Hindi Motivational Story: मन्थर गति से ढलती हुई साँझ की तरह वह आदमी धीमे कदमों से जैसे एक एक पग नापता हुआ प्लेटफार्म पर आगे बढ़ता चला जा रहा था। उसे देखकर साफ पता चलता था कि उसे कोई जल्दी नहीं थी, वह बस अपना समय गुजार रहा था।
सिर पर पके हुए सफेद बाल और चेहरे पर दिखाई देती झुर्रियाँ उसके अधेड़ावस्था पार कर जाने की चुगली कर रही थी। चलते चलते वह अपने चारों ओर एक नजर डाल लेता था। चलता हुआ आखिर वह एक बेंच पर आकर बैठ गया, उसकी सूनी सूनी आँखों में किसी का इंतजार साफ झलक रहा था। एक बार और अपने आस पास नजर डालने के बाद उसने अपनी जेब से कागज का तह किया हुआ एक बहुत पुराना लिफाफा निकाला और उसे खोलकर एक फोटो निकालकर देखने लगा। उसकी पनीली आँखों में एक धुंधली होती चमक किसी बुझते दीपक की तरह जैसे संघर्ष कर रही थी। फ़ोटो देखते देखते वह अपने अतीत में खोता चला गया।
ऋतुराज बसंत के आगमन की आहट से पेड़ के पत्ते पत्ते महक उठे थे। हवा में घुली हुई मादक गंध से इंसान तो क्या जीव जंतु भी पागल हुए जा रहे थे। हर तरफ उल्लास था, उमंग थी और था एक अनकहा सा जोश।
वैभव, जो अपना पच्चीसवाँ बसन्त देख रहा था, मुंबई जाने वाली ट्रेन पकड़ने आया था। वह एक महत्वाकांक्षी फोटोग्राफर था जिसने फोटो खींचने के अपने शौक को अपना व्यवसाय बनाने की ठान ली थी इसीलिए वह मुंबई जा रहा था उसके गले में उसका वह कैमरा भी लटका हुआ था जिसे उसने अपनी व्यवसाय का साधन बनाने के लिए बड़े ही शिद्दत के साथ खरीदा था, वह उस समय अपने शहर के एक हरे भरे रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़ा अपनी ट्रेन का इंतजार ही कर रहा था, कि तभी अचानक उसकी नज़र पास में खड़ी एक लड़की पर पड़ी। ब्लू कलर की खूबसूरत सी ड्रेस पहने, हाथों में एक पुरानी डायरी थामे और किसी गहरी सोच में डूबी हुई वह लड़की स्वर्ग से उतरी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी।
सोचते हुए ही वह अचानक से मुड़ी, जल्दबाज़ी में उसकी डायरी हाथ से छूटकर नीचे जा गिरी। उसने तुरंत नीचे झुककर अपनी डायरी उठा ली लेकिन डायरी से निकल कर एक फोटो, जो हवा के एक हल्के झोंके से उड़ कर दूर हो गया था, उस पर उसका ध्यान ही नहीं गया। एक और हवा के हल्के धक्के ने उसे वैभव तक पहुँचा दिया।
वैभव ने झुककर उस फोटो को उठा लिया। फोटो उसी लड़की की थी, संध्याकालीन अस्ताचलगामी सूर्य को निहारती हुई वह फोटो उसी लड़की की जान पड़ती थी, बस एक तरफ का गाल ही तो दिख रहा था, जो विदा लेते सूर्य की किरणों की चमक से रक्ताभ हो चला था। वैभव एक पल के लिए बस निहारता ही रह गया।
लड़की आगे बढ़ कर एक बेंच पर बैठ चुकी थी और वापस जैसे कुछ सोचने लगी थी। धीमे कदमों से वैभव उसके पास आया और उसे निहारता हुआ हल्की मुस्कान के साथ बोला, “शायद ये फ़ोटो आपका है?”
ख्यालों में खोई लड़की ने चौंककर उसे देखा और फिर उसके हाथ मे थमे फोटो को, मुस्कुराते हुए उसने फोटो ले लिया, “थैंक यू… मैं अक्सर चीज़ें गिरा देती हूँ।”
वैभव ने मज़ाक में कहा, “उम्मीद है, आप ट्रेन से न गिरें!”
लड़की हँस पड़ी और बोली, “वैसे, मेरा नाम नीलम है।”
“और आपकी ड्रेस भी।”
दोनों के ठहाके एक साथ गूँज उठे। बस, वहीं से उनकी बातचीत शुरू हुई थी। ट्रेन आने में अभी भी टाइम था तो दोनों प्लेटफॉर्म की बेंच पर बैठकर बातें करने लगे।
“पहली नजर में तो आप मुझे कवि या लेखिका लग रही हैं, क्या मैं सही हूँ?” वैभव ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“आपको कैसे पता चला?” अचानक मुस्कुराते हुए नीलम गंभीर हो गई।
“वह ऐसे कि अक्सर अपने ख्यालों में खोए रहने वाले ज्यादातर लोग लेखक या कवि ही होते हैं। तिस पर आपके हाथ में डायरी और कलम भी है।” वैभव ने फिर से मुस्कुराते हुए कहा।
“हाँ, क्योंकि हम अधिकतर अंतर्मुखी होते हैं, खुद से बातें करते रहते हैं, हर एक चीज को, भावना को, अभिव्यक्ति को, महसूस करने की कोशिश करते रहते हैं।” नीलम ने जैसे खुद में खोते हुए गर्व से कहा।
“और फिर उसे कागज पर उतनी ही खूबसूरती से उतार भी देते हैं..!” वैभव ने नीलम की ही बात आगे बढाते हुए कहा।
नीलम की गायब हुई मुस्कान वापस उसके चेहरे पर सज गई थी। उसका चेहरा और दमक उठा था। उसने कोई जवाब नहीं दिया, सिवा मुस्कुराने के।
वह एक उभरती हुई प्रतिभाशाली लेखिका थी, जो शिमला जैसे शांत सुरम्य वातावरण की खोज में निकली थी, ताकि अपनी नई किताब को पूरे मन से समय दे सके।
वैभव बस एकटक उसे देखता ही रह गया। नजरें उस दमकते चेहरे से जैसे हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं। नीलम का निर्मल सौंदर्य उसे भा गया था।
“और आप बहिर्मुखी हैं, हैं न?” नीलम की सुंदरता में खोए वैभव की आँखों के आगे चुटकी बजाते हुए नीलम ने कहा तो वह चिंहुक उठा।
“आ.. आपको कैसे पता?” अब चौंकने की बारी वैभव की थी। नीलम खिलखिला उठी। उसकी खनकती हँसी वैभव को भाव विभोर कर रही थी।
“जैसे आपको पता चला था।” मुस्कुराते हुए नीलम ने कहा।
“मतलब?”
“मतलब ये!” नीलम ने वैभव के गले में लटके कैमरे की तरफ इशारा किया।
“जैसे अंतर्मुखी अंदर ही अंदर सुंदरता ढूँढते रहते हैं, वैसे ही बहिर्मुखी बाहर की दुनिया में और ये कैमरा इसी का गवाह है। गलत तो नहीं कहा न मैंने?”
वैभव बस देखता ही रह गया। वाकई वह एक फोटोग्राफर था, जो मुंबई में अपने करियर की नई शुरुआत करने जा रहा था। उसे सुंदर चीजों, दृश्यों को कैमरे में कैद करने का उतना ही शौक था, जितना नीलम को कागज पर उन्हें उतारने का।
“कहाँ जाना है आपको?” नीलम ने पूछा।
“सपनो की नगरी मुम्बई।” वैभव ने मुस्कुराकर जवाब दिया।
“और आपको?” अब वैभव का सवाल था।
“शिमला! प्रकृति की गोद में, प्रकृति जैसे मुझे खुद की तरफ खींचती सी महसूस होती है, जाने क्यों…” बातें करते करते जैसे नीलम का लेखक मन उस पर बार बार हावी हो रहा था।
“एक लेखक के लिए उससे अच्छी जगह हो भी नहीं सकती।” वैभव ने कहा।
बातों बातों में दोनों को एहसास हुआ कि उनके सपने अलग हो सकते हैं, लेकिन उनकी सोच कहीं-न-कहीं एक जैसी ही थी। दोनों ही कला के उपासक थे। सौंदर्य के प्रेमी।
ट्रेन की अनाउंसमेंट हुई। वैभव और नीलम ने एक दूसरे की ओर देखा। जैसे दोनों को एहसास हो रहा था कि यह मुलाकात शायद आखिरी हो। पर कहीं न कहीं उन्हें यह भी लग रहा था कि काश समय यहीं ठहर जाए, पूरा जीवन एक दूसरे को निहारते, बातें करते गुजर जाए, पर समय कहाँ किसी की सुनता है। वह तो मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसलता चला जाता है। ठीक तभी ट्रेन आकर प्लेटफॉर्म पर खड़ी हो गई।
नीलम ने झिझकते हुए कहा, “काश, हम कुछ और वक्त बिता सकते।”
वैभव ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “कभी कभी, कुछ लम्हों की उम्र पूरी ज़िंदगी से ज़्यादा होती है।”
“लगता है, फोटोग्राफर में लेखक का जन्म हो गया है।” नीलम हँसते हुए बोली। वैभव भी मुस्कुरा उठा।
तभी उसे याद आया कि हर सुंदर चीज की फोटो लेने को उतावला रहने वाला वह, अप्सरा सी सुंदर इस लड़की की फ़ोटो लेना ही भूल गया। लेकिन इससे पहले कि वह अपना कैमरा सम्भालता, ट्रेन चलने लगी। नीलम ने धीरे से अपनी डायरी से वापस वही फोटो निकाला और वैभव को पकड़ाते हुए बोली, “जब मैं दोबारा यहाँ आऊँगी, तो यह फोटो मुझे वापस कर देना। और तब तुम मेरी एक रियल फोटो भी क्लिक करना।”
“कब आओगी दोबारा?” वैभव जल्दी से पूछ बैठा, ऐसा लगा जैसे वह व्याकुल हो उठा था। नीलम से भी यह बात छिपी न रही, उसके भीतर भी जैसे कुछ दरक रहा था। आवाज में स्वतः ही भारीपन आ गया।
“मैं हर बार बसन्त के मौसम में यहीं से गुजरती हूँ…” इससे आगे कि वह कुछ और कह पाती, ट्रेन ने एक झटका खाया और तेजी से आगे की तरफ सरक गयी।
वैभव ने वह फोटो सहेज लिया था, किसी अमानत की तरह, लेकिन जब तक वह कुछ कह पाता, नीलम की ट्रैन काफी आगे बढ़ चुकी थी। गेट पर खड़ी होकर वह अभी भी हाथ हिला रही थी और उसके चेहरे पर मुस्कान अभी भी दमक रही थी।
उस दिन उस स्टेशन पर सिर्फ एक ट्रेन ही नहीं छूटी, बल्कि एक अनकही मोहब्बत भी छूट गई थी। शायद किसी दूसरी मुलाकात के इंतजार में।
लेकिन पैंतीस साल बाद भी, वैभव उस छूटी हुई अनकही मोहब्बत से दोबारा मिलने हर बार बसन्त के मौसम में ठीक इसी प्लेटफॉर्म पर उसी फोटो के साथ, यह सोचकर आता है, कि लौटा सके उसे उसकी अमानत जो पता नहीं क्यों वापस लौट कर नहीं आई…।
उसी क्षण प्लेटफॉर्म पर रुकी ट्रेन ने सीटी बजाई और झटका खाती हुई आगे की तरफ सरक गयी। अधेड़ावस्था पार कर चुका वैभव सीट से उठा, फोटो जेब में डाली और रुमाल से अपनी आँखों के कोर साफ करता हुआ एक तरफ बढ़ गया। अगले बसन्त तक के लिए।
