Posted inरवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ, हिंदी कहानियाँ

क्षुधित पाषाण – रवीन्द्रनाथ टैगोर

मैं और मेरे संबंधी पूजा की छुट्टी में देश-भ्रमण समाप्त करके कलकत्ता लौट रहे थे, तभी रेलगाड़ी में उन बाबू से भेंट हुई। उनकी वेशभूषा देखकर शुरू में उन्हें पश्चिमी प्रांत का मुसलमान समझने का भ्रम हुआ था। उनकी बातचीत सुनकर और भी चक्कर में पड़ गया। वे दुनिया-भर के विषयों पर इस प्रकार बातें […]

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गुप्त धन – रवीन्द्रनाथ टैगोर

अमावस्या की आधी रात थी। मृत्युंजय तांत्रिक मतानुसार अपनी प्राचीन देवी जयकाली की पूजा करने बैठा। पूजा समाप्त करके जब वह उठा तो निकटस्थ आम के बग़ीचे से प्रातःकाल का पहला कौआ बोला। मृत्युंजय ने पीछे घूमकर देखा, मंदिर का द्वार बंद था। तब उसने देवी के चरणों में एक बार माथा टेककर उनका आसन […]

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वैष्णवी – रवीन्द्रनाथ टैगोर

मैं लिखता रहता हूँ, लेकिन लोकरंजन मेरी क़लम का धर्म नहीं, इसलिए लोग मुझे हमेशा जिस रंग से रंजित करते रहे हैं, उसमें स्याही का हिस्सा ही अधिक होता है। मेरे बारे में बहुत बातें ही सुननी पड़तीं; भाग्यक्रम से वे हितकथा नहीं होती और मनोहारी तो बिलकुल नहीं। शरीर पर जहाँ चोटे पड़ती रहती […]

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हैमंती – रवीन्द्रनाथ टैगोर

कन्या के पिता सब्र कर सकते थे, पर वर के पिता ने सब्र करना न चाहा। उन्होंने देखा, लड़की के विवाह की उम्र पार हो चुकी है और कुछ दिन बीतने पर तो उसे शिष्ट या अशिष्ट किसी भी उपाय से दबा रखने का अवसर भी पार हो जाएगा। लड़की की उम्र अवाध रूप से […]

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माल्यदान – रवीन्द्रनाथ टैगोर

सुबह का गुलाबी जाड़ा। दोपहर में हवा कुछ गर्म हो उठी और दक्षिण से बहने लगी। यतीन जिस बरामदे में बैठा था‒वहाँ से बग़ीचे के एक कोने में एक ओर एक कटहल और दूसरी और शिरीष वृक्ष के बीच के अवकाश से बाहर का मैदान नज़र आता है। वह सुनसान मैदान फागुन की धूप में […]

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पड़ोसिन – रवीन्द्रनाथ टैगोर

मेरी पड़ोसिन बाल-विधवा है‒शरद की ओस से धुली वृतच्युत शेफाली के समान। वह किसी सुहागकक्ष की फूल शय्या1 के लिए नहीं, केवल देवपूजा के निमित्त ही उत्सर्ग की हुई है। मैं मन-ही-मन उसकी पूजा करता। उसके प्रति मेरे मन का जैसा भाव था, उसे पूजा के अतिरिक्त किसी अन्य सहज शब्द द्वारा प्रकट करना नहीं […]

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तिनके का संकट – रवीन्द्रनाथ टैगोर

ज़मींदार के नायब गिरीश बसु के अंतःपुर में प्यारी नाम की एक दासी काम में लगी। उसकी उम्र भले ही कम थी, पर स्वभाव अच्छा था। दूर पराये गाँव से आकर कुछ दिन काम करने के बाद ही, एक दिन वह वृद्ध नायब की प्रेम-दृष्टि से आत्मरक्षा के लिए मालकिन के पास रोती हुई हाज़िर […]

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दीदी – रवीन्द्रनाथ टैगोर

किसी ग्रामवासिनी अभागिन के अन्यायी अत्याचारी पति के सब दुष्कृत्यों का सविस्तार वर्णन करते हुए पड़ोसिन तारा ने बड़े संक्षेप में अपनी राय प्रकट करते कहा‒ऐसे पति के मुँह में आग! सुनकर जयगोपाल बाबू की पत्नी शशि ने बड़े कष्ट का अनुभव किया‒पति जाति के मुख में सिगार की आग छोड़ अन्य किसी दूसरी तरह […]

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बला – रवीन्द्रनाथ टैगोर

संध्या के समय आँधी क्रमशः प्रबल होने लगी। बूंदों का झोंका, बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कौंध से आकाश में जैसे देवासुर-संग्राम छिड़ गया हो। काले-काले मेघखंडों ने महाप्रलय की पताका के समान दिशा-दिशा में उड़ना आरंभ किया, गंगा के इस पार उस पार विद्रोही लहरों ने कलकल-ध्वनि के साथ नृत्य शुरू कर दिया […]

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मध्यवर्तिनी – रवीन्द्रनाथ टैगोर

निवारण की गृहस्थी बिलकुल साधारण ढंग की थी, उसमें काव्यरस नाममात्र को भी नहीं था। जीवन में इस रस की कोई आवश्यकता है, ऐसी बात उसके मन में कभी आई भी नहीं। जैसे परिचित पुरानी चप्पल-जोड़ी में दोनों पैर आराम से निश्चित भाव से प्रवेश करते हैं, उसी तरह इस पुरानी दुनिया में निवारण अपने […]

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