Haimanti Ravindranath Tagore story

कन्या के पिता सब्र कर सकते थे, पर वर के पिता ने सब्र करना न चाहा। उन्होंने देखा, लड़की के विवाह की उम्र पार हो चुकी है और कुछ दिन बीतने पर तो उसे शिष्ट या अशिष्ट किसी भी उपाय से दबा रखने का अवसर भी पार हो जाएगा। लड़की की उम्र अवाध रूप से बढ़ अवश्य गई है, किन्तु तुलना में दहेज के रुपयों का भारीपन अभी उससे कुछ ऊपर है, इसलिए जल्दी है।

मैं वर था। इसलिए विवाह के बारे में मेरे मत की जानकारी अनावश्यक थी। मैंने अपना काम किया है, एफ. ए. पास करके छात्रवृत्ति पाई है। इसलिए प्रजापति के दोनों पक्ष‒कन्या पक्ष और वर पक्ष, अत्यधिक विचलित हो उठे।

हमारे देश में जिस व्यक्ति ने एक बार विवाह कर लिया है, विवाह के बारे में उसके मन में फिर कोई उद्वेग नहीं रहता। नरमांस का स्वाद चख लेने पर मनुष्य के प्रति बाघ की जो मनोदशा होती है, स्त्री के संबंध में उसका भाव भी कुछ उसी प्रकार का हो जाता है। स्त्री का अभाव प्रतीत होते ही उसे दूर कर लेने में उन्हें कोई द्विविधा नहीं होती, चाहे उनकी अवस्था जैसी भी हो और आयु कितनी भी क्यों न हो। जितनी द्विविधा और दुश्चिंता सब हमारे नए लड़कों में ही दीखती है। विवाह के पुनः-पुनः प्रस्ताव से उनके पितापक्ष के सफ़ेद बाल ख़िजाब के आशीर्वाद से पुनः-पुनः काले हो उठते हैं और प्रथम मध्यस्थता की आँच से ही लड़कों के काले बाल चिन्ता या फ़िक्र से एक रात ही में सफ़ेद होने को हो आते हैं।

सच कह रहा हूँ, मेरे मन में ऐसा कोई विषम उद्वेग पैदा नहीं हुआ, बल्कि विवाह की बातचीत से मेरे मन में जैसे वासंती बयार बहने लगी। कौतूहली कल्पना के किसलयों में मानो कोई कानाफूसी होने लगी, जिसे एडमंड बर्क के ‘फ्रेंच रिव्योल्यूशन’ के नोट की पाँच-सात कॉपियाँ कंठस्थ करनी होंगी, उसके लिए ऐसा भाव अनुचित है। मेरे इस लेख की यदि टेक्स्ट बुक समिति द्वारा अनुमोदित होने की ज़रा भी आशंका रहती, तो सावधान हो जाता।

लेकिन मैं यह क्या कर रहा हूँ! यह क्या कोई कहानी है, जिसे लेकर उपन्यास लिखने बैठा हूँ। ऐसे सुर में मेरा लिखना शुरू होगा, यह क्या मैं जानता था। मन में था, कई वर्षों की वेदना से जो मेघ काले होकर जमा हुए हैं, उन्हें वैशाखी संध्या की तूफ़ानी वर्षा के समान प्रबल वर्षण से निःशेष कर दूँगा। लेकिन मैं बाङ्ला में शिशुपाठ्य-पुस्तक तक नहीं लिख सका, क्योंकि संस्कृत मुग्ध बोध व्याकरण मैंने नहीं पढ़ा‒और न काव्य-रचना ही कर सका; वजह यह थी कि मातृभाषा मेरे जीवन में ऐसी पुष्पित न हो सकी, जिससे अपने अंतर को बाहर प्रकट कर सकता। इसीलिए देख रहा हूँ, मेरे भीतर का श्मशानचारी संन्यासी अट्टहास द्वारा अपना ही परिहास करने बैठा है। बिना किए क्या करे! उसमें आँसू तलक सूख गए हैं। जेठ की प्रखर धूप ही तो जेठ का अश्रुशून्य रोदन है।

मेरे साथ जिसका विवाह हुआ था, उसका असली नाम नहीं कहूँगा। कारण, विश्व के इतिहास में उसके नाम को लेकर पुरातत्त्ववेत्ताओं में विवाद की कोई आशंका नहीं है। जिस ताम्रफलक पर उसका नाम खुदा है, वह मेरा हृदयपट ही है। किसी समय भी वह पट और वह नाम विलुप्त होगा, ऐसी बात में सोच भी नहीं सकता। किन्तु जिस अमृत लोक में वह अक्षय हो रहा, वहाँ इतिहासकारों का आना-जाना नहीं होता।

मेरे इस लेख में उसका जैसा ही हो, एक नाम तो चाहिए ही। अच्छा तो उसका नाम दे डाला ‘शिशिर’। शिशिर में भोर वेला की बात प्रातः‒वेला में आकर समाप्त हो जाती है।

शिशिर मेरे से केवल दो वर्ष छोटी थी। लेकिन मेरे पिता गौरीदान के पक्ष में न हो ऐसी बात नहीं थी। उसके पिता उग्रभाव से समाज विद्रोही थे, देश में प्रचलित धर्म-कर्म किसी में भी उनकी आस्था नहीं थी; उन्होंने जमकर अंग्रेज़ी पढ़ी थी। मेरे पिता उग्रभाव से समय के अनुगामी थे; मानने में बाधा हो, ऐसी चीज़ हमारे समाज में, सदर या अंदर में, ड्योढ़ी या पिछवाड़े के रास्ते में खोजे नहीं मिलेगी, क्योंकि इन्होंने भी अंग्रेज़ी जमकर पढ़ी थी। पितामह और पिता दोनों की ही विचारधाराएँ विद्रोह की दो पृथक् मूर्तियाँ थीं, कोई भी सीधी स्वाभाविक नहीं। फिर भी, एक बड़ी उम्रवाली लड़की के साथ पिताजी ने मेरा विवाह कर दिया, उसका कारण यह था कि लड़की बड़ी उम्रवाली थी, इसलिए दहेज की रक़म भी बड़ी थी। शिशिर मेरे ससुरजी की इकलौती बेटी थी। पिताजी का विश्वास था कि कन्या के पिता की सारी संपत्ति भावी जामाता के भविष्य के गड्ढे को भरनेवाली है।

मेरे ससुरजी ने किसी ख़ास विचारधारा की बला नहीं पाली थी। वे पश्चिम की ओर किसी पहाड़ी रियासत के किसी राजा के अधीनस्थ कोई बड़े ओहदे पर थे। शिशिर जब गोद में थी, तभी उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी। कन्या प्रति वर्ष एक-एक वर्ष करके बड़ी होती जा रही थी, यह बात मेरे ससुर की दृष्टि में आई ही नहीं। वहाँ उनके समाज में भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो उनकी आँखों में अँगुली डालकर यह दिखा देता।

यथा समय शिशिर की उम्र सोहल वर्ष हुई; किन्तु वह सोलह स्वभाव का था, समाज का सोलह नहीं। किसी ने उसकी उम्र के विषय में सावधान होने की सलाह नहीं दी, उसने भी अपनी उम्र की ओर मुड़कर नहीं देखा।

मैं तब कॉलेज के तृतीय वर्ष में था‒मेरी उम्र उन्नीस साल की थी और तभी मेरा विवाह हुआ। यह उम्र समाज की दृष्टि या समाज सुधारकों की दृष्टि में उपयुक्त है या नहीं, इसे लेकर दोनों पक्ष लड़ते हुए ख़ून-ख़राबी क्यों न करें, किन्तु मैं कहता हूँ, यह उम्र परीक्षा पास करने के लिए कितनी ही अच्छी क्यों न हो, पर विवाह संबंध के लिए भी कुछ कम अच्छी नहीं है।

विवाह का अरुणोदय एक चित्र के आभास से हुआ। मैं पाठ कंठस्थ कर रहा था। मज़ाक़ का रिश्ता रखनेवाली एक आत्मीया ने मेरी मेज़ पर शिशिर की तस्वीर को रखते हुए कहा, “एकदम जी-तोड़ मेहनत द्वारा अब असली पढ़ाई पढ़ो।”

किसी एक अनाड़ी छाया चित्रकार का खींचा चित्र। माँ तो थी नहीं, इसलिए किसी ने कसकर बाल बाँधकर, जूड़े में ज़री लपेटकर, साहा या मल्लिक कंपनी का बेतुका-भड़कीला जाकेट पहनाकर वरपक्ष की आँखों को लुभाने के लिए जालसाज़ी की कोशिश नहीं की थी। एक बहुत ही सीधा-सादा-सा चेहरा, सीधी-सादी दो आँखें और सीधी-सादी एक साड़ी। लेकिन सारा कुछ मिलाकर यह ऐसी महिमा थी, जिसका मैं बखान नहीं कर सकता। जैसी-तैसी एक चौकी पर बैठी पीछे एक धारीदार दरी लटक रही थी, बग़ल में एक तिहाई पर रखे फूलदान में गुलदस्ता; और ग़लीचे पर साड़ी की तिरछी किनारी के नीचे दो नंगे पैर।

पट के चित्र को मेरे मन की जादुई सोने की सलाई के छूते ही वह मेरे जीवन में जाग उठी। वे दो काली आँखें मेरे समस्त भावों के बीच न जाने कैसे ताकती रहीं। और तिरछी किनारी के नीचे के दो नंगे पैरों ने मेरे हृदय को अपना पद्मासन बना लिया।

पंचांग के पन्ने पलटते हुए; दो-तीन विवाह के लग्न पीछे रह गए, पर ससुरजी को छुट्टी नहीं ही मिली। उधर सामने एक अकाल1 चार-पाँच महीने जोड़कर मेरी कवाँरी उम्र की सीमा को उन्नीसवें वर्ष से निरर्थक बीसवें वर्ष की ओर ठेलने का चक्रांत चला रहा था। ससुर और उनके मुनीम पर गुस्सा आने लगा।

जो हो, अकाल के ठीक पूर्व लग्न में आकर विवाह का दिन ठहरा। उस दिन की शहनाई की हर एक तान का मुझे स्मरण आ रहा है। उस दिन के प्रतिक्षण को मैंने अपनी सारी चेतना द्वारा स्पर्श किया है। मेरी उन्नीस वर्ष की वह उम्र मेरे जीवन में अक्षय हो रही।

विवाह-मंडप में चारों ओर हो रहे शोरगुल के बीच कन्या का कोमल हाथ मेरे हाथ में आ पड़ा। परम आश्चर्य! मेरा मन बार-बार कहने लगा, ‘मैंने पाया, मैंने इसे पाया।’

किसे पाया! यह तो दुर्लभ है, यह तो मानवी है, इसके रहस्य का क्या अंत है।

मेरे ससुर का नाम गौरीशंकर है। जिस हिमालय के वे जैसे मीत हों। उनके गांभीर्य के शिखर प्रांत पर एक स्थिर हँसी उज्ज्वल हो विराज रही थी; और उनके हृदय के भीतर स्नेह का एक सोता था, उसका पता जिन्होंने भी पाया, वे उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे।

कर्मक्षेत्र में लौटने के पूर्व मेरे ससुरजी ने मुझे बुलाकर कहा, “बेटा, मैं अपनी कन्या को सत्रह वर्षों से जानता हूँ और तुम्हें मात्र इन कई दिनों से, फिर भी वह तुम्हारे ही हाथों रही। जो धन सौंप दिया उसका मूल्य जैसे समझ सको, इससे अधिक और क्या आशीर्वाद दे सकता हूँ।”

उनके समधी और समधिन दोनों ने उन्हें बार-बार आश्वासन देते हुए कहा, “समधी जी, आप कोई चिन्ता न करें। आपकी कन्या जैसे पिता को छोड़कर आई है, वैसे ही यहाँ उसे माँ-बाप दोनों ही मिले।”

उसे बाद ससुरजी कन्या से विदा लेते समय मुस्कराए और बोले, “बेटी, मैं चला। तेरा एकमात्र यह पिता, आज से यदि उसका कुछ खो जाए, चोरी चला जाए या नष्ट हो जाए तो मैं उसके लिए उत्तरदायी नहीं।”

कन्या बोली, “क्या ख़ूब कहा। कहीं यदि ज़रा-सा भी नुक़सान हुआ तो तुम्हें ही क्षतिपूर्ति करनी होगी।”

अंत में, नित्य ही जिन विषयों में उनसे गड़बड़ी होती थी, उनके बारे में उसने पिता को बार-बार सावधान किया। खानपान के मामले में मेरे ससुरजी पर्याप्त संयम नहीं रख पाते थे। ऐसे कई कुपथ्य थे, जिन पर उनकी विशेष आसक्ति थी‒पिता को उन सब प्रलोभनों से यथासंभव दूर रखना कन्या का विशेष दायित्व था। इसलिए आज उसने पिता का हाथ पकड़कर उद्वेग के साथ कहा, “बाबूजी, तुम मेरी बात रखना‒रखोगे न?”

पिता ने हँसकर कहा, “मनुष्य प्रण करता है और फिर वचन तोड़कर चैन की साँस लेता है * इसलिए वचन न देना ही सबसे अधिक निरापद है।”

पिता के चले जाने के बाद कमरे का दरवाज़ा बंद हो गया। फिर उसका क्या हुआ, किसी को मालूम नहीं।

पिता और पुत्री की अश्रुहीन विदाई वेला को बग़लवाले कमरे से कौतूहली अंतःपुरवासियों के दल ने देखा और सुना। आश्चर्य है! सूखे प्रदेश में रहकर ये भी शुष्क हो गए हैं। मोह-ममता बिलकुल नहीं।

मेरे ससुरजी के मित्र वनमाली बाबू ने ही हमारे विवाह की मध्यस्थता की थी। वे हमारे परिवार के भी परिचित व्यक्ति हैं। उन्होंने मेरे ससुर से कहा था, “संसार में तुम्हारी तो केवल यही लड़की है। अब इन्हीं के बग़ल में किराए का घर लेकर यहीं ज़िन्दगी बिताओ।”

उन्होंने कहा, “जो दिया, वह सारा निःशेष करके ही दिया। अब मुड़कर देखने से कष्ट ही होगा। अधिकार छोड़कर अधिकार जमाने जाने जैसी विडंबना दूसरी नहीं।”

सबसे अंत में मुझे अकेले में ले जाकर अपराधी की तरह संकोच से बोले, “मेरी लड़की को पुस्तक पढ़ने का बड़ा शौक़ है और लोगों को खिलाना-पिलाना बहुत पसंद है। इसके लिए समधी को परेशान करने की इच्छा नहीं होती। मैं बीच-बीच में तुम्हें रुपए भेज दिया करूँगा। तुम्हारे पिताजी को मालूम होने पर वे नाराज़ तो नहीं होंगे?”

यह प्रश्न सुनकर कुछ आश्चर्य हुआ। गृहस्थी में कहीं से अर्थ समागम होने पर पिताजी अप्रसन्न होंगे, उनका दिमाग़ इतना तो ख़राब कभी नहीं देखा।

मानो मुझे घूस दे रहे हैं, इस प्रकार मेरे हाथ में सौ रुपए का नोट खोंसकर मेरे ससुर तेज़ी से चलते बने‒मेरा प्रणाम तक ग्रहण करने के लिए सब्र नहीं कर पाए। बाद में देखा, पॉकेट से रूमाल निकाला है।

मैं स्तब्ध हो बैठ सोचता रहा। मन-ही-मन समझा, ये लोग दूसरी प्रकृति के मनुष्य हैं।

अपने मित्रों में से बहुतों को विवाह करते देखा है। मंत्र पढ़ने के साथ-ही-साथ पत्नी को एकदम एक ही ग्रास में निगल लेते हैं। पाकयंत्र में पहुँचकर कुछ देर बाद इस पदार्थ के नाना गुणावगुण प्रकट हो सकते हैं और क्षण-क्षण पर आभ्यंतरिक उद्वेग उपस्थित होते रहते हैं, लेकिन रास्ते में कहीं कुछ भी नहीं अटकता। मैंने तो विवाह मंडप में ही समझ लिया था, दान के मंत्र द्वारा पत्नी को जितना पाया जाता है, उससे गृहस्थी भले ही चल जाती हो, लेकिन पंद्रह आने बाक़ी ही रह जाते हैं। मुझे संदेह होता है, अधिकांश लोग पत्नी से विवाह मात्र करते हैं, पाते नहीं; और जान भी नहीं पाते कि पाया नहीं; उनकी पत्नी के पास भी अंत तक ख़बर पहुँचती नहीं। लेकिन, वह तो मेरी साधना का धन थी, मेरी संपत्ति नहीं, वह मेरी संपदा थी।

शिशिर‒नहीं, इस नाम का प्रयोग अब नहीं चलेगा। एक तो यह उसका नाम नहीं, दूसरे यह उसका परिचय भी नहीं। वह तो सूर्य के समान ध्रुव थी; वह क्षणजीवनी उषा की विदाई की अश्रबिन्दु नहीं। क्या होगा गोपन रखकर, उसका असली नाम हेमंती है।

मैंने पाया, इस सत्रह वर्ष की लड़की पर यौवन का सारा प्रकाश आ पड़ा है, लेकिन अभी कैशौर्य के क्रोड़ से वह जगी नहीं। ठीक जैसे शैल शिखर के हिम पर प्रातःकालीन प्रकाश विदीर्ण हो रहा है, लेकिन बर्फ़ अभी गली नहीं। मैं जानता हूँ कि वह कितनी निष्कलंक शुभ्र है, कितनी निविड़ पवित्र।

मेरे मन में एक चिन्ता थी कि वह एक पढ़ी-लिखी सयानी लड़की है। न जाने कैसे मन पा सकूँगा। लेकिन थोड़े ही दिनों में मैंने पाया कि मन की राह के साथ पुस्तक की दुकान की राह का कहीं कोई टकराव नहीं। कब उसके सादे मन पर रंग लगा, आँखों में थोड़ा नशा-सा छा गया, कब उसके तन-मन जैसे उत्सुक हो उठे, यह ठीक नहीं बता सकूँगा।

यह तो हुई एक सिरे की बात। इसका दूसरा सिरा भी है, उसे विस्तार से बताने का अब समय हुआ है।

एक राजघराने में मेरे ससुर की नौकरी है। बैंक में उनके कितने रुपए जमा हैं, उस बारे में जनश्रुति ने कई तरह की संख्याएँ स्थापना की हैं; और कोई भी संख्या लाख के नीचे नहीं उतरी। इसका फल यह हुआ कि उसके पिता की बोली जैसे-जैसे बढ़ती गई, हेम का आदर भी वैसे-वैसे बढ़ता गया। हमारे घर के काम-काज और रीति-रिवाज़ आदि सीखने को वह उत्सुक थी, पर माँ ने अत्यधिक स्नेहवश उसे किसी भी काम में हाथ तक लगाने नहीं दिया। यहाँ तक कि हेम के साथ पहाड़ से जो दासी आई थी, यद्यपि उसे अपने कमरे में घुसने नहीं देती थी, तथापि उसकी जात के बारे में कोई सवाल इस डर से नहीं किया कि कहीं कोई अनचाहा जवाब सुनने को न मिले।

ऐसे ही दिन बीत सकते थे, लेकिन अचानक एक दिन पिताजी के मुख पर घोर अंधकार दिखाई पड़ा। मामला यह था कि मेरे विवाह पर मेरे ससुर ने पंद्रह हज़ार रुपए नगद और पाँच हज़ार रुपए के गहने दिए थे। पिताजी को अपने किसी दलाल दोस्त से यह ख़बर मिली है, इसमें से पंद्रह हज़ार रुपए उधार लेकर जुटाना पड़ा था, जिसका ब्याज भी कुछ कम नहीं। लाख रुपए की जनश्रुति तो बिलकुल धोखा है।

हालाँकि मेरे ससुर की संपत्ति के परिमाण के बारे में मेरे पिताजी के साथ उनकी किसी प्रकार की कोई चर्चा कभी नहीं हुई, फिर भी न जाने पिताजी ने किस युक्ति से यह निर्णय ले लिया कि उनके समधी ने जान-बूझकर उनके साथ धोखा किया है।

पिताजी की एक धारणा यह भी थी कि मेरे ससुर राजा के प्रधानमंत्री के जैसे किसी ऊँचे पद पर हैं। पता लगाने पर मालूम हुआ कि वे वहाँ शिक्षा विभाग के अध्यक्ष हैं। पिताजी ने कहा, यानी स्कूल का हेडमास्टर‒दुनिया में जितने सम्मानित पद हैं, उनमें सबसे घटिया। पिताजी को बड़ी आशा थी कि मेरे ससुर आजकल में जब कभी भी अवसर ग्रहण करेंगे, तब मैं ही राजमंत्री बनूँगा।

इन्हीं दिनों रास के उपलक्ष्य में गाँव के परिजन हमारे कलकत्तेवाले घर में आ जमा हुए। लड़की को देखते ही उनमें कानाफूसी होने लगी। धीरे-धीरे दबी-छुपी कानाफूसी मुखर हो उठी। दूर के रिश्ते की कोई एक नानी कह उठी, “अगर हमें हराएगी नहीं तो अपु बाहर से बहू लाने ही क्यों जाता?”

मेरी माँ भी चीख़कर बोली, “हें…यह कैसी बात है? बहू की उम्र तो अभी ग्यारह से अधिक नहीं, अगले फागुन में बारहवें में पैर धरेगी। पश्चिमी इलाक़े में दाल-रोटी पर पली-बढ़ी है, इसी से इतनी बड़ी दीखती है।”

नानियों ने कहा, “बेटी, अभी हमें अपनी आँखों से इतना कम तो सूझता नहीं। कन्यापक्ष ने अवश्य ही तुम लोगों से उम्र के बारे में धोखा किया है।”

माँ बोली, “हम लोगों ने तो जन्मपत्री तक देखी है।”

बात सच है, लेकिन जन्मपत्री में ही इसका प्रमाण है कि लड़की सत्रह साल की है।

वृद्धाएँ बोलीं, “जन्मपत्री में क्या धोखाधड़ी नहीं चलती।”

इस बात पर भारी बहस हुई, यहां तक कि झगड़ा हो गया।

इतने में हेम वहाँ आ पहुँची। किसी एक नानी ने पूछा, “नयी बहू, तुम्हारी उम्र क्या है, बताओ तो भला?”

माँ ने आँखों से इशारा किया। हेम उसका मतलब नहीं समझी, बोली, “सत्रह।”

माँ अधीर होकर बोल उठीं, “तुम जानती नहीं।”

हेम ने कहा, “मैं जानती हूँ, मेरी उम्र सत्रह वर्ष है।”

नानियों ने एक-दूसरे की देह को बिना कुछ बोले, हौले से दबाया।

बहू की बेवक़ूफी से चिढ़कर माँ बोलीं, “तो तुम सब जानती हो। तुम्हारे बाबू जी ने तो बताया था, तुम्हारी उम्र ग्यारह की है।”

हेम चौंककर बोली, “बाबूजी ने बताया है? कभी नहीं।”

माँ ने कहा, “तुमने तो बड़ी हैरानी में डाल दिया। समधी ने मेरे सामने अपने मुँह से कहा, और लड़की कहती है ‘कभी नहीं?’ यह कहते हुए दुबारा आँखों से इशारा किया।

अब की बार हेम इशारे का अर्थ समझ गई। वह स्वर को दृढ़ करती बोली, “बाबूजी ऐसी बात कभी नहीं कह सकते।”

माँ का स्वर तेज़ हो गया। वे बोलीं, “तू मुझे झूठी कहना चाहती है।”

हेम ने कहा, “मेरे बाबूजी कभी झूठ नहीं बोलते।”

इसके बाद माँ उसे गालियाँ बकने लगीं और बे-बात की कालिख बढ़ती-फैलती चारों ओर फैल-पुत गई।

माँ ने गुस्से में पिताजी के पास वधू की मूढ़ता और उसे भी अधिक ज़िद्दी स्वभाव की शिकायत की। पिताजी ने हेम को बुलाकर कहा, “अविवाहिता लड़की की उम्र सत्रह हो, यह भी कोई बड़े गौरव की बात है क्या, जिसके लिए ढिंढोरा पीटते हुए घूमना होगा? हमारे यहाँ यह सब नहीं चलेगा, बता दिया।”

हाय रे भाग्य! अपनी बहू के प्रति पिताजी का वह मधुमिश्रित पंचम स्वर आज एकबारगी ऐसे उस्ताद बाजख़ाँ के घोर षडज में कैसे उतर आया?

हेम ने व्यथित स्वर में प्रश्न किया, “कोई यदि मेरी उम्र पूछे तो क्या बताऊँ?”

पिताजी बोले, “झूठ बोलने की कोई ज़रूरत नहीं, तुम कहना‒मैं नहीं जानती, मेरी सास जानती हैं।”

झूठी बात किस तरह न कही जाए, यह उपदेश सुन हेम कुछ इस प्रकार चुप हो रही कि पिताजी ने समझा, उनका सदुपदेश एकदम बेकार ही गया।

हेम की दुर्गति दुःख के बारे में क्या करता, उसके सामने सिर नीचा हो गया। उस दिन देखा। सोचा, ‘मैं इन लोगों को नहीं पहचानता।’

उस दिन एक क़ीमती जिल्द चढ़ी अंग्रेज़ी कविता-पुस्तक उसके लिए ख़रीद लाया था। पुस्तक को उसने हाथ में लिया और धीरे-धीरे गोद में रख दिया, एक बार खोलकर देखा तक नहीं।

मैंने उसके हाथ को पकड़कर उठाते हुए कहा, “हेम, मुझ पर नाराज़ न होना। मैं तुम्हारे सच पर कभी आघात नहीं करूँगा, मैं तो तुम्हारे सत्य के बंधन में बँधा हूँ।”

हेम न बोली, न ही तनिक मुस्कराई। विधाता ने ऐसी मुस्कान जिसे दी है, उसे कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं।

पिताजी की आर्थिक प्रगति के बाद से देवता के अनुग्रह को स्थायी करने के लिए नए उत्साह से हमारे घर में पूजा-अर्चना होने लगी। अब तक उन सारे अनुष्ठानों में घर की बहू की बुलाहट कभी नहीं होती। एक दिन नई बहू को पूजा की सामग्री लगाने का आदेश मिला; उसने पूछा, “माँ, ज़रा बताओ, क्या करना होगा?”

इसमें किसी के सिर पर आकाश टूट पड़ने की बात नहीं थी, क्योंकि सभी जानते थे कि कन्या मातृहीन प्रवास में पली है। लेकिन वहाँ तो हेम को लज्जित करना ही इस आदेश का लक्ष्य था। सभी गाल पर हाथ रखकर बोले, “अरी मैया, यह कैसी बात! यह किस नास्तिक के घर की बेटी है। अब इस घराने से लक्ष्मी विदा होने को चली, इसमें अधिक देर नहीं।”

इस उपलक्ष्य में हेम के पिता को लक्ष्य कर जो नहीं कहने योग्य था, वह भी कहा गया। जब से कटुक्तियों की हवा चली है, हेम ने बिलकुल चुप्पी साधकर सब कुछ सहा है। एक दिन के लिए भी किसी के सामने उसने आँख से आँसू नहीं गिराए। आज उसकी बड़ी-बड़ी दोनों आँखों को प्लावित करती आँसू की धारा बह चली। वह उठकर खड़ी हो बोली, “आप लोगों को मालूम नहीं कि उस देश में मेरे बाबू जी को सब ऋषि कहते हैं?”

“अच्छा, ऋषि कहते हैं।” हँसी का ज़ोरदार ठहाका लगा। इसके बाद उसके पिता का जब भी उल्लेख आता, प्रायः कहा जाता‒तुम्हारे ऋषि पिता‒इस लड़की की सबसे अधिक दुखती रग कहाँ है, इसे हमारे घरवालों ने समझ लिया था।

वस्तुतः, मेरे ससुर तो ब्राह्मण हैं और न ईसाई। कदाचित् नास्तिक भी नहीं होंगे। देवार्चना की बात उन्होंने किसी दिन सोची भी नहीं होगी। कन्या को उन्होंने बहुत पढ़ाया-लिखाया-सुनाया, लेकिन एक दिन के लिए भी देवता विषयक कोई उपदेश उसे नहीं दिया। वनमाली बाबू ने इस विषय में उनसे एक बार प्रश्न किया था। उन्होंने उत्तर दिया, “मैं जो खुद नहीं समझता, उसे सिखाने जाना मात्र कपटभरी सीख होगी।”

अंतःपुर में हेम की एक सच्ची भक्तिन थी, वह मेरी छोटी बहन नारनी। वह भाभी को बहुत चाहती है, इससे उसे बहुत तिरस्कार सहना पड़ता। संसार-यात्रा में हेम को जो अपमान सहने पड़ते, वह मैं उसी से सुनता। एक दिन के लिए भी, मैंने कभी भी हेम से कुछ नहीं सुना। वे सारी बातें संकोचवश वह होंठों पर नहीं ला पाती। वह संकोच भी ख़ुद अपने लिए नहीं था।

हेम को अपने पिता के पास से जितने पत्र मिलते, वह सब मुझे पढ़ने देती। पत्र छोटे, किन्तु रस भरे होते। वह भी अपने पिता को जितने पत्र लिखती, सब मुझे दिखाती। पिता के साथ उसके संबंधों को मेरे साथ न बाँटने पर उसका दांपत्य पूरा ही नहीं हो पाता था। उसके पत्रों में ससुराल के बारे में किसी प्रकार की शिकायत का इशारा तक नहीं होता। ऐसा होने पर विपद हो सकती थी। नारानी से ही सुना था कि ससुराल के बारे में वह क्या लिखती रही है, यह जानने के लिए बीच-बीच में उसके पत्र खोले जाते हैं।

पत्रों में अपराध का कोई प्रमाण न पा ऊपरवालों का मन शांत हुआ हो, ऐसा नहीं। शायद उसमें उन्हें आशा भंग का दुःख ही मिला हो। बड़ी खीझ में भरकर वे कहने लगे, “इतनी जल्दी-जल्दी पत्र क्यों आते हैं। पिताही सब कुछ हैं, हम लोग क्या कोई नहीं।” इसे लेकर बहुत अप्रिय बातें होने लगीं। मैंने क्षुब्ध होकर हेम से कहा, “तुम्हारे पिता के पत्र और किसी के हाथ न देकर मुझे ही देना। कॉलेज जाते हुए मैं पोस्ट कर दूँगा।”

हेम ने हैरानी से पूछा, “क्यों?”

मैंने संकोचवश कोई उत्तर नहीं दिया।

अब घर में सबने कहना शुरू कर दिया, “इसने अपु का दिमाग़ बिगाड़ दिया है। बी.ए. की डिग्री ताक पर धरी रहेगी। लड़के का क्या दोष!”

यह तो ठीक ही है। दोष सारा बेचारी हेम का ही था। उसका दोष यह है कि उसकी उम्र सत्रह साल है, उसका दोष यह कि मैं उससे प्रेम करता हूँ; उसका दोष यह कि विधाता का यह विधान है, इसलिए मेरे हृदय के पोर-पोर में सारा आकाश आज वंशी बजा रहा है।

बी.ए. की डिग्री मैं निरासक्त भाव से भाड़ में झोंक सकता था, लेकिन हेम के कल्याण का प्रण किया था, पास करूँगा ही और अच्छी तरह पास करूँगा। इस प्रण की रक्षा उस दशा में मुझे दो कारणों से संभव पर दीख पड़ी‒एक तो हेम के प्रेम में एक ऐसा आकाश-सा विस्तार था, जो संकीर्ण आसक्ति में मन को बाँधे नहीं रख सकता था, उस प्रेम के चारों ओर एक बड़ी सुहानी बयार-सी बहती रहती। दूसरे परीक्षा के लिए जिन पुस्तकों का पढ़ना आवश्यक था, उसे हैम के साथ मिलकर पढ़ना कोई असंभव कार्य नहीं था।

मैं परीक्षा पास करने की तैयारी में कमर कसकर जुट गया। एक दिन रविवार की दुपहरी में बाहर के कमरे में बैठकर मार्टिनी के चरित्र तत्त्व पुस्तक के विशेष-विशेष पंक्तियों की राह के बीचो-बीच नीले पेन्सिल का हल चलाए जा रहा था, इतने में अचानक मेरी दृष्टि बाहर की ओर गई।

मेरे कमरे के सामने आँगन के उत्तर की ओर अंतःपुर में जाने की एक सीढ़ी थी। उसी से सटी हुई बीच-बीच में सीखचेदार एक खिड़की थी। मैंने देखा, उसी खिड़की पर गुमसुम-सी हेम पश्चिम की ओर ताकती हुई बैठी है। उस ओर मल्लिक के बाग़ में कचनार का पेड़ गुलाबी फूलों से लदा था।

मेरी छाती में सहसा धपाक से एक झटका लगा, मन से उदासीनता का आवरण छिन्न हो गिर पड़ा। इस निःशब्द गंभीर वेदना के रूप को मैंने इतने दिनों तक इतने स्पष्ट रूप में कभी नहीं देखा था।

और कुछ नहीं मैं केवल उसके बैठने की भंगिमा भर देख पा रहा था। उसकी गोदी में एक हाथ पर दूसरा हाथ स्थिर पड़ा हुआ था और सिर दीवार के सहारे टिका। खुले बाल बायें कंधे से होते हुए सीने पर फैले हुए। मेरे हृदय में शून्यता की एक हूक-सी उठी।

मेरा अपना जीवन इतना लबालब भरा हुआ था कि मैं कहीं किसी शून्यता की ओर कभी गौर नहीं कर पाया था। आज अचानक ही अपने अत्यंत निकट निराशा की एक बहुत बड़ी गहरी खाई देखी। मैं कैसे‒किससे उसे पाटूँगा।

मुझे तो कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ा। न परिजन, न आदत, न और कुछ। हेम तो सब कुछ छोड़कर मेरे पास आई है। उसका परिमाण कितना है, यह मैंने कभी अच्छी तरह सोचकर नहीं देखा था। हमारे परिवार में वह अपमान के काँटों की शय्या पर बैठी है, उस शय्या पर मैंने भी उसके साथ हिस्सेदारी बँटाई है। उस दुःख में हेम के साथ मेरा भी जुड़ाव था। उसमें हम अलग नहीं थे। लेकिन यह गिरनंदिनी सत्रह वर्ष की अवधि तक अंतर-बाहर कितनी विशाल मुक्ति के बीच पली है। किस निर्मल सत्य और उर आलोक में उसकी प्रकृति ऐसी ऋजु शुभ्र और सबल हो उठी है। उससे हेम किस निरतिशय और निष्ठुर रूप से विच्छिन्न हुई है, इतने दिनों तक उसे मैं पूरी तरह से अनुभव नहीं कर पाया था, क्योंकि वहाँ उसके साथ आसन समान नहीं था।

हेम अंदर-ही-अंदर पल-पल तिल-तिल घुटकर मर रही थी। उसे मैं सब दे सकता था, लेकिन मुक्ति नहीं‒वह मेरे अपने ही अंतर में कहाँ? इसलिए कलकत्ते की गली में उस सींखचों के अवकाश से निर्वाक आकाश के साथ उसके निर्वाक् मन की गुपचुप बातें होतीं; और कभी-कभी रात में अचानक नींद खुल जाती तो पता वह बिस्तर पर नहीं है, हाथ पर सिर रख तारों से भरे आकाश की ओर मुँह किए छत पर लेटी है।

मार्टिनी का चरित्र तत्त्व पड़ा रहा। सोचने लगा, क्या करूँ? बचपन से ही पिताजी से मेरे संकोच का अंत नहीं था, कभी भी उनके सामने दरबार करने का साहस या अभ्यास मेरा नहीं था, उस दिन अपने को रोक नहीं सका। लाज-संकोच छोड़कर उनसे कह बैठा, “बहू की तबियत अच्छी नहीं है, उसको एक बार उसके पिता के पास भेजना ठीक होगा।”

पिताजी को जैसे काठ मार गया। मन में तनिक भी संदेह नहीं हरा कि हेम ने ही इस प्रकार के अभूतपूर्व साहस के लिए मुझे तैयार किया है। उसी समय वे उठे और अंतःपुर में जाकर हेम से पूछा, “बहू, ज़रा मैं भी तो सुनूँ कि तुम्हें क्या बीमारी है।”

हेम बोली, “बीमारी तो कुछ नहीं है।”

पिताजी ने सोचा, यह उत्तर तेज़ दिखाने के लिए है।

किन्तु हेम की देह दिन-प्रतिदिन सूखती जा रही थी। इसे हमने प्रतिदिन देखते रहने के अभ्यास के कारण समझा नहीं। एक दिन वनमाली बाबू ने उसे देखा तो चौंक पड़े, “अरे, यह क्या, हेमी! यह तेरा चेहरा कैसा मुरझा गया है। तू बीमार तो नहीं?”

हेम बोली, “नहीं।”

इस घटना के दसेक दिन बाद ही न कोई बात न चीत, अचानक मेरे ससुरजी आ पहुँचे। हेम के गिरते स्वास्थ्य के बारे में अवश्य ही वनमाली बाबू ने उन्हें चिट्ठी लिखी होगी।

विवाह के बाद पिता से विदा लेते समय पुत्री ने अपने आँसू रोक लिए थे। अबकी मिलन के दिन पिता ने ज्यों ही उसकी ठोढ़ी को पकड़कर मुँह ऊपर उठाया, त्यों ही हेम की आँखों के आँसू रोके नहीं रुक पाए। पिता भी एक शब्द नहीं बोल सके; पूछा तक नहीं, ‘तू कैसी है?’ मेरे ससुर ने कन्या के मुख पर ऐसा कुछ देखा, जिससे उनकी छाती फट गई।

हेम पिता के हाथ पकड़े उन्हें सोने के कमरे में लिवा गई। कितनी ही बातें तो पूछने की हैं। स्वास्थ्य भी ठीक नहीं दीख रहा है।

पिता ने पूछा, “तू मेरे साथ चलेगी बेटी?”

हेम कंगालिन-सी बोल उठी, “चलूँगी।”

पिता ने कहा, “अच्छा, पहले सब ठीक-ठाक कर लूँ।”

मेरे ससुर अगर अत्यंत उद्विग्न नहीं हुए होते, तब इस घर में घुसते ही अनुभव कर पाते कि अब यहाँ उनके वे दिन नहीं रहे। सहसा उनके आविर्भाव को उपद्रव समझा गया। पिताजी ने तो अच्छी तरह बात ही नहीं की। मेरे ससुर को याद था कि उनके समधी ने कभी उन्हें बार-बार आश्वासन दिया था कि जब भी जी में आए, आप कन्या को ख़ुशी-ख़ुशी घर ले जा सकते हैं। इस सच की अनदेखी हो सकती है, यह बात वे मन में भी न ला सके।

पिताजी तंबाक़ू का कश खींचते-खींचते बोले, “समधी जी, मैं तो कुछ कह नहीं सकता, तो फिर एक बार घर में….।”

घर के मत्थे ज़िम्मेदारी सौंपने का बहाना मेरा जाना हुआ था। समझ गया, कुछ होने-हवाने को नहीं। हुआ भी कुछ नहीं।

बहू की तबियत अच्छी नहीं। इतना अन्यायपूर्ण दोषारोपण!

ससुरजी ने स्वयं एक अच्छे डॉक्टर को बुलाकर जाँच करवाई। डॉक्टर ने कहा, “जलवायु-परिवर्तन आवश्यक है, नहीं तो अचानक कोई सख़्त बीमारी हो सकती है।”

पिताजी ने हँसकर कहा, “अचानक ही सख़्त बीमारी तो जिस किसी को भी हो सकती है। यह भी कोई बात हुई भला?”

मेरे ससुर बोले, “आप जानते तो हैं कि ये एक प्रसिद्ध डॉक्टर हैं, इनकी बात क्या…।”

पिताजी ने कहा, “मैंने ऐसे तमाम डॉक्टर देखे हैं। दक्षिणा के बल पर सारे पंडितों के पास से हर तरह के विधान मिल सकते हैं और सभी डॉक्टरों के पास से सभी रोगों का प्रमाण-पत्र मिल सकता है।”

इस बात को सुनकर मेरे ससुर बिलकुल स्तब्ध हो रहे। हेम ने समझा उसके पिता का प्रस्ताव अपमान के साथ अग्राह्य हुआ। उसका मन एकबारगी काष्ठवत् हो गया।

मुझसे और न सहा गया। मैंने पिताजी के पास जाकर कहा, “हेम को मैं ले जाऊँगा।”

पिताजी गरज़ पड़े, “इतनी हिम्मत तुम्हारी” आदि…इत्यादि…

मित्रों में से किसी ने मुझसे पूछा, “जो कहा वह किया क्यों नहीं? पत्नी को ज़बरदस्ती घर से बाहर क्यों नहीं ले गया। क्यों नहीं ले गया? क्यों!”

क्यों? यदि लोक धर्म के लिए सत्य धर्म को न ठेलूँ, यदि घर के लिए घर के व्यक्ति की बलि न चढ़ाऊँ, तो मेरे रक्त में युग-युग से चली आ रही जो शिक्षा है, वह किसलिए है? तुम लोगों को पता है? जिस दिन अयोध्या के लोगों ने सीता के निर्वासन की माँग की थी, उन्हीं में मैं भी तो था; और उस निर्वासन की गौरव गाथा का युग-युग से जो गान करते आए हैं, मैं भी तो उन्हीं में से एक हूँ; और मैंने ही तो उस दिन लोकरंजन के लिए स्त्री परित्याग के महत्त्व का वर्णन कर एक मासिक पत्र में लेख लिखा था। हृदय के रक्त से मुझे किसी दिन दूसरी सीता के निर्वासन की कहानी लिखनी होगी, यह कौन जानता था?

पिता-पुत्री की विदाई का क्षण एक बार फिर आ पहुँचा। इस बार भी दोनों के चेहरे पर मुस्कान विराज रही थी। कन्या ने हँसते-हँसते झिड़कते हुए कहा, “बाबूजी, अगर फिर कभी तुम मुझे देखने के लिए इस तरह दौड़े-भागे इस घर में आए तो मैं कमरे का दरवाज़ा बंद कर लूँगी।”

पिता ने हँसते-हँसते कहा, “अगर फिर कभी आया तो सेंध लगाने के लिए सब्बल भी साथ ही लेकर आऊँगा।”

इसके बाद हैम के चेहरे पर की वह चिर-परिचित स्निग्ध मुस्कान फिर कभी एक दिन के लिए भी नहीं दिखी।

उसके बाद फिर क्या हुआ, यह बात मुझसे कही नहीं जाएगी।

सुन रहा हूं, माँ लड़की खोज रही हैं। शायद एक दिन माँ का अनुरोध अस्वीकार न भी कर पाऊँ‒यह भी संभव हो सकता है। इसकी वजह जाने भी दीजिए और क्या ज़रूरत!