तभी उसकी नजर सामने खड़े अपने पति प्रवीण पर पड़ी जो दरवाजे के पीछे से छुपकर कुछ देख मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।

रश्मि ने झाँक कर देखा तो उसका 10 साल का बेटा राजू और उसी का हमउम्र गांव का एक लड़का बबलू जले हुए दीये इक्ठा कर के खेल रहे थे।

दोनो बच्चें आपस मे बात कर रहे थे जिसे प्रवीण और रश्मि ध्यान से सुनने लगे।

सुन राजू ! जैसे जैसे मैं बताता करता जाऊंगा तुम भी मुझे देख कर वैसे ही करना, ठीक है।

“ठीक है” राजू ने कहा

पहले दो दीये को लो फिर मेरी तरह सावधानी से दीये में 1 मिली मीटर त्रिज्या के समान अन्तराल पर इस नुकीली कील से छेद करो। जैसे मैं कर रहा हूं।

“”समान अंतराल मतलब””-राजू ने कहा

अरे!भाई इक्वल-बबलू ने कहा

“‘अच्छा!हो गया छेद””

अब धागे को छेद में डालकर त्रिकोण बनाकर त्रिपाद गांठ दो ऐसे फिर इसको अब हम लकड़ी से बांध देंगे।देखो हो गया हमारा तराजू तैयार।-बबलू ने कहा

“”‘येह!मेरा भी दीये का तराजू बन गया बबलू””

और राजू खुशी से उछल पड़ा। जो खुशी आज राजू को इन मिट्टी के दीये से बने तराजुओ ने दी। वो खुशी आजतक उसे उसके महंगे खिलौनों ने भी नही दी थी।

अपने बेटे को यू खुश देखकर दूर खड़े प्रवीण और रश्मि भी मुस्कुरा दिए।

तभी रश्मि ने कहा””प्रवीण राजू जब से दीवाली मनाने गाँव आया है। वो यहाँ के रंग में पूरी तरह से रंग गया है। इन सब खेलो के आगे तो अब अपने सभी गैजेट  और टीवी शो ही भुल गया है। अब तो ना मोबाइल ना लेपटॉप। बस सुबह शाम यही बबलू और गाँव के बच्चे ही दिखते है राजू को खेलने के लिए। कभी कभी तो डर लगता है कि कही राजू बिगड़ ना जाये।अपना रहन सहन भूल बैठा तो सम्भालना बहुत मुश्किल होगा।””

तब प्रवीण ने कहा””जानती हो रश्मि। मुझे भी बचपन में दीये से तराजू बनाना बहुत पसंद था। दीवाली की सुबह में घर से सब जले दीये उठाकर तराजू बनाता था तो माँ बाबुजी बहुत गुस्सा होते थे। कहते थे हम तुझे पढ़ा लिखाकर इंजीनियर बनाना चाहते है। और तू तराजू बना रहा हैं।”‘

लेकिन पता है रश्मि ये कला भी तराजू बनाने की किसी इंजीनियरिंग से कम नही। बराबर नाप ना हुई तो तराजू सही नही बनता। ये बाल मन की संतुष्टि है। जो अपने किये परिश्रम को देख कर खुश हो रही है। इसे ही तो हम बाल मनोविज्ञान कहते है। जब बच्चा अपने किये कार्य पर खुश होता है। और यही खुशी बच्चो को चिंता और तनाव से कोसो दूर रखती है। जो शहर की तंग गलियों में बच्चों को नसीब नही हो पाती आधुनिकता की होड़ छोटे बच्चो को उम्र से पहले ही समझदार बना दे रही है। आज मैं एक सफल नामी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ। लेकिन फिर भी इन बच्चो की तरह संतुष्ट नही।

पहले हम खेल खेल में पढ़ना सीख जाते थे। तब पढ़ाई का इतना बोझ नही था, प्रतिस्पर्धा नही थी। लेकिन आजकल तो हम दोस्त,स्कूल, खेल बैठना, उठना त्यौहार,उपहार हर चीज में स्टैंडर्ड को पहले रखते है।

सही कह रहे हो प्रवीण शायद आधुनिकता में हम बहुत कुछ प्राकृतिक खोते जा रहे है। अच्छा हुआ जो लॉक डाउन की वजह से हम गांव आ गए।लेकिन अब हम कोशिश करेंगे कि दीवाली पर हरबार गाँव आये। और अपनी संस्कृति और त्यौहार को पारंपरिक तरीके से मनाए।

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तभी उसकी नजर सामने खड़े अपने पति प्रवीण पर पड़ी जो दरवाजे के पीछे से छुपकर कुछ देख मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।
रश्मि ने झाँक कर देखा तो उसका 10 साल का बेटा राजू और उसी का हमउम्र गांव का एक लड़का बबलू जले हुए दीये इक्ठा कर के खेल रहे थे।
दोनो बच्चें आपस मे बात कर रहे थे जिसे प्रवीण और रश्मि ध्यान से सुनने लगे।
सुन राजू ! जैसे जैसे मैं बताता करता जाऊंगा तुम भी मुझे देख कर वैसे ही करना, ठीक है।
“ठीक है” राजू ने कहा
पहले दो दीये को लो फिर मेरी तरह सावधानी से दीये में 1 मिली मीटर त्रिज्या के समान अन्तराल पर इस नुकीली कील से छेद करो। जैसे मैं कर रहा हूं।
“”समान अंतराल मतलब””-राजू ने कहा
अरे!भाई इक्वल-बबलू ने कहा
“‘अच्छा!हो गया छेद””
अब धागे को छेद में डालकर त्रिकोण बनाकर त्रिपाद गांठ दो ऐसे फिर इसको अब हम लकड़ी से बांध देंगे।देखो हो गया हमारा तराजू तैयार।-बबलू ने कहा
“”‘येह!मेरा भी दीये का तराजू बन गया बबलू””
और राजू खुशी से उछल पड़ा। जो खुशी आज राजू को इन मिट्टी के दीये से बने तराजुओ ने दी। वो खुशी आजतक उसे उसके महंगे खिलौनों ने भी नही दी थी।
अपने बेटे को यू खुश देखकर दूर खड़े प्रवीण और रश्मि भी मुस्कुरा दिए।
तभी रश्मि ने कहा””प्रवीण राजू जब से दीवाली मनाने गाँव आया है। वो यहाँ के रंग में पूरी तरह से रंग गया है। इन सब खेलो के आगे तो अब अपने सभी गैजेट  और टीवी शो ही भुल गया है। अब तो ना मोबाइल ना लेपटॉप। बस सुबह शाम यही बबलू और गाँव के बच्चे ही दिखते है राजू को खेलने के लिए। कभी कभी तो डर लगता है कि कही राजू बिगड़ ना जाये।अपना रहन सहन भूल बैठा तो सम्भालना बहुत मुश्किल होगा।””
तब प्रवीण ने कहा””जानती हो रश्मि। मुझे भी बचपन में दीये से तराजू बनाना बहुत पसंद था। दीवाली की सुबह में घर से सब जले दीये उठाकर तराजू बनाता था तो माँ बाबुजी बहुत गुस्सा होते थे। कहते थे हम तुझे पढ़ा लिखाकर इंजीनियर बनाना चाहते है। और तू तराजू बना रहा हैं।”‘
लेकिन पता है रश्मि ये कला भी तराजू बनाने की किसी इंजीनियरिंग से कम नही। बराबर नाप ना हुई तो तराजू सही नही बनता। ये बाल मन की संतुष्टि है। जो अपने किये परिश्रम को देख कर खुश हो रही है। इसे ही तो हम बाल मनोविज्ञान कहते है। जब बच्चा अपने किये कार्य पर खुश होता है। और यही खुशी बच्चो को चिंता और तनाव से कोसो दूर रखती है। जो शहर की तंग गलियों में बच्चों को नसीब नही हो पाती आधुनिकता की होड़ छोटे बच्चो को उम्र से पहले ही समझदार बना दे रही है। आज मैं एक सफल नामी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ। लेकिन फिर भी इन बच्चो की तरह संतुष्ट नही।
पहले हम खेल खेल में पढ़ना सीख जाते थे। तब पढ़ाई का इतना बोझ नही था, प्रतिस्पर्धा नही थी। लेकिन आजकल तो हम दोस्त,स्कूल, खेल बैठना, उठना त्यौहार,उपहार हर चीज में स्टैंडर्ड को पहले रखते है।
सही कह रहे हो प्रवीण शायद आधुनिकता में हम बहुत कुछ प्राकृतिक खोते जा रहे है। अच्छा हुआ जो लॉक डाउन की वजह से हम गांव आ गए।लेकिन अब हम कोशिश करेंगे कि दीवाली पर हरबार गाँव आये। और अपनी संस्कृति और त्यौहार को पारंपरिक तरीके से मनाए।