फूल बनाम फूल-गृहलक्ष्मी व्यंग्य
Fool banam Fool-Grehlakshmi Vyangya

गृहलक्ष्मी व्यंग्य-फूल,जी हां मैं फूल हूं,अंग्रेज वाला नहीं हिंदी वाला फूल सुंदर, सुगन्धित और मनमोहक फूल। चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊं… वही वाला फूल। ये बात हुई फूल की अब बात होगी फूल की। जी हां, अंग्रेजी वाले फूल की… दुर्भाग्य वश जो की हम हैं, हम मतलब मिश्रा जी। मिश्रा जी को बचपन से ही प्रकति से बहुत लगाव था। ऑफ सीजन की तरह एक के साथ एक मुफ्त वाली स्थिति थी। साथ में एक चीज़ और भी मुफ्त में मिल गई वो थी आत्मविश्वास।

आत्मविश्वास तक तो बात ठीक थी पर अति तो हर चीज की बुरी होती है। ननकू मिश्रा जी को भी इस बात का आत्मविश्वास हो गया की हम कहीं भी किसी भी तरह पेड़ उगाने में सक्षम हैं। अचानक से घर से चिल्लर, माता जी की सब्जी वाले से बचे छुट्टे, पिता जी के गुटके और खैनी के लिए रखी रेजगारी गायब होने लगी। प्रधान मंत्री जी आत्मनिर्भर का झंडा तो आज फहरा रहे पर हमारे मिश्रा जी तो निक्कर में ही फहरा दिए थे। जीवन का लक्ष्य उन्होंने तभी तय कर लिया था, इस उम्र में जब साथी मित्र डॉक्टर, इंजीिनयर बनने के सपने देख रहे थे। ननकू मिश्रा नई ईजाद करने की सोच रहे थे। ननकू जी ने पूरी तैयारी के साथ जमीन में सिक्के बो दिए। माता जी के मुंह से सुना था पेड़ों को भी भोजन की जरूरत होती है। ननकू मिश्रा जी ने हिम्मत न हारी और पास – पड़ोस से गोबर की खाद, नीम की खली, यूरिया और कीटनाशक का भी इंतजाम कर लिया। भई पेड़ों को भगवान भरोसे तो नहीं छोड़ सकते थे न… आखिर वो पेड़ उनका भविष्य तय करने वाले थे। उन्होंने सपनों में बड़ा सा बंगला, लम्बी वाली गाड़ी और ब्रांडेड कपड़े तक देख डाले थे। उन दिनों कितने मधुर सपने आते थे उन्हें, सिक्कों की खनखनाहट उन्हें नींद में सुनाई देने लगी थी। उन्होंने तो उस पेड़ से उगने वाले फूल मेरा मतलब सिक्कों से लोगों को लोन देने की भी सोच ली थी। खैर बचपन तो बचपन ही होता है, उनके सपने बचपन का ह्रश्व यार कहीं भूल नहीं जाना टाइप नहीं निकले पर उनका स्वरूप जरूर बदल गया। वो फूल टाइम माली और बाकी बचे हुए टाइम में नौकरी भी कर लेते थे। मेरा मतलब पेन और कागज से ज्यादा उनके हाथों में खुर्पी, कुदाल, रोज कटर और कैंची ही नजर आते थे। भाईगिरी तो सुनी थी पर मिश्रा जी के प्रताप से मालगिरि शब्द भी सुन लिया था, पर मिश्राइन का गुस्सा हमेशा सातवें आसमान पर रहता, वो भी बेचारी क्या करती घर में सामान से ज्यादा गमलें थे। आखिर मिश्राइन ने मिश्रा जी के कर्मों से परेशान होकर उनसे कसम ले ली कि आज के बाद घर में गमलें नहीं आएंगे। अब मिश्रा जी अजीब धर्म संकट में… ये ससुरी कसम दिखती तो कहीं नहीं है पर मिश्राइन हर बत पर खिला देती हैं। अब कल ही की तो बात है मिश्राइन ने दीपावली की पुताई में बची पेंट की बाल्टी को घर में पोछा लगाने के लिए निकाला ही था कि मिश्रा जी की बांछें खिल गई, आंखें चार सौ चालीस वोल्ट सी चमक ने लगी। ‘कितने दिनों से इसी आकार का गमला ढूंढ रहा था पर, बहुत अच्छा किया तुमने ये बाल्टी निकाल कर। मेरा बरगद का पौधा लावारिस की तरह इधर से उधर पड़ा था। चलो उसे अब ठिकाना मिल जाएगा। ‘मिश्राइन जब तक इस सदमें से संभलती तब तक तो मिश्रा जी बाल्टी के पानी को जमीन पर पलट नौ -दो ग्यारह हो गए। मिश्राइन का पोंछा अब लावारिस पड़ा अपने भाग्य को कोस रहा था। और मिश्रा जी अपने भाग्य को सोच – सोच खुश हो रहे थे, पर वह पौधा अपने आपको अकेला महसूस न करें तो उसका संगी – साथी लाना भी जरूरी था। मिश्रा जी ने आव देखा न ताव और आनन – फानन में अपनी कार उठाई और चल पड़े शहर के बीचों – बीच नर्सरी की तरफ…मिश्रा जी की तरफ एक गुलाब ने ललचाई हुई नजरों से दखा मानो पहली बार िकसी कनया को देखा हो, पहली नजर का ह्रश्वयार होता ही ऐसा है। दुिनया हमेशा से प्यार की दुश्मन रही है। नर्सरी के मालिक ने एक सौ सत्तर रुपये दाम बताये, मिश्रा जी हत्थे से उखड़ गए। ‘अरे भाई! शहर में नया समझा है क्या…नर्सरी वाले ने ऊपर से नीचे तक देखा, ‘ ठीक है, ठीक है एक सौ साठ दे दो पर इससे नीचे एक रुपये भी कम नहीं। मिश्रा जी हाथ में गुलाब के पेड़ को छोड़ना नहीं चाहते, ‘ धीरे – धीरे प्यार को बढ़ाना है हद से गुजर जाना है गाने की पंक्तिया कानों में बड़े ही पंचम स्वर में बज रही थी। आखिर मिश्रा जी कमसिन गुलाब के उस पेड़ को लेही आए, पर मिश्राइन की आंखें उन्हें हिकारत भरी निगाहों से देख रही थी। ‘कितने में लुट कर आए ?मिश्राइन के शब्दों को सुन मिश्रा जी आसमान से जमीन पर आगए। मिश्रा जी खड़े -खड़े यही सोच रहे थे। उस फूल वाले के यहां से अगली बार कोई भी पेड़ नहीं लेंगे, बगल वाले गुप्ता जी बता रहे थे बहुत लूटता है खासकर कार से आने वाले लोगों को तो अलग से। मिश्रा जी ने उसका भी रास्ता ढूंढ लिया।

उस लाल सुर्ख गुलाब के बगल में एक पीले रंग की लाजवंती सी केसरिया रंग के गुलाब ने भी उनका मन मोह लिया अपनी – अपनी पतली मरियल सी टांगों में धारी दार अलीगढ़ी पायजामा चढ़ा, हवाई चह्रश्वपल पहने ही निकल पड़े। पर नर्सरी वाले ने उन्हें ऐसा धोया इतना तो कोई नामी डिटर्जेंट पाउडर भी धो नहीं पाता होगा। ‘चले आते हैं न जाने कहां – कहां से। मिश्रा जी के कानों में अब एक ही गाना गूंज रहा था, ‘बड़े बेआरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।

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