Grehlakshmi ki Kahani: आसान है क्या दोहरी ज़िंदगी जीना। अपनी पिछली ज़िंदगी भुलाकर कहीं और रम जाना। कम से कम इंसान के लिए तो नहीं मगर किसी को कहां पता चलता है कि दूसरे पर क्या बीती है। लोगों का क्या है वो तो कुछ भी कहेंगे जैसे उस रोज बातों ही बातों में रमणी ने कह दिया था।
“कुछ भी कहो यार! तुम्हारा ही अच्छा है। तुमने दोनो दुनिया के मज़े ले लिए!”
“दोनो दुनिया के मजे लिए से क्या मतलब है तुम्हारा..…?”
माया का गला अवरुद्ध था फिर भी उसने रमणी से पूछ ही लिया। जरूरी होता है उसी वक्त पूछना जिस वक्त किसी की सोच आपकी सोच से टकराती है।
“मैं सचमुच नहीं समझी..आखिर कहना क्या चाहती हो तुम?”
उसे चुप देख माया ने फिर से पूछा तो इस सीधे सवाल पर रमणी हड़बड़ा गई मगर रुंधे गले का आग्रह ठुकरा न सकी।
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“तुमने प्रेम की कोमल दुनिया और अरेंज मैरिज ,दोनो तरह के जीवन का आनंद लिया ..!”
“छी: तुम ऐसा सोचती हो …तो मेरी सुनो.…न खुदा ही मिला न मिसाले सनम न इधर के रहे न उधर के रहे….”
“मैं कुछ समझी नहीं!” अब चौंकने की बारी उसकी थी।
“जाने दो! तुम समझोगी भी नहीं!”
यह कहकर फोन रख दिया। रमणी माया की क्लासमेट थी मित्र नहीं क्योंकि दोस्त होती तो वह माया के दुख से अंजान नहीं होती.. ऐसी दिल दुखाने वाली बातें नहीं बोलती। खैर इन बातों से अब क्या फ़र्क पड़ता है। जिसने छोटी सी उम्र में सब कुछ पाकर खोया हो उसको न तो कुछ खोने का गम सताता है और न ही कुछ पाने पर मन बौराता है। हां! वह व्यक्ति स्थितप्रज्ञ की अवस्था में पहुंच जाता है।
आजकल वह अपने आप को ब्लैकबोर्ड की तरह देखती है और इस बात का दुख भी होता है। काश यह ब्लैकबोर्ड कोरा होता तो इस पर लिखे अक्षर कितने सुस्पष्ट होते। मगर अफसोस कि इस पर लिखे अक्षर कुछ धुंधला से गए हैं। उन्हें मिटाकर नया कुछ लिखने की कोशिश में सबकुछ अस्पष्ट सा है। पहले का लिखा कभी पूरी तरह मिटता नहीं। यहां- वहां से उभर कर सामने आ ही जाता है। फिर न तो यही समझ में आता है और न वही…तभी मयंक ने आवाज दिया।
“जब देखो फोन में डूबी रहती हो! क्या कुछ भी होश नहीं तुम्हें। दरवाजा खुला है ऐसे में कौन आया.. कौन गया… कौन देखेगा? तुम्हारे भरोसे इस घर गृहस्थी का क्या होगा! “
“घर -गृहस्थी…?”
धीरे से बुदबुदाई। अब उसने ऐसी कौन सी गलती कर दी। घर में ताज़ी हवा के प्रवेश के लिए दरवाजा खोला था। सोसाइटी वाले तो ऐसे भी बिना इजाज़त किसी को अंदर आने ही नहीं देते फिर हवा के सिवा कौन आयेगा। बिना बात तिल का ताड़ बनाने का क्या मतलब है.. सोचने लगी तो बीती रात की बात याद आ गई।
ओह! तो ये सारा गुस्सा रात का है। आज फिर शाम हो गई है। बस थोड़ी ही देर में रात हो जाएगी। हर रोज़ रात इतनी जल्दी क्यों आ जाती है। अब वह इम्तिहान देती थक गई है। आज ये तो कल वो..आखिर कब तक और कितने बहाने बनाएगी।
आखिर वह करे भी तो क्या… सब कुछ अपने वश में थोड़े ही होता है। कई बार नदी के किनारे रहकर भी प्यास नहीं बुझती। जिसने समंदर देखा हो उसके लिए नदी या तालाब किसी समझौते से कम नहीं। यत्नपूर्वक बस रिश्ते ही निभाए जा सकते हैं प्रेम नहीं। प्रेम जबरन नहीं उपजता। यह तो स्वाभाविक सी कोमल प्रक्रिया है जो प्रेम से ही उपजता है और झल्लाहट से मुरझा जाता है। क्या करे..कैसे समझाए मयंक को…सोचती हुई रात घिर आई तो खाना लगा दिया और अपने कमरे में आकर लेट गई।
जी तो यही चाहता है कि वह अकेली रहे। किसी तीर्थ स्थान पर जाकर पूजा पाठ व दान धर्म करे मगर क्या इस तरह वह जीवन से निजात पाएगी। किसी के प्रति निष्ठुरता के इल्ज़ाम से वह स्वयं को दोषी नहीं पाएगी? क्या गंगा मैया की डुबकी उसे मुक्ति दिलाएगी? इन्हीं सवालों में घिरी थी कि आंख लग गई और कुछ देर बाद फ़ोन की घंटी पर नींद खुली। मां का फोन था।
“सब ठीक है बेटा!”
“हां मां!”
“तेरी चिंता लगी रहती है!”
“आधी उम्र तो निकल गई …बाकी भी काट लूंगी..अब कैसी चिंता?”
दोहरी ज़िंदगी जीती माया थक चुकी है। सबको बहला सकती है पर मां से तो सच ही कहना उचित होगा। उनसे बातचीत के क्रम में सहसा सारी बातें याद आ गई। उसके मन में आदित्य था। माया उससे ही विवाह करना चाहती थी मगर उसकी चाहत किसी को मंजूर नहीं थी। उन्हें सजातीय मयंक पसंद था। विवाह से पहले वह कितना रोई और गिड़गिड़ाई थी मगर उस वक्त उसकी किसी ने नहीं सुनी। जब उस वक्त उसके खुशी की फ़िक्र नहीं थी तो अब चिंता करके वह तो बस अपने संबंध सुधार रहीं हैं। शायद उम्र के इस पड़ाव में आकर उन्हें भी माया के दुख का अहसास हुआ है मगर इस अहसास का हासिल क्या है। आखिर यह सब उनकी मर्जी से ही तो हुआ। उन्होंने ही उसे इस खूंटे से बांधा था। उन्हें भी क्या दोष दें। सबसे बड़ी गलती तो उसकी ही है। माता पिता की आज्ञापालन कर महान बनने जो चली थी। उसे भी कहां पता था कि इस तरह वह बस अपनी खुशियां नहीं मार रही है बल्कि स्वयं को गर्त में डुबो रही है।
ऐसा नहीं था कि उसने मयंक से जुड़ने की कोशिश नहीं की। विचारों में काफ़ी अंतर था जिसके कारण उसकी सुनकर भी उसके रंग में रंग न सकी। इस वजह से वह अपनी झल्लाहट निकालता रहा। वह चाहता तो माया का मन जीत भी सकता था मगर उसने अपनी ओर से कभी कोई कोशिश ही नहीं की। आखिर कब तक वह कठपुतली सी मयंक के इशारों पर नाचती। माता पिता की अनबन में बेटा अर्णव भी घर से विमुख हो गया। एक बार हॉस्टल गया तो लौटा ही नहीं। ग्रेजुएशन के बाद वहीं नौकरी करने लगा।
दरअसल कोई भी घर स्नेह से जुड़ता है मगर माया कर्तव्य से जुड़ी है। उसने अपने सभी कर्तव्यों निर्वाह बखूबी किया। जब भी उसके या मयंक के परिवार वाले सामने होते हैं तब वह आदर्श बेटी,बहू होती है और जब कोई नहीं होता तो वह अकेली होती है,बिल्कुल अकेली। खुद में सिमट जाती है। अब तो मयंक को भी इसकी आदत हो गई है। पति पत्नी बनकर जीते हुए दोनो दोहरी ज़िंदगी जी रहे हैं। उसके साथियों को उसका जीवन बहुत हाई क्लास लगता है मगर सच्चाई ये है कि वह अपना जीवन ऐसे जी रही है जैसे कोई कर्ज़ उतार रही हो। कभी मां बाप का तो कभी मयंक का तो कभी किसी साथी के अगाध स्नेह का।