बिन्नी के पास जा उसकी ठोड़ी स्पर्श कर बोली, अरी बिन्नी। मेरा यह भाई तुझे पसंद आया?
बिन्नी सिर हिलाकर बोली, हाँ।
पटल बोली, तू मेरे भाई से ब्याह करेगी?
उसने फिर सिर हिलाकर कहा, हाँ।
पटल और हरकुमार बाबू दोनों हँस पड़े। बिन्नी मज़ाक़ के मर्म को समझ न पाई और उनकी नक़ल उतारती अपने मुख को हँसी से भरकर ताकती रही।
यतीन शर्म से लाल हो गया‒हड़बड़ाकर बोला, ओह पटल! तुम बड़ी ज़्यादती कर रही हो‒यह बड़ा अन्याय है। हरकुमार बाबू, आप भी पटल को बहुत अधिक बढ़ावा देते रहे हैं।
हरकुमार बोले, नहीं तो मैं भी उसके पास से प्रश्रय की प्रत्याशा कैसे कर सकता हूँ। बात यह है यतीन कि बिन्नी को तुम जानते नहीं, इसलिए इतने हैरान हो रहे हो। मालूम होता है, तुम लज्जा करके बिन्नी को भी लज्जा करना सिखाओगे, उसे ज्ञान वृक्ष का फल मत चखाना। हम सब उसके बहाने मज़ाक़ कर रहे हैं‒तुम यदि बीच में ही गांभीर्य दिखाओगे तो यह उसके लिए एक असंगत-सी बात होगी।
पटल बोली, इसीलिए तो यतीन के साथ मेरी कभी पटी नहीं, बचपन से तो बस झगड़ा ही होता रहा है‒वैसे यह बड़ा गंभीर है।
हरकुमार ने कहा, फिर झूठ! तुम्हारे साथ झगड़ने में कोई मज़ा नहीं‒मैं कोशिश भी नहीं करती।
हरकुमार ने कहा, मैं शुरू में ही हार जो मान लेता हूँ।
पटल बोली, बड़ी बहादुरी दिखाते हो। शुरू में हार न मानकर अंत में हार मानते तो मैं कितनी ख़ुश होती।
रात में सोने के कमरे के दरवाज़े-खिड़की खोलकर यतीन बहुत बातें सोचता रहा। जिस लड़की ने अपने माँ-बाप को भूख से मरते देखा है, उसके जीवन पर कितनी भयानक छाया पड़ी होगी। इस निदारुण घटना से वह कितनी सयानी हो उठी है‒उसे लेकर भला मज़ाक़ करना चाहिए! विधाता ने दया कर उसकी बुद्धिवृत्ति पर एक आवरण डाल दिया है‒यदि यह आवरण हट जाए तब अदृष्ट की रुद्र-लीला का कैसा भयंकर चिह्न प्रकट हो पड़ेगा। आज मध्याह्न में पेड़ों के अंतराल से यतीन जब फागुन के आकाश को देख रहा था, दूर से ही, कटहल फूल की सुगंध ने मृदुतर हो उसकी घ्राण शक्ति को आविष्ट कर रखा था, तब उसके मन ने माधुर्य की कुहेलिका में सारे जगत को आच्छन्न देखा था; इस बुद्धिहीन बालिका ने अपनी हिरणी की-सी आँखों द्वारा उस सुनहली कुहेलिका को छिन्न-भिन्न कर डाला है; फागुन के इस कूजन-गुंजन मर्मर के पीछे जो संसार क्षुधा तृष्ण से आतुर दुःख की कठिन देह लेकर विराट मेर्त धारण किए खड़ा है, आज यवनिका के ऊपर उठते ही शिल्प माधुर्य के अंतराल से स्पष्ट दिखाई दिया।
दूसरे दिन शाम के समय बिन्नी के वही दर्द उठा। पटल ने जल्दी से यतीन को बुलवा भेजा। यतीन ने आकर देखा, कष्ट से बिन्नी के हाथ-पाँव ऐंठ रहे थे। देह निस्पंद थी। यतीन ने दवा मँगवाने के लिए आदमी भेज बोतल में गरम पानी लाने का आदेश दिया।
पटल बोली, बड़े भारी डॉक्टर बने हैं, पैरों में ज़रा गरम तेल की मालिश क्यों नहीं कर देते? देख नहीं रहे तलवे बर्फ़ जैसे सर्द हो गए हैं।
यतीन रोगिणी के पैरों के तलवों में ज़ोर से गरम तेल की मालिश करने लगा। चिकित्सा के चलते रात काफ़ी हो गई। हरकुमार कलकत्ते से लौटकर लगातार बिन्नी के बारे में पूछते रहे। यतीन ने समझा, शाम के समय काम से लौटकर पटल की अनुपस्थिति में हरकुमार बाबू का काम चल नहीं रहा है‒बार-बार बिन्नी की ख़बर लेने का अर्थ यही है। यतीन बोला, हरकुमार बाबू परेशान हैं; पटल तुम जाओ।
पटल बोली, दूसरे की दुहाई तो देनी ही होगी। कौन परेशान है, यह मैं ख़ूब समझती हूँ। मेरे जाने से ही अब तुम्हें मुक्ति मिलेगी। ऐसे तो बात-बात में मारे लाज के चेहरा लाल हो जाता है‒तुम्हारे पेट में इतनी बातें छिपी हैं, इसे भला कौन समझेगा?
यतीन ने कहा, अच्छा, दुहाई तुम्हारी। तुम यहीं पड़ी रहो। मुझे बचाओ‒तुम्हारा मुँह बंद रहने से ही मेरी जान बची रहेगी। मैंने ग़लत समझा था‒हरकुमार बाबू शायद शांति से ही हैं, ऐसा सुयोग उन्हें हमेशा नहीं मिलता।
बिन्नी को तनिक आराम मिला। उसके आँखें खोलने पर पटल बोली, तेरी आँखें खुलवाने के लिए तेरे दूल्हे ने आज बड़ी देर तक तेरे पाँव पकड़कर मिन्नतें कीं‒क्या इसलिए आज तूने इतनी देर की? छीः-छीः! अब उठ और उनके चरणों की धूलि ले।
बिन्नी ने कर्तव्य बोध से उसी समय गंभीर श्रद्धाभाव के साथ यतीन के चरणों की धूलि ली। यतीन तेज़ क़दमों से कमरे से बाहर चला गया।
उसके दूसरे ही दिन से यतीन पर भली-भाँति हमला शुरू हुआ। यतीन खाने बैठता तो बिन्नी आ जाती और मुस्कराते चेहरे से पंखा झलते हुए मक्खी उड़ाने लग जाती। यतीन घबड़ाकर बोल उठता, रहने दो, रहने दो, ज़रूरत नहीं। बिन्नी इस निषेध से विस्मित हो मुख फेरकर पीछे के कमरे की ओर एक बार ताकती और उसके बाद फिर से पंखा डुलाने लगती। यतीन अंतराल वर्तिनी को लक्ष्य कर बोल उठता, पटल, तुम यदि इस प्रकार परेशान करोगी तो मैं खाऊँगा नहीं‒यह लो, मैं उठ चला।
यह कहकर उठने का उपक्रम करते ही बिन्नी ने पंखा फेंक दिया। यतीन ने बालिका के नादान भोले चेहरे पर तीव्र वेदना की रेखा देखी; उसी क्षण अनुतप्त हो वह दुबारा बैठ गया। बिन्नी कुछ समझती नहीं, वह शर्माती नहीं, वेदना का अनुभव नहीं करती, यह बात यतीन भी विश्वास करने लगा था। लेकिन उसने क्षणभर में पाया कि सब नियमों के ही व्यतिक्रम हैं और यह व्यतिक्रम कब सहसा घटित हो जाता है, यह पहले से कोई नहीं बता सकता। बिन्नी पंखा फेंककर चली गई।
दूसरे दिन सवेरे यतीन बरामदे में बैठा था, पेड़-पौधों से कोयल की कूक ने भारी धूम मचा रखी है, आम के बौर के गंध से हवा भाराक्रांत है‒इतने में देखा बिन्नी चाय का प्याला हाथ में लिए आने में जैसे कुछ हिचकिचा-सी रही हो। उसकी हरिण जैसी आँखों में एक सकरुण भय समाया था‒उसके चाय लेकर आने पर यतीन खीझेगा तो नहीं, यह जैसे वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। इससे व्यथित हो यतीन ने आगे बढ़कर उसके हाथ से प्याला ले लिया। इस मानव जन्मधारी हरिण शिशु को तुच्छ कारणों से क्या पीड़ा पहुँचाई जा सकती है। जैसे ही यतीन ने प्याला हाथ में लिया, वैसे ही देखा बरामदे के दूसरे छोर से पटल ने सहसा प्रकट हो मौन हँसी से यतीन को घूँसा दिखाया; जिसका मतलब यह था कि आज कैसे पकड़े गए!
उस दिन शाम के समय यतीन कोई एक डॉक्टरी पत्रिका पढ़ रहा था, इतने में फूलों की सुगंध से चकित हो सिर उठाकर देखा, बिन्नी ने मौलश्री के फूलों की माला हाथ में ले कमरे में प्रवेश किया। यतीन ने मन-ही-मन कहा, यह तो बड़ी ज़्यादती हो रही है‒पटल के इस निष्ठुर मनोरंजन को और अधिक बढ़ावा देना उचित नहीं होगा।
उसने बिन्नी से कहा, छीः-छीः बिन्नी, तुम्हारे साथ तुम्हारी दीदी मज़ाक़ कर रही है, तुम इतना भी नही समझ पा रही।
बात ख़त्म होते-न-होते ही बिन्नी ने भीत संकुचित भाव से जाने का उपक्रम किया। तब यतीन ने जल्दी से बुलाकर कहा, बिन्नी, ज़रा देखूँ तो सही तुम्हारी माला। और माला उसके हाथ से ले ली। बिन्नी के मुख पर आनंद की उज्ज्वलता फूट पड़ी, उसी क्षण ओट से एक उच्च हास्य की उच्छ्वास ध्वनि सुनाई पड़ी।
दूसरे दिन, सुबह पटल जब हंगामा मचाने के लिए यतीन के कमरे में पहुँची तो वहाँ जाकर देखा, कमरा सूना पड़ा है। एक काग़ज़ पर केवल इतना ही लिखा था‒भाग चला‒यतीन।
अरी ओ बिन्नी, तेरा दूल्हा तो भाग गया। तू उसे रोक नहीं पाई। यह कहकर पटल ने बिन्नी की चोटी पकड़ हिलायी और घर के काम-काज में लग गई।
इस बात को समझने में बिन्नी को कुछ समय लगा। वह चित्रवत् खड़ी रही और टकटकी लगाए सामने ताकती रही। फिर धीरे-धीरे यतीन के कमरे में आई। देखा, उसका कमरा ख़ाली पड़ा है। उसकी पूर्व संध्या की दी हुई माला मेज़ पर पड़ी है।
वसंत का प्रातःकाल स्निग्ध सुंदर; कृष्णचूड़ा की शाखा के भीतर से छाया के साथ घुली-मिली काँपती हुई धूप बरामदे के ऊपर आ पड़ी है। गिलहरी अपनी पूँछ पीठ पर उठा इधर-उधर दौड़-धूप कर रही है और पक्षीगण एक साथ कई सुरों में गाना गाते हुए भी अपने वक्तव्य विषय को किसी भी तरह समाप्त नहीं कर पा रहे हैं। विराट पृथ्वी के इस कोने में यह थोड़ी-सी घनपल्लव छाया और धूप-रचित जगत्खंड में प्राणों का आनंद फूट पड़ रहा था; उसी के बीच यह बुद्धिहीन बालिका अपने जीवन का, अपने चारों ओर के परिवेश का कोई संगत अर्थ समझ नहीं पा रही थी। सारा-का-सारा ही एक दुर्बोध पहेली है। यह क्या हुआ! और ऐसा क्यों हुआ! उसके बाद यह भोर, यह घर, यह जो कुछ है ऐसे ही एकदम एकबारगी ऐसे सूना हो गया, क्यों। जिसमें समझने की सामर्थ्य कम हो, उसे सहसा एक दिन अपने हृदय की इस अतल वेदना के रहस्य गर्भ में बिना प्रदी पहाथ में थमाए किसने उतार दिया। जगत् के इस सहज-उच्छ्वसित प्राणमय राज्य में, इस पेड़ पौधे-मृग-पक्षी के आत्म-विस्मृत कलरव के बीच कौन उसे फिर खींच कर ला सकेगा।
पटल ने घर-गृहस्थी के काम-काज चुकाकर बिन्नी की ख़बर लेने आकर देखा, वह यतीन द्वारा परित्यक्त कमरे में उसकी खाट के पाये को पकड़कर धरती पर पड़ी है‒सूनी शय्या को जैसे पैर पकड़कर मना रही हो। उसकी छाती में जो एक सुधा पात्र छिपा पड़ा था, उसे जैसे शून्यता के चरणों में व्यर्थ के आश्वासन से औंधाकर उँड़ेले दे रही है‒धरती पर गठरी-सी पड़ी वह खुले बालों लोटते वस्त्रों में नारी मानो एकाग्रता की भाषा में कह रही है, लो, लो,मुझे लो। ओ जी, मुझे लो।
पटल हैरानी में भरकर बोली, यह क्या हो रहा है, बिन्नी?
बिन्नी उठी नहीं; वह जैसी पड़ी थी, वैसी ही पड़ी रही। पटल के पास आकर उसे स्पर्श करते ही वह उच्छ्वसित हो फफक-फफककर रोने लगी।
तब पटल चकित हो बोल उठी, अरी मुँहजली, मरी, तूने तो सर्वनाश कर दिया।
पटल ने हरकुमार को बिन्नी की दशा के बारे में बताते हुए कहा, यह क्या मुसीबत गले पड़ी। आख़िर तुम क्या कर रहे थे, तुमने मुझे क्यों नहीं मना किया।
यह कहते हुए वह दौड़ी चली गई और ज़मीन पर पड़ी बालिका के गले से लिपट बोली, मेरी रानी बहन, तुझे जो कुछ कहना है, मुझसे खोलकर कह।
हाय, बिन्नी के पास ऐसी कौन-सी भाषा है, जो अपने हृदय के अव्यक्त रहस्य को वह शब्दों से कह सके। वह एक अनिर्वचनीय वेदना को अपने वक्षस्थल में दबाए पड़ी है‒वह कैसी वेदना है, जगत् में ऐसी अनुभूति किसी अन्य को होती है या नहीं, उसे लोग क्या कहते हैं, बिन्नी यह सब कुछ भी नहीं जानती। वह केवल रोकर बता सकती है, मन की बात बताने के लिए उसके पास दूसरा उपाय नहीं।
पटल बोली, बिन्नी, तेरी दीदी बड़ी बुरी है, लेकिन तू उसकी बात का इतना विश्वास कर लेगी, यह उसने कभी सोचा भी नहीं था। उसकी बात का तो कभी कोई विश्वास नहीं करता, फिर तूने ऐसी ग़लती क्यों की, बिन्नी, एक बार मुँह उठाकर अपनी दीदी की ओर तो देख। उसे तू माफ़ कर दे।
लेकिन बिन्नी का मन तब विमुख हो चुका था, वह किसी प्रकार भी पटल के चेहरे की ओर ताक नहीं सकी; उसने और भी ज़ोर से हाथों में सिर को छिपा लिया। वह सारी बातों को अच्छी तरह समझ न पाने पर भी एक प्रकार की मूढ़ता से पटल पर क्रोध किए हुए थी। पटल तब धीरे-धीरे बाहुपाश खोल चुपचाप उठी और चली गई‒फिर खिड़की के पास पत्थर की मूर्ति के समान स्तब्ध भाव से खड़ी फागुन के धूप चिक्कण सुपारी वृक्ष की पल्लव-श्रेणी की ओर ताकती रही‒उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
दूसरे दिन बिन्नी दिखाई नहीं पड़ी। पटल बड़े प्यार से उसे अच्छे-अच्छे गहनों और कपड़ों से सजाती थी। स्वयं अस्त-व्यस्त रहती, अपनी साज-सज्जा के मामले में कोई जतन नहीं लेती, लेकिन अपनी साज-सज्जा के सारे शौक़ को वह बिन्नी के बहाने ही पूरा कर लेती। बहुत दिनों के संचित वसन-भूषण के ढेर बिन्नी के कमरे के फ़र्श पर पड़े हैं। अपने हाथ की बाला-चूड़ी, नाक की लौंग तक वह खोलकर फेंक गई है। अपनी पटल दीदी के इतने दिनों के सारे प्यार-दुलार को उसने जैसे शरीर पर से मिटा डालने की कोशिश की है।
हरकुमार बाबू ने उसके बारे में पता लगाने के लिए पुलिस को ख़बर दी। उस समय प्लेग-दामन की विभीषिका में इतने लोग इतनी दिशाओं में भाग रहे थे कि उन भागनेवालों के दल से किसी विशेष व्यक्ति को खोज पाना पुलिस के लिए कठिन था। हरकुमार बाबू ने दो-चार बार ग़लत व्यक्ति की खोज में बहुत कष्ट पाया था और लज्जित हो बिन्नी के मिलने की आशा भी छोड़ चुके थे। उन्होंने अज्ञात की क्रोड़ से जिस बिन्नी को पाया था‒अज्ञात की क्रोड़ में ही वह फिर छिप गई।
यतीन ने विशेष प्रयत्न से उस बार प्लेग-अस्पताल में डॉक्टर का पद प्राप्त किया था। एक दिन दोपहर में घर से भोजन के बाद अस्पताल लौटकर उसने सुना, अस्पताल में महिला वार्ड में एक नई रोगिणी भर्ती हुई है। पुलिस उसे रास्ते पर से उठा लाई है।
यतीन उसे देखने गया। लड़की का चेहरा अधिकांश चादर से ढँका था। सबसे पहले यतीन ने उसका हाथ उठाकर नाड़ी देखी। नाड़ी में ज्वर अधिक नहीं था, किन्तु दुर्बलता बहुत ज़्यादा थी। परीक्षा के लिए जब चेहरे से चादर हटाकर देखा तो पाया, वह बिन्नी थी।
इस बीच पटल के पास से यतीन ने बिन्नी का सारा ब्योरा जान लिया था। अव्यक्त हृदय-भाव द्वारा छायाच्छन्न उसके दो हरिण नयनों ने काम-काज की घड़ी में यतीन की ध्यान-दृष्टि पर लगातार अश्रुहीन कातरता विकीर्ण की थी। आज वही रोग से मुँदी आँखों के सुदीर्घ पल्लवों ने बिन्नी के शीर्ण कपोल पर कालिमा की रेखा अंकित कर दी है; देखते ही यतीन की छाती को सहसा जैसे किसी ने कसकर धर दबाया हो। इस लड़की को विधाता ने इतने जतन से फूल के समान सुकुमार गढ़कर अकाल से महामारी के बीच क्यों बहा दिया? आज यह जो अत्यंत कोमल प्राण पीड़ित हो बिस्तर पर पड़ी है, इसने पिछले कई दिनों में विपद के इतने आघात, वेदना का इतना भार, सहा कैसे, कहाँ समेट पाई इन्हें? यतीन भी इसके जीवन के बीच एक और तीसरे संकट की तरह कहाँ से आकर फँस गया। रुँधी हुई गहरी साँस यतीन के वक्ष द्वार पर आघात करने लगी‒किन्तु उस आघात की ताड़ना से उसके हृदय के तार में एक सुख की वंशी बज उठी। वह जो प्रेम जगत् में दुर्लभ है, यतीन के बिना माँगे ही, फागुन की एक भरी दोपहरी में एक पूर्ण विकसित माधवी मंजरी के समान अकस्मात् उसके पैरों के पास स्वयं ही खिसककर आ पड़ा था। वह प्रेम इस प्रकार मृत्यु-द्वार पर आकर मूर्च्छित हो पड़ेगा, पृथ्वी पर भला कौन व्यक्ति उस देवभोग्य नैवेद्य प्राप्ति का अधिकारी है?
यतीन बिन्नी की बग़ल में बैठकर उसे थोड़ा-थोड़ा गरम दूध पिलाने लगा। दूध पीते-पीते उसने बहुत देर बाद गहरी साँस भरी और आँखें खोली। यतीन के मुँह की ओर ताकते हुए वह उसे सुदूर स्वप्न की तरह याद करने की कोशिश करने लगी। यतीन ने जब उसके माथे पर हाथ रखा और थोड़ा हिलाकर कहा, बिन्नी। तब उसकी अचेतनता की अंतिम आच्छन्नता अचानक दूर हो गई‒उसने यतीन को पहचाना और तभी उसकी आँखों पर वाष्प कोमल एक और मोह का आवरण पड़ा। प्रथम मेघ के समागम से सुगंभीर आषाढ़ के आकाश के समान बिन्नी की काली आँखों पर एक जैसे सुदूरव्यापी सजल स्निग्धता घनी हो आई।
यतीन सकरुण जतन के साथ बोला, बाक़ी बचे दूध को भी ख़त्म करो।
बिन्नी थोड़ा उठ बैठी और प्याले पर से यतीन के चेहरे की ओर अपलक देखते हुए उस बाक़ी दूध को भी धीरे-धीरे पी गई।
अस्पताल में डॉक्टर के एक ही रोगी के पास देर तक बैठे रहने से काम नहीं चला; और यह देखने में भी अच्छा नहीं लगता। अन्य स्थानों के कर्तव्य को पूरा करने के लिए यतीन जब उठा, तब भय और नैराश्य से बिन्नी की आँखें व्याकुल हो उठीं। यतीन ने उसका हाथ पकड़कर आश्वासन भरे शब्दों में कहा, मैं फिर जल्द ही आऊँगा, बिन्नी। तुम्हें कोई भय नहीं।
यतीन ने अधिकारियों को बताया कि इस नई लाई गई रोगिणी को प्लेग नहीं हुआ है, वह भूख से कमज़ोर हो गई है। यहाँ प्लेग के दूसरे रोगियों के साथ रहना उसके लिए ख़तरनाक हो सकता है।
बड़ी कोशिशों से यतीन ने बिन्नी को अन्यत्र ले जाने की अनुमति प्राप्त की और उसे अपने घर ही ले आया। पटल को सारी बातें बताते हुए पत्र भी लिख दिया।
उस दिन शाम के समय रोगी और चिकित्सक के अलावा कमरे में दूसरा कोई नहीं था। सिरहाने रंगीन काग़ज़ के आवरण में घिरी एक मिट्टी के तेल की बाती छायाच्छन्न मृदु प्रकाश विकीर्ण कर रही थी, ब्रैकेट के ऊपर एक घड़ी निस्तब्ध कमरे में टिक्-टिक् करती पेण्डुलम हिला रही थी।
यतीन ने बिन्नी के माथे पर हाथ रखकर पूछा, अब तुम्हारी तबियत कैसी है, बिन्नी?
बिन्नी ने उसका कोई उत्तर न दे, यतीन के हाथ को माथे पर ही दबा रखा।
यतीन ने फिर पूछा, तबियत अच्छी लग रही है?
बिन्नी ने आँखों को तनिक बंद कर कहा, हाँ।
यतीन न पूछा, तुम्हारे गले में यह क्या है, बिन्नी?
बिन्नी ने जल्दी से कपड़ा खींचकर उसे ढँकने की चेष्टा की। यतीन ने देखा, वह एक सूखी मौलश्री की माला थी। उसे यह भी स्मरण हो आया कि वह माला कौन-सी है। यतीन घड़ी के टिक्टिक् शब्द के बीच चुपचाप बैठा हुआ कुछ सोचने लगा। बिन्नी की यह पहली-पहली बार छिपाने की कोशिश, अपने हृदय के भाव को गोपन करने का उसका यह प्रथम प्रयास। बिन्नी हरिण शिशु थी, वह कब हृदय-भारातुर युवती नारी हो उठी। किस धूप के प्रकाश, किस धूप के उत्ताप से उसकी बुद्धि का ऊपर का सारा कुहरा छँट गया और उसकी लज्जा, उसकी शंका, उसकी वेदना ऐसी अकस्मात् प्रकट हो पड़ी।
रात के दो-ढाई बजे, यतीन चौकी पर बैठा-बैठा ही सो गया था। अचानक दरवाज़ा खुलने की आवाज़ से वह चौंक उठा। उसने देखा, पटल और हरकुमार बाबू एक बड़ा-सा बैग हाथ में लिए हुए कमरे में प्रवेश किया।
हरकुमार बोले, तुम्हारी चिट्ठी पाकर कल सुबह आने की सोचकर बिस्तर पर लेटा। आधी रात में पटल बोली, सुनो, कल सवेरे जाने पर बिन्नी को देख नहीं पाऊँगी, मुझे अभी जाना होगा। मैं पटल को किसी भी तरह समझा-बुझाकर रोक न पाया, उसी समय किराए की गाड़ी लेकर चल पड़ा।
पटल हरकुमार से बोली, चलो, तुम यतीन के बिस्तर पर सो जाओ।
हरकुमार थोड़ी-सी आपत्ति जताते हुए यतीन के कमरे में जाकर लेट गए; उन्हें नींद आने में भी देरी नहीं हुई।
पटल लौट आई और यतीन को कमरे के एक कोने में ले जाकर पूछा, कोई उम्मीद है?
यतीन बिन्नी के पास आया। उसकी नाड़ी देखी और सिर हिलाकर इशारे से बताया, कोई आशा नहीं है।
पटल बिन्नी के सामने अपने को प्रकट नहीं करना चाहती थी। तभी यतीन को आड़ में ले जाकर बोली, यतीन, सच कहना, क्या तुम बिन्नी को नहीं चाहते।
यतीन ने पटल को कोई उत्तर नहीं दिया और बिन्नी के बिस्तर के पास आ बैठा।
उसने उसका हाथ दबाकर हिलाते हुए कहा, बिन्नी, बिन्नी।
बिन्नी ने आँखें खोलीं और चेहरे पर एक शांत मधुर मुस्कान का आभास मात्र लाकर बोली, क्या बात है दादा बाबू?
यतीन बोला, बिन्नी, तुम अपनी यह माला मेरे गले में पहना दो।
बिन्नी अपलक अबूझ आँखों से यतीन के चेहरे की ओर ताकती रही।
यतीन बोला, अपनी यह माला मुझे नहीं दोगी?
यतीन के इस दुलार का प्रश्रय पा बिन्नी के मन में पूर्वकृत अनादर का ज़रा‒सा मान जग उठा। वह बोली, उससे क्या होगा, दादा बाबू?
यतीन दोनों हाथों में उसके हाथ को लेकर बोला, मैं तुम्हें प्यार करता हँू, बिन्नी।
यह सुनकर क्षण भर के लिए बिन्नी स्तब्ध हो रही; उसके बाद उसकी दोनों आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। यतीन बिस्तर के पास ही घुटने मोड़कर बैठ गया और बिन्नी के हाथ के पास सिर झुकाकर रखा। बिन्नी ने गले से माला उतारकर यतीन के गले में पहना दी।
तभी पटल ने उसके पास आकर पुकारा, बिन्नी।
बिन्नी ने अपने शीर्ण मुख को उज्ज्वल कर कहा, क्या, दीदी?
पटल उसके पास आकर उसका हाथ पकड़कर बोली, अब तो तू मुझसे नाराज़ नहीं, बहन।
बिन्नी स्निग्ध कोमल दृष्टि से बोली, नहीं, दीदी।
पटल बोली, यतीन, तुम थोड़ी देर के लिए उस कमरे में जाओ।
यतीन के पासवाले कमरे में जाने पर पटल ने बैग खोलकर बिन्नी के सारे गहने-कपड़े उसमें से बाहर निकाले। रोगिणी को अधिक न हिला-डुला एक लाल बनारसी साड़ी बड़ी सावधानी से उसके मलिन वस्त्र पर लपेट दी। फिर एक-एक कर चूड़ी पहना दोनों हाथों में दो बालाएँ पहना दीं, इसके बाद बुलाया, यतीन।
यतीन के आते ही उसे बिस्तर पर बिठाकर पटल ने उसके हाथ में बिन्नी का एक सोने का हार पकड़ाया। यतीन ने उस हार को धीरे-धीरे बिन्नी का सिर ऊपर उठाकर पहना दिया।
प्रभात में भोर का प्रकाश जब बिन्नी के मुख पर आ पड़ा, तब वह प्रकाश वह देख न सकी। उसकी अम्लान मुख-कांति देखकर लगा, वह मरी नहीं है‒जैसे एक अतल स्पर्श, सुख-स्वप्न में निमग्न हो गई है।
जब मृत देह ले जाने का समय हुआ, तब पटल बिन्नी के सीने पर गिर रोती-रोती बोली, बहन, तेरा भाग्य अच्छा है। जीवन से तेरा मरण सुखकर है।
यतीन बिन्नी की उस शांत स्निग्ध मृत्यु-छवि की ओर ताकते हुए सोचने लगा, जिनका धन था, उन्होंने ही रख लिया; और साथ ही मुझे भी वंचित नहीं किया।
- मूल में लड़की का नाम कुड़ानि‒कुड़ान (बाङ्ला) बटोरना है, रास्ते परजो लकड़ी-गोबर आदि बटोरती फिरती है वह है कुड़ानि। हिन्दी में इसका समानार्थ किया गया बिन्नी अर्थात् लकड़ी आदि बीननेवाली।
