घाव जो भरते नहीं: गृहलक्ष्मी की कहानी: Grehlakshmi Kahani
Ghav jo Bharte Nahi

Grehlakshmi Kahani: सुबह का अलार्म बजते ही मेरी आंख खुल गई, मैं जो रात भर अलार्म बजने के डर से भर आंख सो भी न पाई थी। ‘जतिन जल्दी उठो’ मैंने जतिन को आवाज दी। ‘सुगंधा प्लीज प्लीज पहले एक कप चाय पिला दो, तब उठ पाऊंगा’, जतिन ने कहा। तो मैं फटाफट किचन में भागी और जतिन को चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, ‘जतिन अब जल्दी से तैयार हो जाओ, स्टेशन पहुंचने में भी तुम्हें कम से कम आधा घंटा लगेगा।’ इतना कहकर मैंने मेन गेट खोला, बाहर से अखबार लेकर आई और डस्टिंग में जुट गई।

पंद्रह मिनट में जतिन तैयार होकर आ गए, मैंने उन्हें गाड़ी की चाभी पकड़ाई और दरवाजा बंद करके अलमारी से अपने कपड़े निकाले और नहाने घुस गई। नहाकर आई तो बालों को जल्दी से ऊपर समेट कर क्लच लगा लिया और किचन में नाश्ता बनाने के लिए भागी। एक तरफ कड़ाही में घी डालकर सूजी भूनने रख दी और दूसरी तरफ कूकर में आलू उबलने रख दिए। पापा की पसंद को ध्यान में रखते हुए साबूदाना, आलू के बड़े और सूजी का हलवा नाश्ते में बनाने का सोचा था। तभी डोर बेल बजी, यानी ये लोग आ चुके थे। मैंने गेट खोला और पापा के पांव छुए। ‘सुगंधा पहले एक कप कड़क चाय पिलाओ फिर मैं नहाऊंगा और आकर नाश्ता करूंगा।’ पापा ने कहा।

पापा जब तक नहाकर आए, मैंने नाश्ता तैयार करके मेज पर सजा दिया था। तब तक मुन्नी भी आ गई थी। मैंने उसे पहले और कमरों में सफाई के लिए बोला और फिर दिन का खाना बनाने में जुट गई। पापा आज आए थे तो जतिन ने आज ऑफिस से छुट्टी ले ली थी लेकिन जतिन से किसी सहयोग की अपेक्षा कम से कम पापा के सामने तो नहीं कर सकती थी। इधर मैं सुबह से बेहाल काम में जुटी थी और उधर सोफे पर बैठकर दोनों पिता पुत्र बचपन और गांव गिराव के किससे साझा करते हुए खूब हंस रहे थे। ‘जतिन एक काम तुमने बहुत अच्छा किया है कि खाना बनाने के लिए कोई नहीं रखा है। वरना तो आजकल शहर में ये एक नई बीमारी चल गई है और कोई चलन पहले शहर से शुरू होता है और फिर गांव की नई बहुएं भी वही नकल करने की जिद करने लगती हैं।’ पापा ने जतिन से कहा।

जतिन ने न हां में सिर हिलाया और न ना में ही, एक धीमी सी हम्म करके रह गए, जब कि मैं चाहती थी कि जतिन कम से कम मेरी प्रशंसा में ही दो शब्द बोल दें या फिर खाना बनाने वालियों के पक्ष में ही कोई उजला सा तर्क दे दें लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और पापा को और बल मिलता रहा। वे आगे बोले, ‘आजकल की लड़कियां काम से बहुत जी चुराती हैं। तुम्हारी अम्मा जाने कौन से पहर आराम करतीं थीं, मुंह अंधेरे ही सेवा टहल शुरू। सिल-बट्टे पर मसाला पीसकर जब वो सब्जी छौंके तो दुआर के अगल-बगल के दो चार घर तक महक फैल जाए। तुम्हें याद है जतिन जब हमारा तबादला कानपुर हो गया था तो हम तड़के सुबह निकलते थे और एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ कि हम बिना खाए घर से निकले हों।’ ‘ऐसी ही तुम्हारी बुआ लोग रहीं, जो घर से लेकर खेती बारी तक सब काम बड़ी सफाई से कर लिया करतीं थीं। हम तो तुम्हारी अम्मा की वजह से हमेशा घर की जिम्मेदारियों से मुक्त रहे बेटा, बड़े जीवट की औरत थी तुम्हारी मां।’

पापा तब तक चुप नहीं हुए, जब तक उनके फोन पर कोई कॉल नहीं आ गई। रसोई और कमरे की दूरी ज्यादा नहीं थी तो पापा की एक-एक बात मेरे कानों तक पहुंच रही थी या इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि वे ये सब मुझे सुनाने के लिए ही कह रहे थे। जिन बातों का वे तारीफ समझकर बखान कर रहे थे, वे बातें मेरे दिल-दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट मार रहीं थीं। काश मैं कह पाती कि पापा अम्मा ने आपके लिए अपनी नींद, भूख प्यास सब वार दी, इसके बदले में आपने उन्हें क्या दिया! अपने अंतिम दिनों में भी अम्मा को आपके सुख की छांव नसीब न हुई। क्योंकि आपको अपना हर काम अम्मा के ही हाथों से करवाने में सुख मिलता था और ये बात आप बड़ी शान से सबके सामने बताते थे। फिर अम्मा को चाहे अपनी देह को धकेल-धकेल कर आपके सभी काम क्यूं न करने पड़ें, आपको कहां कोई फर्क पड़ता था। उनके जाने के बाद फिर आप चाहें जितना मर्जी शोक कर लें पर जीते जी तो अम्मा को आपका जरा सुख नसीब न हुआ।

खैर जब तक पापा रहे, मैं एक पांव पर नाचती रही। सुबह की चाय से लेकर रात को दूध देने के बीच के नाश्ते, लंच, डिनर सभी में वैरायटी का ध्यान रखने की कोशिश करती। भारतीय परिवारों में आधा जीवन तो खाने में या खाने के बारे में सोचते हुए ही बीत जाता है। पर पापा के मुंह से तारीफ का एक बोल नहीं निकलता। हमेशा यही जुमला दोहराते रहते कि आजकल की लड़कियां सब रीति-रिवाज परम्पराएं भूलती जा रही हैं। आगे चलकर क्या होगा, भगवान भली करें! उनके इस तरह के व्यवहार और रूखी बातों से मैं भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती। जैसे आदिवासियों की वो प्रथा कि जब किसी पेड़ को उन्हें काटना होता है तो उसके चारों ओर खड़े होकर वे लोग उस पेड़ को दिन-रात कोसने लगते हैं और फिर वो पेड़ कुछ दिनों में अपने आप सूख जाता। लगभग यही मनोदशा मेरी भी होती जा रही थी। एक दिन मैंने शाम को पापा से कहा कि ‘पापा आज मेरी सहेली के बेटे का जन्मदिन है। मुझे शाम को जाना है तो…’ मैं पूरा वाक्य बोल पाती इससे पहले ही पापा बोल पड़े, ‘तो आज रात में खाना हमें बनाना है?’ मैंने अपनी बात पूरी करते हुए उनसे कहा, ‘पापा, मैं कह रही थी कि मैं रात का खाना बना चुकी हूं, डाइनिंग टेबल पर खाना बनाकर रख दूंगी। प्लेट, कटोरी, गिलास, पानी सब, अगर मुझे देर हो और आपको भूख लगे तो आप खाना निकाल कर खा लीजिएगा।’

मेरी बात सुनकर पापा और तुनक कर बोले कि ‘हां-हां कुछ और काम हो तो वो भी बता दो, कर लूंगा’ और एक व्यंग्यमयी हंसी में हंस दिए। उनकी हंसी में छिपा गुस्सा साफ-साफ दिख गया मुझे। और मैं जितने अच्छे मन से तैयार हुई थी, उतने ही बुरे मन के साथ सुरभि के घर चली गई। लौटकर आई तो जतिन भी घर आ चुके थे और खाना ज्यूं का त्यूं डाइनिंग टेबल पर रखा था और पापा अपने कमरे में लेटे थे। जतिन ने पापा को खाना खाने के लिए आवाज दी और पापा जब नहीं आए तो जतिन पापा की प्लेट लेकर उनके कमरे में ही चले गए और काफी मान मनौव्वल के बाद पापा खाना खाने को तैयार हुए। ‘सुगंधा, प्लीज आगे से थोड़ा ध्यान रखना’ जतिन ने किचन में प्लेट रखते हुए कहा तो मैं बिना अपराध के अपराध बोध से भर गई।

रात के तीन बजे से मेरे पेट में थोड़ा दर्द सा हुआ तो मेरा दिमाग जरा ठनका पर जतिन को नहीं उठाया। सुबह कहा कि जतिन डॉक्टर के यहां चलना है। सुरभि ने एक लेडी डॉक्टर का नाम बताया है। डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद अपनी मीठी बोली में जब कहा कि ‘आपकी रिपोर्ट पॉजिटिव है, आप प्रेगनेंट हैं।’ इतने दिनों से भरी हुई थी मैं और डॉक्टर के इन बोलों को सुनकर भर आई थीं मेरी आंखें, लग रहा था कि उनके कंधे लगकर जी भर कर रो लूं और कर लूं अपना मन हल्का।’ आगे डॉक्टर ने मुझे और जतिन को समझाते हुए कहा कि ‘आप का वेट और हीमोग्लोबिन दोनों कम है इसलिए आपको बहुत एहतियात रखना पड़ेगा, तभी बच्चा सर्वाइव कर पाएगा। शुरुआत के तीन-चार महीने आपको आराम करना होगा, कोई भारी चीज नहीं उठानी है। खूब खुश रहिए और दवा के साथ पौष्टिक चीजें खाइए और अब अगले महीने दिखाने आइएगा।’

इतने दिनों के बाद मैं बहुत खुश थी। जतिन भी खुश थे। लौटते समय बहुत धीमे-धीमे गाड़ी चला रहे थे और जब गड्ढा आता तो पूछते कि तुम ठीक तो हो! जतिन को अपनी परवाह करता देखकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। इतने दिनों से जिस उदासी ने मुझे घेर रखा था, उसकी धुंध छंटने लगी थी।
घर लौटकर जतिन ने पापा को ये खुशखबरी सुनाई और बताया कि ‘पापा डॉक्टर ने थोड़े कॉम्प्लिकेशन बताए हैं तो सुगंधा को अपना ध्यान रखना होगा।’ पापा तुरंत जतिन की बात काटते हुए बोले कि ‘अरे ये सब आजकल के डॉक्टरों ने हउआ बना दिया है। तुम्हारी मां ने जिस दिन तुम शाम में पैदा हुए हो, उस दिन तक पूरा काम किया था।

आजकल के डॉक्टर चाहते हैं कि ऑपरेशन से बच्चा हो तो उनकी कमाई हो, सारे अस्पताल आजकल कमाई के फेर में लगे हुए हैं।’ उनकी बात सुनकर मेरा मन कसैला हो गया कि आज के दिन तो खुशी के दो बोल बोल देते! जाने ऐसी क्या बात थी कि पापा हम लोगों को देखकर चिढ़े-चिढ़े से रहते थे। उन्हें लगता कि जतिन यहां शहर में रहकर घर से दूर हो गया है। मेरे कहने पर अनाप शनाप खर्चे करता है। उन्हें क्या बताते कि जो सामान उन्हें लग्जरी लग रहा है दरअसल वो आज के समय की मांग है। एसी, कार, गीजर ये सब उनकी नजर में फिजूल खर्ची थी। जो बेटा उनसे पूछे बिना कोई निर्णय नहीं लेता था वो बीबी के कहे में आकर दोनों हाथों से पैसा उड़ा रहा है। जब कि हम दोनों ही जानते थे कि बड़े शहर में रहने के लिए हमारी तनख्वाह को हम कैसे बजट बनाकर खर्च करते थे। हां, ये बात तो थी कि वो बजट हम दोनों की आपसी सहमति से बनता था, उसमें पापा की कोई भूमिका नहीं थी। और अब तो पापा को एक नया विषय मिल गया था तो पापा दिन में एक बार जरूर दोहरा दिया करते थे कि जतिन की पहली औलाद लड़का हो जाए तो वंश चल जाए। आगे भगवान की मर्जी और ये बात कहते हुए ऐसे सांस छोड़ते कि अगर लड़की हो गई तो जाने क्या कयामत आ जाएगी। पर मैं ईश्वर से यही मांगती थी कि हे ईश्वर चाहे लड़का हो या लड़की जो भी हो बस स्वस्थ हो।

एक दिन मेरा जी बहुत भारी था तो जतिन ने कहा, ‘सुगंधा कल सुबह तुम तैयार हो जाना तो मैं तुम्हें बुआ जी के यहां छोड़ दूंगा और ऑफिस से लौटते समय तुम्हें लेता आऊंगा।’ मैंने कहा, ‘एक बार पापा से पूछ लेते।’ ‘अरे अब इसमें पापा क्या कहेंगे, तुम बुआ जी को फोन करके कह दो कि कल तुम वहां आ रही हो’ जतिन बोले। आगरा जैसे शहर में एक ही तो ले देकर रिश्तेदार थीं जो मेरी बुआ थीं और मुझे बहुत मानती थीं। बेलनगंज के पास ही बुआ रहती थीं और वहीं से कुछ दूरी पर जतिन का ऑफिस था। जाते समय इन्होंने पापा को बताया तो पापा अपने कमरे में थे। मैं पापा का रिएक्शन देख नहीं पाई और जतिन को तो किसी के भाव पढ़ना ही नहीं आता। मैंने भी जाने की खुशी में इस ओर ध्यान नहीं दिया कि पापा को मेरा जाना अच्छा नहीं लग रहा है या शायद दिन भर की चाकरी करने वाली एक परिचारिका, जो दिन भर पापा खाना तैयार है! पापा चाय पी लीजिए! की आवाज लगाती रहती थी, उसका जाना अच्छा नहीं लग रहा था। शाम होते-होते हम लौट आए थे। आते ही मैंने गैस पर चाय चढ़ा दी और जतिन से कहा कि पापा को चाय दे दें। फिर बुआ ने रात के लिए जो खाना बनाकर रखा था, वो डोंगों में पलट कर रख दिया।

जब कपड़े बदल कर आई तो देखा पापा अखबार पढ़ रहे हैं और चाय वैसी की वैसी रखी हुई है। मुझे लगा कि पापा ने ध्यान नहीं दिया। ‘पापा चाय ठंडी हो रही है’ मैंने कहा। ‘ये कोई चाय पीने का समय है’ पापा रुखाई से बोले। मुझे थोड़ी शंका हुई कि पापा शायद बुरा मान गए हैं, मेरे जाने का। मैंने जतिन से कहा तो जतिन ने ये कहकर कि तुम कुछ ज्यादा ही सोंचती हो, ऐसा कुछ नहीं है, उनका मन नहीं होगा चाय पीने का। मेरी बात अनसुनी कर दी। जतिन पापा के पास जाकर बैठ गए और उनसे कुछ कुछ बात करने लगे, जिसका कि पापा केवल हूं हां में जवाब देते रहे। जब आठ बज गए तो मैंने जतिन से कहा कि खाना लगा दूं।

जतिन माहौल को थोड़ा हल्का करते हुए बोले की ‘पापा आइए खाना खाते हैं, सुगंधा की बुआ ने आपकी पसंद के भरवां करेले और मटर पनीर की सब्जी बना कर भेजी है और साथ ही खीर भी है। मुझसे तो रुका नहीं जा रहा भई।’ पर पापा ने कोई उत्तर नहीं दिया, न अपनी जगह से टस से मस हुए। इन्होंने जब एक दो बार और कहा तो पापा ने कहा, ‘आज मेरा पेट भारी सा है, कुछ खाने की इच्छा नहीं है। बहू अगर चाहे तो मूंग की दाल की पतली सी खिचड़ी बना दे।’ मैं जो बस सोने के लिए बेड पर जाने की राह देख रही थी, उनकी इस बात से खीझ से भर उठी और मन हुआ कि चिल्ला कर कह दूं कि मैं अब कुछ नहीं बना पाऊंगी लेकिन ये न हो सका और मैंने अपनी सारी थकान को परे करते हुए कूकर में खिचड़ी चढ़ा दी।

जतिन और पापा ने तो खाना खा लिया पर मेरा जी ऐसा उचाट हुआ कि गले से एक निवाला तक नहीं उतरा। डॉक्टर का कहा याद आया पर जब मन दुखी हो जाए तो फिर किसी की नहीं सुनता और रसोई समेट कर माथे पर बाम लगाकर सो गई। सुबह फिर वही सिलसिला शुरू। दिन रात के तनाव से मेरा शरीर अंदर ही अंदर खोखला होता जा रहा था, लाख कोशिश करती पर चाहते हुए भी कुछ भी अनदेखा नहीं कर पा रही थी। न तो मैं जतिन से कुछ कह सकती थी और न पापा से। आखिर एक सुबह पापा ने जब जतिन से कहा कि मेरा रिजर्वेशन करवा देना, गांव में धान लगना है, रोज फोन आ रहे हैं।

पापा ने जैसे ही ये कहा मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। शायद एक आदर्श बहू को ये शोभा नहीं देता होगा लेकिन अब मुझे इस आदर्श बहु के ढकोसले से चिढ़ होने लगी थी। मैं जो इतने दिनों से दो घड़ी चैन की सांस लेने को भी तरस गई थी, रात में सोते समय भी अगले दिन के काम का तनाव मन पर भारी रहता था, जो दिन औरतों के जीवन में तमाम लाड़ लड़वाने वाले होते हैं, उन दिनों को मैं अपने जीवन के सबसे कठिन दिनों के रूप में याद रखूंगी। पांवों में हल्की-हल्की सूजन रहती थी। अंदर से कमजोरी महसूस होती रहती थी पर चाह कर भी मेरे हाथ में कुछ नहीं था।

अगले हफ्ते का टिकट मिला और मैं अपने शरीर को धकेलती हुई समझाती रहती कि बस कुछ दिनों की ही बात है और काम निपटाती रहती। इन दिनों वैसे भी भूख कम लगती, रसोई में उठती तेल की गंध मुझसे बर्दाश्त नहीं होती पर क्या करती। खाना खाया नहीं जाता, किसी तरह दवा खाने के लिए बस थोड़ा बहुत खा लेती। बाहर का खाना घर में आ नहीं सकता था तो अब बस पापा के जाने की राह देखने के सिवा मेरे पास कोई और चारा न था। मैंने सोच लिया था कि पापा के जाने के बाद एक महीने के लिए मथुरा अपने मायके चली जाऊंगी।

आखिरकार वो दिन आ ही गया। पापा को छोड़ने के लिए जतिन स्टेशन जा चुके थे। मैंने राहत की सांस ली और झट से जाके गाउन बदला और बिस्तर पर लेटते ही जाने कब गहरी नींद में सो गई कि जतिन ने डोर बेल बजाई तो वो भी सुनाई नहीं दी। जब जतिन अपनी चाभी से दरवाजा खोलकर अंदर आ गए तो खटर-पटर की आवाज से मेरी आंख खुली। उन्होंने ही बताया कि उन्होंने दो तीन बार घंटी बजाई, मोबाइल पर रिंग किया और फिर भी मैं नहीं उठी। तब वो अपनी चाभी से दरवाजा खोलकर अंदर आए हैं। ‘जतिन मुझे बहुत ठंड लग रही है, कुछ ओढ़ने के लिए दे दो, मैंने कहा। तब जतिन ने मेरा माथा छुआ और बोले कि ‘सुगंधा तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है।’ इन्होंने डॉक्टर को फोन किया तो डॉक्टर ने दवा बताई और कहा कि आप उन्हें कल सुबह आकर दिखा दें। सुबह मुझे बहुत कमजोरी लग रही थी, हल्का-हल्का पेट में दर्द भी हो रहा था। डॉक्टर ने अल्ट्रासाउंड किया और कुछ और चेकअप किए फिर जतिन को अंदर बुलाया।

‘बेटा मैंने आपको समझाया था की आप अंदर से कमजोर हैं, आपको आराम करना है और अपने खाने-पीने का बहुत ध्यान रखना है। आपकी लापरवाही की वजह से आपका मिस्ड अबॉर्शन हो गया है। अभी आपको ऐडमिट होना पड़ेगा और फिर आपका अबॉर्शन करना होगा।’ डॉक्टर अपनी बात कह रही थीं और उनकी बात सुनते हुए मेरी आंखों से इतने दिनों का रुका हुआ आंसुओं का सैलाब भरभरा कर फूट पड़ा था। डॉक्टर को मेरी मनोस्थिति का अंदाजा था, उन्होंने बड़े प्यार और अपनेपन के साथ मुझे समझाया और फिर मेरी देह से मेरे अंश को निकालने के लिए सिस्टर को बुला कर हिदायतें देने लगीं। मुझे ऐडमिट कर लिया गया और सारी जरूरी औपचारिकताओं के बाद फिर डॉक्टर ने मेरा अबॉर्शन कर दिया।

रात में हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होते समय उन्होंने दोबारा मेरा चेकअप किया और जतिन को बुला कर दवा और मेरा खयाल रखने को लेकर जरूरी बातें समझाईं। मैं खाली लुटी पिटी सी घर चली आई। पापा को जब पता चला तो उन्होंने मुझे सांत्वना देने के लिए फोन किया। मैंने मना कर दिया कि मैं अभी बात करने की स्थिति में नहीं हूं। बिस्तर पर लेटे-लेटे ही जतिन से बोली कि ‘जतिन अब तो तुम्हारे पापा खुश होंगे कि मैंने अपनी गोद सूनी कर दी लेकिन तुम्हारे पापा की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी।’ जतिन की आंखों में आंसू थे और वे मुझसे नजर नहीं मिला पा रहे थे पर इससे क्या हासिल होगा अब। देह और मन के स्तर पर जो कष्ट मिला था, उसकी भरपाई अब किसी भी तरह सम्भव न थी। मैंने उदास स्वर में जतिन से कहा कि जतिन कुछ दिनों के लिए मैं अपनी मां के पास जाना चाहती हूं, शायद मां के पास मेरी इस पीड़ा का कोई मलहम हो!