मॉल-कल्चर में मल्टीसिनेप्लेक्स- कल्चर और पॉपकार्न भी समाए होते हैं। पॉपकार्न वैसे देखा जाए तो हमारी देशी संस्कृति मक्का की फुली का ही अंग्रेजी संस्करण है, जो कि मेड बाई भट्टी के स्थान पर मेड बाई मशीन बन गया है। जिस पर अत्यधिक कीमत वाला पॉपकार्न-कल्चर का स्टीकर चिपका दिया जाता है।
मक्का की फुली गरीब आदमी की खाद्य सामग्री है, जिसे भूख लगने पर ही खाया जाता है। मैं भी ऐसा ही करता हूं, क्योंकि भई! मैं ठहरा एक आम आदमी… साढ़े बीसवीं सदी में जन्मा, धोबी के कुत्ते की तरह, न मोबाइल के जमाने का और न ही कम्पयूटर के युग का।
विदेशों से आयातित कम्पयूटरों के माउसों (चूहों) ने मेरी सभी डिग्रियों को बुरी तरह से कुतरकर नष्ट कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मुझे पढ़ा-लिखा अनपढ बना दिया है, क्योंकि अब मुझे काले अक्षर भैंस के स्थान पर काले-पीले-सफेद छोटे चूहों के बराबर दिखते हैं, पर अब मैं न तो अपनी हथेली से कम्पयूटरों माउस को पकड़ और न ही लेपटॉप पर उंगलियों से डिस्को कर पाता हूं।
विभिन्न कल्चरों के कारण विलुप्त होती हमारी संस्कृति से दुखी मन से मेरा यह मानना है कि कलयुग में कल यानि मशीनें और उससे निकलने वाले प्रदूषण- कचरे, के मिलन से कल्चर की उत्पत्ति हुई होगी।
मॉल-कल्चर, यानि कि माल अर्थात अनेक प्रकार की खाद्य-अखाद्य सामग्रियों… अच्छी बुरी… नैतिक-अनैतिक गतिविधियों से लदा बाजार, जहां पर जाने के लिए आपकी जेबें, पर्स या फिर डेबिट-क्रेडिट कार्डों से भरा होना चाहिए। तभी आप जी भरकर… झोला को भरकर खरीद कर सकते हैं। साथ ही पुराना टेंशन मॉल में रहने तक दूर कर सकते हैं। जैसे ही आप मॉल से बाहर निकलेंगे नए टेंशन स्वत: आ जाएंगे।
मल्टी-सिनेप्लेक्स यानि एक ही स्थान पर बहुत सारे सिनेमाघर जहां आप वन वीक लाइफ वाली मूवी देख, शान से बता सकते हैं कि हम भी महंगे टिकट खरीदकर मूवीजों देखने की औकात एवं हिम्मत रखते हैं।
इस रचना की प्रेरणा देने वाला मौका मुझे पहली बार तब मिला, जब मैं अपनी दस वर्षीय नातिन को एक विश्व प्रसिद्ध बाल फीचर-फिल्म दिखाने के लिए ले गया।
मल्टीप्लेक्स में चूंकि दोपहर सबसे कम कीमत होती है, इसलिए मैं अपनी नातिन को दोपहर का शो ही दिखाने ले गया। दो टिकट के लिए मैंने दो सौ रुपये टिकट वाले को दिए। जब दो रुपये वापस मांगे तो टिकट वाले ने पॉपकार्न खाते हुए मुझे घूरते हुए तुच्छ दृष्टि से देखा, फिर दो रुपये के स्थान पर मुझे चार पॉपकार्न देते हुए बोला, ये लो इंपोर्टेड चार पॉपकार्न, एक रुपया का एक पड़ता है। चूंकि मॉल में एक के साथ एक फ्री का ऑफर चलता है, इसलिए मैं भी एक के साथ एक पॉपकार्न फ्री दे रहा हूं, क्योंकि नहीं लगता कि तुम यहां खरीदकर खा पाओगे।
मैंने सोचा यह टिकट वाला पिछले जन्म में जरूर ही परचुरी वाला चिल्लरमार रहा होगा। तभी तो यहां भी वैसी ही हरकतें कर रहा है। खैर, साब मल्टीप्लेक्स-कल्चर के नाम पर मैंने वो चार पॉपकार्न अपनी जेब में सुरक्षित रख लिए। फिल्म के मध्यांतर में जब मेरी नातिन ने मुझसे पॉपकार्न और कोक लाने को कहा। जब मैंने मूल्य सूची देखी, विशेषकर पॉपकार्न की, तो मेेरे होश उड़ते-उड़ते रह गए। ठेले पर पांच-दस रुपये में मिलने वाली मक्का की फुली यहां अस्सी रुपये की थी। ‘पॉपकार्न विथ कोक का काम्बो पैक एक सौ तीस रुपये का था।
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इतना महंगा ‘पॉपकार्न विथ कोक खरीदूं अथवा नहीं? तभी मेरे दिमाग में मितव्यता सूचक एक आइडिया आया। मैं तुरंत मॉल से बाहर निकला और सड़क पर एक ठेले वाले से दस-दस रुपये में दो बड़े-बड़े मक्का की फुली के पैकेट खरीद लिए, दो पाउच फ्रूटी भी। सिनेप्लेक्स के गेट पर सुरक्षा कॢमयों ने मुझे खाद्य-सामग्रियों के साथ अंदर जाने से मना कर दिया। ‘मैं ये चीजें अपनी नातिन के लिए लाया हूं, जो कि हॉल में अकेली बैठी है। देर होने से वो घबरा रही होगी… मुझे जल्दी उसके पास जाने दो। मैं गिड़गिड़ाया…।
‘आप ये सभी चीजें उस काउंटर पर जमा कर दीजिए। शो समाप्त होने पर आपको सही-सलामत वापस मिल जाएंगी। एक सुरक्षा कर्मी बोला। अंतत: मुझे वैसा ही करना पड़ा। मैंने जल्दी से वहां से ‘पॉपकार्न विथ कोक का कॉम्बो पैक खरीदा और अपनी नातिन को देते हुए उसके पास जाकर बैठ गया।
मेरा मन अब शेष फिल्म को देखने में बिल्कुल नहीं लग रहा था, क्योंकि मेरे मन में पॉपकार्न-कल्चर विरोधी प्रश्न मंडरा रहे थे। जैसे- ऐसा क्यों होता है कि छोटे-बड़े दुकानदारों द्वारा छपी हुई कीमतें अथवा प्रचलित बाजार मूल्यों से दो-चार रुपये भी अधिक लेने पर हम-आप दुकानदारों से लडऩे-झगडऩे लगते हैं? उसे उपभोक्ता फोरम में जाने की धमकियां देने लगते हैं। क्यों, खाद्य-विभाग अथवा मूल्य-नियंत्रण विभाग के कर्मचारी यहां अपनी आंखें बंद कर लेते हैं? इसी बीच फिल्म समाप्त हो गई। मैंने पॉपकार्न का खाली पैकेट अपने पास सुरक्षित रखा और बड़बड़ाया, ‘ धन्य हो पॉपकार्न-कल्चर!
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