एक दिन-21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां पंजाब: Ek Din Story
Ek Din

Ek Din Story: ऑफिस में बैठे हुए मैं सामने टेबल पर पड़े पेपरवेट को कितने ही देर से यूं ही घुमा रहा था। दीवार पर लटकी घड़ी की टिक-टिक और पंखे की हवा से हिलता पंजाब सरकार का कलैंडर मेरी वृत्ति में दखल दे रहे थे। तीन-चार आवश्यक काम निपटाने थे। मेरा स्टैनो दो बार मेरे कमरे में आकर, बातों-बातों में मुझे काम के बारे में सूचित कर गया था। लेकिन मैंने उसकी प्रत्येक बात का जवाब केवल हूं-हां में ही दिया था। मेरा ध्यान कहीं ओर देख कर, वह अधिक देर तक मेरे पास बैठा नहीं।

मेरी पैंट की दायीं जेब में आशू के खत की इबारत बार-बार मेरी आंखों के सामने घूम रही थी। आज ऑफिस आते समय आशू ने कागज का पुर्जा मुझे थमाया था। उसके साथ ही सामान की एक छोटी-मोटी सी सूची भी थी। सामान की सूची पर सरसरी-सी निगाह डाल कर, मैंने तहाए हुए कागज की ओर देख कर, आशू की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा।

“जन्मदिन के तोहफे के बारे में…।” आशू ने हौले से मुस्कुरा कर कहा था।

मैं मन ही मन मस्कराया। आज उसका जन्मदिन था। बर्थडे विश मैंने सुबह उठते ही कर दिया था और उसके लिए तोहफा भी मैंने कल ही खरीद लिया था। पहले भी वह कई बार इसी तरह करती थी। जब भी उसे कोई खास चाहिए होता तो वह उसे एक छोटे से कागज पर लिख कर मुझे थमा देती और मैं ला देता था। यह हम दोनों के प्यार और मजाक का अंदाज था। लेकिन यह सब बहुत पहले की बातें थी।

लेकिन आज आशू की अनोखी मांग ने मुझे परेशान कर दिया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरी भोली-भाली पत्नी के मन में आखिर चल क्या रहा था? इस बात का मुझे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। मैं कारण जानने के लिए अपनी ब्याहता जिन्दगी के पन्ने पलटने लगा।

बी. ए. फाइनल में पढ़ते हुए ही आशू की शादी मुझसे हो गई थी। भोली-भाली गुड़िया-सी वह अत्याधिक प्यारी लगती थी। आंगन में चलते हुए उसकी पाजेब की झंकार मुझे बहुत अच्छी लगती।

“हनीमून के लिए कहां जाना है फिर?” विवाह के चार-पांच दिन के बाद मैंने आशू को बांहों में भरते हुए पूछा।

“नैनीताल।” उसने शर्माते हुए कहा।

“अरे छोड़ो नैनीताल, हम मनाली चलेंगे, बहुत ही बढ़िया जगह है।” मैंने खुशी के रौं में कहा। ‘नैनीताल तो मैं पहले भी कई बार जा चुका हूं।’ मैंने सोचा।

“जैसी आपकी मर्जी।” आशू ने बुझे स्वर में कहा। मनाली में हमने बहुत इन्जॉय किया। छः दिन कैसे बीत गए, पता ना चला। आशू चहकती हुई, खुश नजर आ रही थी। लौटने से एक दिन पहले मुझसे लिपटते हुए वह बोली, “अगली बार जब कभी घूमने का प्रोग्राम बनाएं तो नैनीताल का बनाइएगा।”

मैंने मुस्कुरा कर उसे बांहों में समेटते हुए हां कहा। लेकिन व्यस्ताओं के चलते फिर कभी नैनीताल जाने का संयोग बना ही नहीं।

हनीमून से लौटते ही वह सारे घर की चहेती बन गई। उसका हंसमुख स्वभाव सभी को भा गया। बीजी-बाऊ जी की सेवा करते हुए और निक्की के साथ रसोई में कई प्रकार के पकवान बनाते हुए वह अच्छी बहू होने के कर्तव्य निभा रही थी।

“मैं अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती हूं।’ मेरे साथ बेड पर लेटते हुए आशू ने एक दिन अनुमति मांगने के अंदाज में मुझसे पूछा।

“अरे छोड़ो, अब क्या करना है पढ़ कर। विवाह हो गया, अच्छा घरबार मिल गया। किसी चीज की कमी है तुम्हें?” मैंने हुक्म सुनाने के अंदाज में कहा।

वह बिना कोई जवाब दिए, मुंह लटका कर मेरे पास से उठ कर रसोई में जा घुसी।

फिर कभी आशू ने पढ़ाई का नाम ना लिया। आगे-पीछे नन्हें मेहमान बन कर आए आस्था और मन्नू से हमारा घर चहकने लगा। आशू की जिम्मेवारियां बढ़ गई। उन जिम्मेवारियों में उसका अपना चहचहाना कहीं खो गया। परन्तु ये सब तो रूटीन की बातें हैं। सभी औरतों की जिन्दगी की रूटीन लगभग एक-सी ही होती है। फिर मैं भला यह सब क्यों सोच रहा था। मैंने सिर को झटका दिया।

दिमाग था कि बार-बार उसी बात पर आ टिकता था। सोच वहीं जा कर ठहर जाती थी। मैं अपने बारे में सोचने लगा। ऑफिस के काम का बहाना बना कर मैं घर से दो-चार दिन बाहर लगा आता था और मौका लगने पर थोड़ी बहुत ‘मस्ती’ भी कर लेता था। आखिर सरकारी अधिकारी था। परन्तु आशू को कभी किसी किस्म का शक नहीं होने देता था। हां, मेरे घर लौटने पर वह एक-दो दिन मुझसे घुटी-सी रहती मगर कुछ कहती नहीं थी, कुछ भी नहीं। फिर खुद-ब-खुद नॉर्मल हो जाती। अधिक गुस्सा होकर वह जाती भी कहां, मेरे जैसा सरकारी अफसर उसे कहां मिल सकता था।

उसके ऐसा सोचने के लिए ये सारे कारण बहुत छोटे-छोटे और अधूरे थे। मेरा ध्यान एक बार फिर से आशू के खत की ओर गया। आखिर मेरी पत्नी ऐसा क्यों सोच रही है? मैंने खुद से पूछा।

आशू को कहीं जाना होता तो मैं स्वयं उसे लेकर जाता। रिश्तेदारी में या मायके में, भले किसी सहेली के घर ही क्यों ना जाना हो, मैं हमेशा खुद उसे लेकर जाता था। मेरे इस व्यवहार से वह कई बार झुंझला भी जाती थी परन्तु प्रत्यक्ष तौर पर कुछ नहीं कहती थी।

मैं उसके लिए घर में बैठे ही सारा सामान खरीद कर लाता था। कपड़े, गहने, यहां तक कि मेकअप का सामान भी मैं ही ला कर देता था। मुझे बढ़िया और ब्राडेंड वस्तुएं पसंद थीं। पैसे की मुझे कोई परवाह नहीं थी। एक-दो बार उसने मेरे द्वारा लाई चीजों को दबे स्वर में नापसंद भी किया मगर धीरे-धीरे मेरी ऊंची पसंद ही उसकी पसंद बन गई।

मैं उसके लिए इतना कुछ करता हूं, फिर भी पता नहीं, क्यों उसके दिमाग में क्या चल रहा है?

हां, आशू को सिनेमा देखने का बहुत शौक था। जबकि मुझे यह दुनिया का सबसे बोरिंग काम लगता था। तीन घंटे सिनेमा हॉल में बैठना मेरे लिए ‘हेल’ समान था। जबकि आशू का मानना था कि हॉल में बैठ कर ही फिल्म देखने का असल मजा आता है। शुरू-शुरू में मैं एक-दो बार उसके साथ सिनेमा गया भी, मगर अनमने भाव से। फिर मैंने उसे डी.वी.डी. ला दिया। लेकिन आशू ने डी.वी.डी. पर कभी कोई फिल्म नहीं देखी थी। उसने फिर कभी भी सिनेमा जाने के बारे में नहीं कहा था।

एक बात से मैंने उसे अवश्य मना किया था। मुझे उसे गली व पडोस की औरतों में बैठ कर गप्पें मारना बिलकुल पसंद नहीं था। ये औरतें बिना मतलब ही एक-दूसरे के मन में तरह-तरह के फितूर भरती हैं। साथ में घर में बीजी-बाऊजी थे, निक्की और छोटे बच्चे भी थे। इतना वक्त कहां था, कि कोई गली व पड़ोस में बैठ कर गप्पें मार सके।

परन्तु ये सभी बहुत ही छोटी-छोटी बातें थीं। इन बातों के कारण कोई ऐसे कैसे सोच सकता है भला।

मैं वक्त-बेवक्त उसे सच-झूठ से इस बात का यकीन दिलाने की कोशिश भी करता था कि मैं उससे बहुत प्रेम करता हूं। वह भोलेपन से इस बात का यकीन भी करती है। उसने कभी पलट कर मुझे जवाब नहीं दिया। एकदम मेरे कहे अनुसार चलती है, मजाल कहीं भी कुछ जिद करे। अब पता नहीं ये उसे क्या सूझा है?

“तो क्या आश की जिन्दगी में कोई और भी है।” मेरे मन में एकदम से आए ख्याल ने मुझे अंदर तक कंपा दिया। नहीं, नहीं, मेरी बीवी ऐसा नहीं कर सकती। वह तो किसी अन्य मर्द के बारे में सोच भी नहीं सकती। वह तो अत्यन्त प्यारी और भोली स्त्री है।

दूसरे ही पल मैं सोचता, आशू भी मेरे बारे में ऐसा ही सोचती होगी। उसे क्या मालूम, मैं बाहर क्या-क्या करता हूं?

“लेकिन वह ऐसा करेगी ही क्यों? क्या वह मुझसे संतुष्ट नहीं थी?” मैंने खुद से सवाल किया।

मैं ऐसे ही आशू और अपने निजी पलों के बारे में सोचने लगा। ‘नहीं, उसके किसी हाव-भाव से कभी ऐसा प्रकट नहीं हुआ कि उसे मुझसे कोई शिकायत रही हो।’ मेरे मन ने सहमति दी।

उसने कभी कुछ भी नहीं कहा था। हमेशा मेरी जरूरत अनुसार ही खुद को समर्पित कर देती थी। वैसे मैंने कभी उसे पूछने की आवश्यकता भी नहीं समझी थी। औरतों से ऐसी बातें पूछ कर उन्हें सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए। सब कुछ ठीक-ठाक ही तो चल ही रहा था।

दिमाग पर थोड़ा अधिक जोर दिया, मुझे कमल इन्द्र का ख्याल पता नहीं कहां से आ गया। विवाह से पहले आशू, कमल इन्द्र से सितार सीखने जाती थी। मंगनी होते ही मैंने उनके घर संदेश भिजवा दिया था कि मुझे यह गाने-बजाने पसंद नहीं। यह बंद करवा दो। विवाह के बाद एकाधी बार कमल इन्द्र का नाम आशू की जुबान पर आया तो उसके चेहरे पर आया नूर देख कर मुझे चिढ़ हुई थी। मेरी मनोस्थिति को उसने भांप लिया था। फिर कभी उसने कमल इन्द्र का नाम तो क्या. सितार, हारमोनियम, तबले तक का भी नाम नहीं लिया था।

परन्तु यह सब बातें तो अब बहुत पीछे छूट गई थीं। जिनका कोई महत्त्व नहीं रह गया था। जिन्दगी अच्छी-भली चल रही थी। मैंने सिर को हल्का-सा झटका दिया।

मेरा सिर भारी होने लगा। ऑफिस में पड़ी सरकारी चीजों पर एक सरसरी-सी निगाह मार कर अपना ध्यान बंटाने की नाकाम-सी कोशिश की। परन्तु सुरति वहीं पहुंच जाती। मैं आशू के पिछले कुछ समय के बहेव्यिर के बारे में सोचने लगा। उसके बारे में अचानक कोई बड़ी तब्दीली नहीं आई थी। परन्तु हां, छोटी-छोटी बातें मैंने जरूर देखी थीं। परन्तु वे बातें ज्यादा नोट करने वाली मुझे ना लगीं। जैसे शुरू-शुरू में उसे गहने पहनने का बहुत शौक था परन्तु धीरे-धीरे उसने गहने उतार कर लॉकर में रखवा दिए। मुझे उसकी पैरों में डाली पाजेब की आवाज अच्छी लगती थी परन्तु उसने वह भी उतार कर रख दी और फिर कभी नहीं पहनी।

पहले-पहल वह कई प्रकार के व्रत इत्यादि रखती थी। परन्तु धीरे-धीरे उसने वह सब कुछ करना छोड़ दिया। बीजी ने थोड़ा बहुत एतराज किया। मुझे भी उसका ऐसा करना अधिक अच्छा नहीं लगा। मुझे उसका सुबह-सवेरे उठ कर पूजा-पाठ करना अच्छा लगता था। पूजा-पाठ वह अभी भी करती भी परन्तु अपनी मर्जी से। अधिक बातें वह नहीं करती थी। घर के सारे रूटीन कार्य वह अवश्य करती थी। बीजी-बाऊजी का ख्याल रखती, बच्चों को होमवर्क करवाती। आए-गए की आवभगत करती। फिर भी आशू का इस प्रकार सोचना मेरी समझ से परे था।

“सर चाय।” सेवक राम ने तश्तरी में रखा चाय का कप मेरे सामने लाकर रखा तो मैं अपने आप लौटा।

एक बार फिर से आशू का खत निकाल कर पढ़ना शुरू किया। खत पढ़ कर मैं फिर से बेचैन हो गया।

अगर एक मिनट के लिए मैं आशू की इस फरमाईश को मान भी लूं तो वह ऐसा क्यों कह रही है कि मैं उससे इस बाबत उम्र भर कछ ना पूछं। इस बात का तो ख्याल ही बहुत तकलीफदेह था। यह सारी बात सारी उम्र मेरे सीने में नश्तर बन कर चभी रहेगी। दीवार घडी ने टन-टन करके पांच बजने का एहसास करवाया। सामने टेबल पर पडी चाय कब की ठंडी हो चुकी थी।

ऑफिस से छुट्टी करके अनमने भाव से मैंने कार को बाजार की ओर घुमा लिया। छोटा-मोटा सामान खरीद कर मैं सोच में डूबे ही घर पहुंचा।

गेट आशू ने ही खोला। अक्सर गेट बाऊ जी खोलते थे, तब मुझे अचानक याद आया कि बीजी-बाऊ जी तो कल अंबाला वाले चाचा जी के पास गए थे। आशू मेरा ब्रीफकेस और अन्य सामान पकड़ कर अंदर चली गई। मैं लॉबी में पड़े सोफे पर बैठ कर टाई की नॉट ढीली कर, रिलैक्स-सा होने लगा। आशू पानी लेकर आई तो उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट देखकर, मैंने भी जबर्दस्ती मुस्कुराने की कोशिश की।

“बच्चे कहां गए?”

“निक्की के साथ पार्क गए हैं।” वह मेरे साथ सोफे पर ही बैठ गई और मेरे कंधे से लग कर कुछ गुनगुनाने लगी। मैं पता नहीं क्यों उससे नजरें चुराने की कोशिश करने लगा।

‘मेरा गिफ्ट’ आशू ने लाड़ से पूछा। मैं उठ कर कमरे में गया और ब्रीफकेस से एक खूबसूरत डिबिया निकाल लाया। डिबिया खोल कर उसमें से लाल रंग का एक तह किया हुआ कागज निकाल कर, मैंने अपनी हथेली पर रख कर आशू के आगे किया।

“ऊं हूं, मेरे खत वाला गिफ्ट।” आशू ने लाल कागज को मेरी मुट्ठी में दबाते हुए कहा। एक पल के लिए मैं सकपका गया। परन्तु जल्दी ही मैंने खुद को संभाल लिया।

“अरे पागल मत बनो। आखिर यह कैसी मांग है तुम्हारी। ऐसा भी होता है कहीं?” मैंने उसे अपने साथ लिपटाते हुए कहा। यह ढाई शब्द बोलने के लिए मुझे अपनी सारी शक्ति का इस्तेमाल करना पड़ा।

“मैं सचमुच पागल ही तो हूं जो आप से ऐसे तोहफे की उम्मीद कर बैठी।” आशू के मुंह से ये शब्द केवल निकले नहीं थे, बल्कि उसके चेहरे पर उभरे नजर आ रहे थे। वह चेहरे पर मुस्कान लपेटे, मेरी ओर देख रही थी. चुपचाप। मेरा जी चाह रहा था कि वह कुछ बोले, कोई चुभती बात करे और मैं ऊंची आवाज में बोल कर अपना गुबार निकाल, हल्का हो जाऊं। परन्तु वह कुछ भी न बोली। मुझे उसकी चुप से खीझ होने लगी परन्तु मैंने जाहिर नहीं किया।

मैंने फिर से मुट्ठी खोल कर लाल रंग का कागज खोल कर आशू के सामने किया। एक बहत प्यारी छोटी-सी सोने की नथनी में हीरा चमक रहा था। वह मेरी हथेली पर चमक रही थी।

“कैसी लगी?” मैंने शब्दों पर प्यार की चाशनी चढ़ा कर पूछा।

“बहुत सुन्दर है।” आशू ने सहजता से कहा।

“पहन कर दिखाओ ना।”

“नहीं पहनूंगी नहीं।”

“क्यों?”

“आपने शायद लंबे समय से मेरी ओर गौर से देखा ही नहीं। मैंने बहुत पहले से अपनी नाक की कील भी उतार दी है। अब तो बहुत समय से मेरी नाक का छेद भी बंद हो गया है।”

“वैसे इस खूबसूरत तोहफे के लिए शुक्रिया।” नथ को लाल कागज में लपेट कर डिबिया को बंद करके मेरे हाथों में थमा कर आशू उठ खड़ी हुई।

“आप इसे भी संभाल कर लॉकर में रख दें बाकी गहनों के साथ।” मैं चाय बना कर लाती हूं।

आशू की मुस्कुराहट के पीछे छिपी दृढ़ता देखकर, मैं फिर से बेचैन हो गया। आशू सधे कदमों से रसोई में चली गई। उसके जाने के बाद मैंने जेब में रखे उस खत को दुबारा से पढ़ना शुरू किया।

“आज अपने जन्मदिन के तोहफे के तौर पर मैं आपसे कुछ मांगने जा रही हूं। मेरी इस मांग को आप पता नहीं कैसे लेंगे। मैं आपसे केवल एक ऐसे दिन की मांग करती हूं, जिस दिन मैं ना आपकी पत्नी हूं, ना किसी की मां, ना बेटी ना बहू और ना ही कुछ और। उस दिन मैं केवल मैं हूं। केवल मैं…आशू…। वह सारा दिन मैं कहां, किसके साथ और कैसे गुजारूं, इसके बारे में आप मुझसे सारी उम्र कभी नहीं पूछेगे। कभी भी नहीं।”

‘हूं…।’ मेरे भीतर बैठे पति ने हुंकार भरी। परन्तु अपनी खोखली हूं से मुझे खुद ही हंसी आ गई। मैंने खत को मुट्ठी में दबा कर धीरे-धीरे मसलना शुरू कर दिया।

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