पहली संतान -गृहलक्ष्मी की कहानियां: Child Story
Pahli Santan

Child Story: आज रीमा मां बनी है। इक प्यारी सी बिटिया ने जन्म लिया है। अपनी पहली संतान का मुख निहारती वह तमाम बातों से रुबरू होने लगी। आज उसका अतीत उसके कानों तक आकर उसे झकझोर रहा है। 

“तुम पहली संतान हो! तुमने ऐसा-वैसा कुछ किया तो तुम्हारे छोटे भाई बहन क्या सीखेंगे? तुम्हें हमेशा सही राह पर ही चलना होगा ! ईश्वर ने बड़ा बनाकर भेजा है तो खानदानी मर्यादा का पालन तुम्हारी जिम्मेदारी है।” पिता की आवाज थी।

उनके शब्द कानों में देर तक गूंजते रहे। मन इन बातों को स्वीकार ही नहीं करना चाहता था तो रीमा ने पुरानी डायरी निकाली। जिसमें उसने अपने सिद्धार्थ की चिट्ठियां संभाल कर रखी थीं। उसने भी तो ऐसा ही कुछ लिखा था।

“तुम और सिर्फ तुम ही वो लड़की हो जिस पर दिल हारा हूं। देखो! कुछ ऐसा वैसा न करना की मेरा दिल टूट जाए।पता है न! एक बार दिल टूटे तो दोबारा नहीं जुड़ता।” वह फिर मानसिक अंतर्द्वंद में फंस गई ।

अपनी मर्जी की ज़िंदगी जीना पिता की नजर में ऐसी वैसी हरकत है। अपने पिता की बात मानना सिद्धार्थ की नजर में कुछ ऐसा वैसा कर गुजरना है। सभी प्यार करते हैं मगर उनके प्यार के बदले में कुछ चाहते हैं। पिता मान मर्यादा का पालन तो सिद्धार्थ वफादारी चाहता है। वह किसी से कुछ नहीं चाहती। दोनों की खुशियां चाहती है मगर अफसोस वह दोनो को एक साथ खुश रखने में असमर्थ है। उनके स्नेह ने उसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया था। वहकिंकर्तव्यविमुढ़ थी।

उन दिनों मात्र दस वर्ष की थी जब दो छोटे भाई – बहन खेलते हुए आपस मे लड़ने लगे थे। खेल के मैदान से जब वापस घर आये तो छोटे भाई के पैरों से बहते रक्त को देख उसके होश उड़ गए थे। पापा ने आते ही उसकी डाँट लगाई कि “तुम नहीं देख सकती थी जब वह खेल रहा था। “

“पर मैं पढ़ रही थी पापा!”

“उसके पांव से बहता खून तुम्हें अच्छा लग रहा है?”

“नहीं!” रीमा कांप उठी थी।

“तो सुनो! बड़े होने के कुछ कर्तव्य होते हैं। तुम पढ़ाई लिखाई बाद में करना। छुट्टियों में अपने भाई बहन पर ध्यान दो।”

ये बातें रीमा के लिए नई नहीं थी। उन दिनों माँ अक्सर परेशान रहती थीं। बच्चों का ध्यान रखना, मेहमानों का आना जाना ये सब संभालते हुए उनकी सेहत नासाज़ रहने लगी थी। ऐसे में वह उन्हें कुछ नहीं कहते थे बल्कि परिवार की हर छोटी बड़ी गलती उसके सिर मढ़ दी जातीं। वह बड़ी जो थी।  एक भाई दो साल छोटा तो दूसरा पांच साल छोटा था। कभी -कभी उसे भी यही लगता कि वो बड़ी ही क्यों हुई।  इससे अच्छा होता कि छोटी होती। कम से कम बड़ी बहन माँ समान होती है ये कहकर इस्तेमाल तो न की जाती।

खैर जब थोड़ी और बड़ी हुई तब हॉस्टल भेज दी गयी। साधारणतया बच्चे हॉस्टल जाने से डरते हैं पर वह बहुत खुशी से गयी। वहाँ उसे कम से कम दो बच्चों की माँ बनकर देखभाल जो नहीं करनी थी। बंधनों से मुक्त वह काफी खुश रहने लगी थी। पढ़ाई भी बहुत अच्छी चल रही थी। हमेशा प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण होने वाली जब यूनिवर्सिटी आई तो पहली बार उसका दिल सिद्धार्थ के लिए धड़का।

प्यार हो गया था। जब उसने इस संदर्भ में माता -पिता से बातचीत की और उन बातों का यही अंजाम निकला कि बड़ी होने के नाते उसे अनुशासित रहना है। उसे उसकी मर्ज़ी से जीने की इजाज़त दे दी गई तो सभी प्रेम -विवाह की जिद्द करेंगे। बहुत कठोरता से उसकी चाहत का दमन किया गया। उसने भी उनकी मर्जी से खुद को चारदीवारी में कैद कर लिया। दोनो भाइयों को कोचिंग कराया गया ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें। एक दिन ऐसा भी आया जब उसके दोनो भाई पढ़कर अपने कैरियर से संतुष्ट हो गए थे और वह नींव के ईंट के समान उन्हें आफिस भेजने की तैयारियाँ कर रही थी। शायद कर्तव्य व त्याग की कसौटी पर खरे उतरने के लिए ही उसका जन्म हुआ था जिसे अपने भाग्य का लिखा मान कर रीमा ने सह लिया। जब बचपन से ही किसी ने उसे समझा ही नहीं था तो भला अब क्या समझते। कहीं वह बाग़ी न हो जाये इस बात का ख्याल करते हुए तब तक घर में ही रखा गया जब तक बाक़ियों की ज़िंदगी संभल ना जाये।

फिर उससे निवृत्त होने का समय आया। आखिर उसे कब तक बैठाकर रखते..बेटी का कन्यादान कर ऋण से उऋण होना ही था.. बगैर उसकी पसंद जाने हुए पिता ने शादी तय कर दी और बेटी के आगे यह दिखाया कि गरीब पिता ने अपने सामर्थ्य अनुसार जो कुछ बन पड़ा वह किया है जिसके बदले उनके मान-सम्मान को कायम रखने की जिम्मेदारी भी उसकी ही है।

अब तक सब दोहरी नीतियां देखती सहती रीमा जान चुकी थी कि माँ -बाप का भी स्वार्थ होता है। लड़कों को पढ़ाना है ताकि भविष्य में उनसे लाभान्वित हो सकें। बेटी को उसकी मर्जी से विवाह नहीं करने देते क्योंकि वह अपनी दुनिया मे रम गई तो इससे उन्हें क्या मिलेगा। इसके बजाय उनकी मर्जी से शादी हुई तो दबाव बना रहेगा और बेटी भविष्य में काम आएगी। कभी-कभी तो जान बूझकर बेटी को गरीब घर में ब्याहते हैं जिससे वह कष्ट में माँ-बाप के पास ही भाग कर आये और कृतज्ञ बनी रहे पर कहते हैं ना बेटियाँ अपना भाग्य लेकर आती हैं।

उसका भाग्य भी पलटा। रीमा के पति ने उसे हर तरह की सुख -सुविधा मुहैया कराई। साथ ही रीमा के माता -पिता की भी यथासम्भव सम्मान करता रहा। यह सब देख कर उसके पिता पछताने लगे हैं।

इन दिनों अपराधबोध से ग्रसित हो चले हैं। जिन बच्चों को लाड़-दुलार दिया उन्हें स्वार्थ की आदत हो गई। अधिकाधिक सफलता पाने की ललक में आगे ही बढ़ते जा रहे हैं। वे सभी अपने जीवन मे व्यस्त हैं मगर जिसे जीवन मे हर खुशी क़तरा-क़तरा ही मिली है वही आज भी उनकी सेवा में तत्पर है। अपनी ही दोहरी नीति से व्यथित होकर स्वयं बोल पड़े,

“मैंने तुम्हें बेटी समझा और हर तरह से कर्तव्यों के आड़ में तुम्हें बांधता रहा। तुम सही मायने में अपने कर्तव्य का निर्वाह करती रही और बाकी के लोग बस अधिकार का आनंद लेते रहे। अपने गरीब पिता का आशीष लो और सदा फूलो- फलो!”

जीवन के आखिरी चरण में वह समझ गए कि अभिभावक का स्वार्थपूर्ण रवैया अक्सर उल्टा पड़ जाता है फिर पछतावे के सिवा और कुछ भी हाथ नहीं आता।

खैर उनके निर्णयों से रीमा ने यह सीख ली कि जीवन में क्या नहीं करना चाहिए। कर्तव्यों की कसौटी पर कसकर किसी को उसके अधिकारों से वंचित नहीं करना चाहिए। कल्पना लोक में विचरती सहसा वर्तमान में लौटी तो नन्हीं सी जान को सीने से चिपका कर उससे एक अमूर्त वादा कर लिया। उसे हर हाल में उसका आसमान देकर रहेगी। आजादी से अपनी उड़ान भरने की आजादी होगी। किसी भी हाल में अपनी पहली संतान को उसके किसी भी सुख से वंचित नहीं करेगी।